Tuesday 17 January 2023

लघुकथा के साझा संग्रह

 साझा संग्रह



1 -  'मुट्ठी भर अक्षर' , हिंदी युग्म प्रकाशन - २०१५ 

2-  'लघुकथा अनवरत' सत्र २०१६ "अयन प्रकाशन" - २०१६

3-  ‘सपने बुनते हुए' ललिता अग्रवाल स्मृति संस्थान, कोटकपूरा – २०१७

4-  'अपने अपने क्षितिज' , वनिका पब्लिकेशन – २०१७

5-  "आधुनिक हिंदी साहित्य की चयनित लघुकथाएँ", बोधि प्रकाशन – २०१७

6-  'लघुकथा अनवरत' दूसरा सत्र २०१७, अयन प्रकाशन -– २०१७

7-  किन्नर समाज की लघुकथाएँ, जयपुर साहित्यकार  – २०१७

8-  "उद्गार",  वनिका पब्लिकेशन - २०१८

9-  लघुत्तम-महत्तम, अभ्युत्थान प्रकाशन - २०१८

10-  'नयी सदी की लघुकथाएँ', 'नवशिला प्रकाशन' से प्रकाशित - २०१८  

11-  'अभिव्यक्ति के स्वर' लघुकथा-संकलन- 'हिन्द युग्म' से प्रकाशित – २०१८

12-  "नई सदी की धमक", दिशा प्रकाशन – २०१८

13-  'सफ़र संवेदनाओं का' , वनिका पब्लिकेशन – २०१८

14-  "आसपास से गुज़रते हुए", अयन प्रकाशन  – २०१८

15-  सहोदरी लघुकथा, भाषा सहोदरी प्रकाशन – २०१८

16-  काफी हॉउस {समग्र}, देवशीला पब्लिकेशन – २०१८

17-  लघुकथा संकलन, रवीना प्रकाशन – २०१८

18-  स्वाभिमान, वनिका पब्लिकेशन - 2019

19-  ६६ लघुकथारों की ६६ लघुकथाएँ, दिशा प्रकाशन -  2019

20-  कारवाँ, शारदेय प्रकाशन – 2019

21 -  महानगर की लघुकथाएँ, अयन प्रकाशन  –  2019

22-  समकालीन प्रेम-विषयक लघुकथाएँ - अयन प्रकाशन - 2019

23-  समकालीन लघुकथा का सौंदर्यशस्त्र’, वनिका पब्लिकेशन - 2019

24-  लघुकथा में किसान, वनिका पब्लिकेशन – २०२०

25-  कथादेश पुरस्कृत लघुकथाएँ, नयी किताब प्रकाशन – २०२०

26-  इन्नर {समग्र},असम बुक ट्रस्ट - २०२०

27-   नीड़ की ओर, अपना प्रकाशन – २०२१

28-  रजत श्रृंखला , अपना प्रकाशन – २०२१

29-   नए तेवर की लघुकथाएँ, एजुकेशनल बुक सर्विस  – २०२१

30-   आधुनिक लघुकथाएँ, किताबगंज प्रकाशन – २०२२

31-   पर्यावरण से सम्बन्धित लघुकथाएँ, वनिका पब्लिकेशन -  २०२२         

32-  प्रयोगधर्मी लघुकथाएँ - पेंडिंग    

33-  ६६ लघुकथाएँ एवं उनकी पड़ताल – पेंडिंग    

34-   सागर की लहरें, ज्ञानमुद्रा पब्लिकेशन – पेंडिंग                              

35-  संग्रह का नाम और प्रकाशन ध्यान नहीं परंतु उसमें  हमारी ४ लघुकथाएँ प्रकाशित थीं 

Monday 22 August 2022

कहावत

'ये बाल धूप में सफेद नहीं हुए' कहावत के बजाय अब कहावत होनी चाहिए कि 'ये बाल हमने यूं ही नहीं गवाएँ हैं'।😆sm सीधी बात कि चंदूलाल यूं ही न हुए😄 #अक्षजा
21 अगस्त को ऑन लाइन व्यंग्यकारों को सुनते हुए दिमाग में आया😃

Sunday 22 May 2022

पहली समीक्षा😊 मुकेश तिवारी

 101, यह आंकड़ा शुभ और शगुन का होता है। इतनी ही लघुकथाओं से सजा एक संग्रह निकला है। इसका शीर्षक दिया गया है - #रोशनी_के_अंकुर

वरिष्ठ लघुकथाकार #श्रीमती_सविता #_मिश्रा_अक्षजा_(आगरा) द्वारा लिखी गई छोटी-छोटी कहानियां इस संग्रह में शामिल हैं।
बहुत दिन से इस संग्रह का इंतजार कर रहा था। आज जब यह हाथ में आया तो इसमें शामिल कई छोटी कहानियां तुरंत ही पढ़ डाली। इसे लेकर उत्सुकता इसलिए थी क्योंकि सविता जी की लघुकथाओं का मैं नियमित-सा पाठक हूं। मेरा उनसे संपर्क भी लघुकथाओं के माध्यम से ही हुआ है। उनकी लिखी कथाओं में भावपक्ष की मजबूती रहती है और आज के बदलते सामाजिक ताने-बाने को लेकर चिंता भी दिखाई देती है। घर-परिवार में चल रही स्थिति पर पक्की नजर और पकड़ भी उनकी लघुकथाओं में दिखाई देती है।
संग्रह में जहां से लघुकथाओं की शुरुआत हो रही वहां पहली उपस्थिति ही जोरदार है। मां अनपढ़ शीर्षक वाली लघुकथा बहुत कुछ कह रही है। फिर थोड़ा आगे बढ़ते ही सम्पन्न दुनिया कहानी आती है जहां आधुनिकता के बीच कमजोर होती इंसानियत का चित्रण है ।
संग्रह के पेज नंबर 135 पर फांस शीर्षक से आई लघुकथा को पढ़कर लगता है कि यह अपने शीर्षक और इसे जिस उद्देश्य से लिखा गया है दोनों को सार्थक कर रही है। बेटी, कर्मशक्ति, पछतावा, अस्त्र जैसी अनेक बढ़िया लघुकथाएं इस संग्रह में शामिल हैं । इन्हें पढ़कर महसूस होता है कि लघुकथाकार की नजर पारखी है और वह अपने आसपास व समाज में घट रही घटनाओं और हो रहे बदलाव पर लगातार नजर रखती हैं । हिंदी के साथ कई जगह मीठी क्षेत्रीय बोली ने भी संवाद के दौरान इन लघुकथाओं में जरूरत के मुताबिक मिठास घोली है।
आत्मकत्थ में सविता जी ने कहा है कि लघुकथा के क्षेत्र में खरगोश की तरह दौड़ते हुए नहीं कछुआ चाल से चलकर उन्होंने यह मंजिल हासिल की है। वह कछुआ चाल से ही सही साहित्य और लघुकथा के क्षेत्र में बड़ा मुकाम हासिल करें यही मेरी उनके लिए मंगल कामना है। ...मुकेश की लेखनी

समीक्षक – श्री उमेश महादोषी, लघुकथाकार

 सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ का लघुकथा संग्रह : ‘रौशनी के अंकुर’

चर्चा योग्य बिन्दुओं की पहचान और उन्हें समझने का प्रयास करने पर हर विषय अनूठा लगता है। संभवतः इसीलिए लघुकथा लेखन में नये-नये विषय सामने आ रहे हैं। दूसरी बात, इस प्रसंग में, कुछ विषयों, विशेषतः घर-परिवार और रिश्तों से जुड़े कथ्य लघुकथा में इसलिए भी प्रभावित कर रहे हैं कि ऐसे परिदृश्य से प्रभावित लोग लेखन में काफी संख्या में आये हैं। उनके अनुभव उनके अन्तर्मन के बहुत निकट हैं। अनेक लेखकों ने ऐसे कथ्यों को अपने लेखन की धार बनाया है, भले उनमें से कई कथा सौंदर्य और कुछ अन्य बिन्दुओं पर अपेक्षित परिश्रम न कर पाये हों। यद्यपि एक तथ्य यह भी है, जैसा मैं महसूस करता हूँ, यदि लघुकथा में कथ्य प्रभावित करता है तो बतौर पाठक शेष चीजों का मोह कुछ सीमा तक स्थगित किया जा सकता है। सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ का सद्यः प्रकाशित लघुकथा संग्रह ‘रौशनी के अंकुर’ निश्चित रूप से पठनीय है। इन लघुकथाओं के कथ्य प्रभावित करते हैं और इस बात का प्रमाण हैं कि सविता जी ने अपने समय के यथार्थ को बहुत सकारात्मक दृष्टि से ग्रहण किया है और उसी सकारात्मकता को अपनी लघुकथाओं में बहुत सहजता से प्रतिबिम्बित किया है। उनकी लघुकथाओं में एक अच्छी चीज मुझे यह देखने को मिली कि पीढ़ी अन्तराल के विद्यमान यथार्थ को वह अपेक्षित यथार्थ से जोड़ने की पहल करती दिखाई देती हैं। इस बात का भी नोट लिया जाना चाहिए कि अपने व्यक्तित्व की सहजता-सरलता और स्पष्टवादिता को उन्होंने अपने सृजन में भी नहीं छोड़ा है। यदि वह कथा-सौंदर्य की ओर थोड़ा-सा ध्यान दे सकें, तो भविष्य में बहुत प्रभावशाली लघुकथाओं की उनसे अपेक्षा की जा सकती है। सविता बहन को इस संग्रह के लिए हार्दिक
बधाई
और ढेर सारी शुभकामनाएँ।
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प्रतिक्रिया- ज्योत्स्ना कपिल

 Savita Mishra उन चर्चित रचनाकारों में से हैं जो प्रत्येक विधा में प्रयास करते हैं और उसमें अपनी चमक भी दिखाते हैं। फिर चाहे वह लघुकथा हो, कहानी हो, व्यंग्य हो, समीक्षा हो अथवा बाल साहित्य। हर जगह वह प्रयत्नशील एवम संभावनाशील नज़र आयी हैं। पिछले दिनों आया उनका लघुकथा संग्रह ' रोशनी के अंकुर ' पर्याप्त चर्चा में रह है। यह संग्रह आगरा के निखिल पब्लिशर्स एवं डिस्ट्रीब्यूटर के द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसमें उनकी 101 लघुकथाएं संग्रहित हैं। सविता जी ने अनुमानतः 2014 से लघुकथा लेखन प्रारम्भ किया है और उनका कहना है कि साढ़े तीन सौ अधिक लघुकथाएं लिख चुकी हैं।

इस संग्रह की एक भूमिका वरिष्ठ लघुकथाकार अशोक भाटिया जी ने लिखी है तथा दूसरी प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्रवण कुमार उर्मलिया जी ने लिखी है। भाटिया जी कहते हैं कि सविता जी ने पारिवारिक धरातल के साथ साथ सामाजिक एवम राजनैतिक विद्रूप पर भी कलम चलाई है। दूसरी ओर उर्मलिया जी ने उन्हें साहित्यिक परिवेश में उभरती एक सम्भावना बताया है। उनकी कलम ज्योतिष, पाप पुण्य, शुभ अशुभ, राहु केतु आदि व्यर्थ की मान्यताओं को खारिज करती है। वह अंधविश्वास से परे एक स्वस्थ दृष्टिकोण वाले समाज की स्थापना करना चाहती हैं।
सविता जी की पहली कथा ' माँ अनपढ़ ' वर्तमान के बच्चों द्वारा अपनी माँ को अज्ञानी समझे जाने का चित्रण है। ' मात से शह ' में पुरुष द्वारा साँवले रंग के कारण उपेक्षित स्त्री है। जहाँ स्त्री की सफलता देखने के बाद ही पुरुष को अपनी गलती का अहसास होता है। ' इज्जत ' में एक कुटिल माँ द्वारा अपने नामर्द बेटे के विवाह के लिए जाल में फंसाई गई स्त्री है। ' आहट ' में पुत्री की चिंता से भयाक्रांत पिता है। ' तुरपाई ' में माँ द्वारा बेटी की गृहस्थी को तुरपाई के प्रतीक द्वारा सँवारने की सीख है। इसी प्रकार हाथी के दाँत , आस, ठंडा लहु, नज़र, परिवर्तन आदि सोचने को मजबूर करती लघुकथाएं हैं।
सविता जी की अविराम चलती कलम से यह अपेक्षा की जा सकती है कि उनमे काफी संभावनाएं हैं। मैं सविता जी के उज्ज्वल भविष्य की कामना करती हूँ।
लघुकथा संग्रह - रोशनी के अंकुर
लेखिका - सविता मिश्रा
प्रकाशक - निखिल पब्लिशर्स
पृष्ठ - 152
मूल्य - ₹ 300/-

सार गर्भित टिप्पणी - व्यंग्यकार , अरविन्द तिवारी “#रोशनी_के_अंकुर”

 सविता मिश्रा अक्षजा का यह लघुकथा संग्रह "रोशनी के अंकुर"कई माह पूर्व डाक से मिला था,लेकिन लॉक डॉउन में किताबों के बीच गुम हो गया।सविता मिश्रा के बार बार पूछने पर मैं कह देता था , मिला ही नहीं।किताबों को कई तरह से हम रखते हैं।नई आई किताबें और पत्रिकाएं ऊपर लॉबी में पड़े तख्त पर रखी जाती हैं।इनमें से जिन पुस्तकों को अच्छी तरह देख या पढ़ लेता हूं, वे अंदर कमरे में नई पुस्तकों की रैक में स्थान पाती हैं। कोई पुस्तक गुम होने पर लगभग पांच सौ पुस्तकों को उलटना श्रमसाध्य कार्य होता है।खैर यह किताब मिल गई।इसमें 101 लघुकथाएं हैं।कुछ मैंने पढ़ी हैं।पढ़ी गई में से कुछ बहुत अच्छी लगीं।बाकी विस्तार से लिखना अभी संभव नहीं है।

सत्तर के दशक से लिखी जा रहीं लघुकथाएं अब मुख्य विधा बनती जा रही है।मुझे याद है जब दशकों पहले हमने राजस्थान तटस्थ रचनाकार संघ की स्थापना की थी तो राजस्थान मूल के डॉ सतीश राज पुष्करणा जो बिहार में रहते हैं,को भी जोड़ा था। डॉ रामकुमार घोटड़ तो थे ही। आज मेरे ये दोनों मित्र लघुकथा में स्थापित हस्ताक्षर हैं।
आज फेसबुक के ज़रिए खूब लघुकथाएं लिखी जा रही हैं।जाहिर है सभी मानदंडों पर खरी नहीं उतरती हैं।इतना ज़रूर है कि प्रकाशकों ने एक दशक में खूब किताबें प्रकाशित की हैं।मेरी मान्यता है कि लघुकथा के संक्षिप्त कथानक में चरमोत्कर्ष महत्वपूर्ण होता है। यह जितना अप्रत्याशित होता है,लघुकथा उतनी ही महत्वपूर्ण हो जाती है। प्रसंग वक्रता लघुकथा का आभूषण है। पर मेरी राय में व्यंग्य की तरह पंच का आना जरूरी नहीं है।लघुकथा अतिरिक्त संवेदना के धरातल पर लिखी जाती है। https://www.amazon.in/dp/B0826N58ZV/ref=cm_sw_r_wa_apa_i_fu57Eb3X6SQKZ

वंदना गुप्ता- समीक्षा- “#रोशनी_के_अंकुर”

 नए कलेंडर के साथ यदि आपके किताब की समीक्षा भी मिल जाय तो खुश होना लाज़मी हो जाता है। शुरुआत अच्छी हुई है उम्मीद है ये साल पिछले साल से बेहतर बीतेगा और समीक्षा लिखने वाले भी जागकर हमें जागरूक करेंगे

😊😊 फिलहाल इस बढ़िया शुरुआत के लिए हम Vandana Gupta दीदी के आभारी हैं😊😊
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आज का दौर लघुकथा का दौर है. पिछले कुछ समय से जिस तरह लघुकथा ने अपना स्थान साहित्य में सुरक्षित किया है, वो सराहनीय है. यूँ लघुकथा विधा से मेरा कोई नाता नहीं लेकिन जितना समझ आता है उसके अनुसार कम शब्दों में गहरी बात कह जाना, अपने आप में किसी चुनौती से कम नहीं. पिछले साल बुक फेयर में सविता मिश्रा ;अक्षजा' का प्रथम लघुकथा संग्रह 'रौशनी के अंकुर' उन्होंने भेंट स्वरूप दिया. पिछले कुछ महीनों से मेरे सिरहाने बना रहा. बीच बीच में कुछ लघुकथाएं पढ़ लेती थी. जो किताब सिरहाने बनी रहती है अर्थात उसने अपना स्थान बनाया हुआ है. ऐसा ही इस संग्रह के साथ हुआ. पिछले साल दो चार किताबों के अलावा किसी पर प्रतिक्रिया नहीं दे पायी. वो साल सभी के लिए संघर्षमय रहा. आज सोचा इसी संग्रह से शुरुआत की जाए.
सविता मिश्रा के पास एक सुरुचिपूर्ण भाषा तो है ही, साथ में उनकी दृष्टि भी गहन है. वो वहीँ मार करती हैं जहाँ भी कोई सामाजिक विसंगति देखती हैं. घटनाओं का कथा रूपांतरण मजबूती से प्रस्तुत करती हैं. कम शब्दों में भावनाओं का विस्तार करना आसान नहीं होता किन्तु लेखिका इस हुनर को जानती हैं. लेखिका के पास वो सूक्ष्म दृष्टि है जिसकी बिनाह पर वो सामाजिक, राजनितिक सभी तरह की समस्याओं पर चोट करती चलती हैं.
मात से शह में लड़की के दबे रूप को आधार बनाकर समाज के चेहरे को उजागर किया है वहीँ एक लड़की के स्वाभिमान को भी बनाए रखा है. आज जरूरत है स्त्री को शिक्षित बनाना, फिर उसके बाद वो स्वयं उड़ान भी भर लेगी और अपना आसमान भी पा लेगी, मानो यही कहने का लेखिका का उद्देश्य है.
इज्ज़त के माध्यम से भी लेखिका ने स्त्रियों के दोहरे व्यक्तित्व को प्रस्तुत किया है जहाँ अपने स्वार्थ के लिए वो किसी को भी बलि का बकरा बना सकती हैं और उसे भी अपना अहसान बता दूसरे को दबाए रखना चाहती हैं फिर इसके लिए किसी स्त्री को उम्र भर काँटों की शैया पर ही क्यों न सोना पड़े लेकिन इसी के साथ लेखिका ने बेटी के माध्यम से एक प्रश्न भी खड़ा किया है जो समाज को आइना दिखाने के लिए काफी है.
अभिलाषा के माध्यम से लेखिका ने जैसे माखनलाल चतुर्वेदी की कविता पुष्प की अभिलाषा को जीवंत कर दिया. वहां पुष्प थे तो यहाँ चूड़ियाँ. हर रंग की चूड़ियों की व्यथा के माध्यम से मानो लेखिका ने प्रत्येक स्त्री के दर्द को बयां किया है.
खुलती गिरहें नामक लघुकथा सास बहु के रिश्ते में उगी कंटीली झाड़ियों से खिलखिलाते उपवन में कैसे तब्दील हो सकती हैं उस समस्या पर लेखिका ने प्रकाश डाला है.
धार्मिक अनुष्ठानों के नाम पर कैसे एक प्रतियोगिता सी होती है अथवा समाज में प्रतिष्ठा हेतु दिखावा किन्तु इनका औचित्य क्या जब मन में श्रद्धा ही न हो, बिन मुखौटे के लघुकथा के माध्यम से लेखिका ने यही कहा है.
आज के युग में माता पिता की सेवा तो दूर की बात, उनसे मिलने भी जब तक मतलब न हो, बच्चे नहीं जाते. उनकी इसी सोच पर प्रहार किया है लेखिका ने सर्वधाम लघुकथा के माध्यम से, फिर वो बेटे हों या बेटियाँ. किसी के लिए वो चारों धाम होते हैं तो किसी के लिए चारों धाम का अर्थ भिन्न होता है.
तोहफा लघुकथा के माध्यम से लेखिका ने बच्चों और माता पिता के सम्बन्ध पर ही नहीं बल्कि अधूरी जानकारी के आधार पर कैसे दोनों के मध्य एक खाई खिंच जाती है, उस पर भी प्रकाश डालती है.
लेखिका ने अपने लेखन के माध्यम से रूढ़ियों, विडम्बनाओं और विसंगतियों पर बहुत ही सहजता से प्रहार किया है. कहीं भी लेखिका लाउड नहीं होतीं लेकिन अपनी बात कह जाती है, यही उनके लेखन की सफलता है. पहले संग्रह से लेखिका ने अपनी रेंज का दर्शन करा दिया है. उम्मीद है उनकी लेखनी आगे भी इसी तरह साहित्य को समृद्ध करती रहेगी...पहले संग्रह के लिए लेखिका
बधाई
की पात्र हैं .......शुभकामनाओं के साथ --वंदना गुप्ता https://www.amazon.in/dp/B0826N58ZV/ref=cm_sw_r_wa_apa_i_fu57Eb3X6SQKZ

समीक्षा- “#रोशनी_के_अंकुर” Bibhuti B Jha झा

 समीक्षा- “#रोशनी_के_अंकुर”- लघुकथा- श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा’

लघुकथा संग्रह समीक्षा साहित्य हिन्दी August 8, 2020
सर्वप्रथम “रोशनी के अंकुर” लघुकथा संग्रह हेतु श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा‘ को बधाई, शुभकामनाएँ.
पुस्तक में 101 लघुकथाएँ हैं. रचनाएँ ज्यादा आडंबरों से घिरी नहीं हैं बल्कि सपाट भाषा शैली में हैं. लेखिका ने पुस्तक की शुरुआत में ही कह दिया है कि ‘लिखने को हम लिखते चल रहे हैं अपनी ही शैली में, अपनी ही भाषा के साथ. साहित्यिक दुनिया ने स्वागत किया तो ठीक, नहीं किया तो और भी ठीक.’
मेरा मानना है कि रचनाकर कुछ भी अपने पाठकों के लिए लिखता है, साहित्यिक दुनिया के अन्य रचनाकार के कथन की परवाह कोई क्यों करे? खैर.
इनकी कहानियों में रोजमर्रे के जीवन से संबंधित लघुकथाएँ हैं. ज्यादा काल्पनिक नहीं है. कथ्य और शिल्प के लिए लेखिका स्वयं कहतीं हैं कि वो फेसबुक की आभारी हैं. फेसबुक नहीं होता तो वो बस बहन, पत्नी और माँ बनकर ही रह जाती. यानी पुस्तक एक गृहिणी ने लिखी है तो सराहना होनी ही चाहिए. पुस्तक की कुछ लघुकथाएँ अच्छी बन पड़ीं हैं, कुछ लघुकथाओं में स्थानीय भाषा का भी प्रयोग है. कुछ शब्दों के अर्थ मैं समझ नहीं पाया. कुछ रचनाकार लघुकथा और लघु कथा के व्याकरण में उलझायेंगे, तो स्पष्ट कर दूँ कि कुछ लघु कथाएँ भी हैं. कुछ रचनाएँ पारिवारिक रिश्तों की हैं तो कुछ बुजुर्गों के साथ के व्यवहार की. अनेक लघुकथाएँ सास बहू के रिश्ते, बेटी और बेटा से संबंधित हैं. वहीं चूड़ियों की बातचीत, पुलिस से संबंधित और महिलाओं के अधिकारों से सराबोर लघुकथाएँ मन मोह लेतीं हैं. मैं लेखिका को अन्य जगह भी पढ़ते रहता हूँ. अन्य रचनाओं की अपेक्षा इन लघुकथाओं में तीक्ष्णता कमतर लगीं. इस पुस्तक की कथाएँ साधारण कथ्य और शिल्प में ठीक-ठाक हैं. बहुत विचार कर लघुकथाएँ नहीं लिखी गयीं हैं. अत्यधिक अपेक्षा रखकर पढ़ेंगे तो निराशा होगी. पुस्तक एक बार पढ़ी जा सकती है. लेखिका का हौसला बढ़ाना भी आवश्यक है. एक गृहिणी का साहित्य के क्षेत्र में पदार्पण स्वागत योग्य कदम है. प्रकाशक ने पुस्तक का आवरण और बाइंडिंग भी सुंदर बनाया है. इस पुस्तक को पेपरबैक में कम मूल्य रखकर प्रकाशित करने से भी पाठक बढ़ सकते हैं. साहित्यिक स्तर पर मुझे इनसे काफी उम्मीदें हैं. मैं श्रीमती मिश्रा जी को भविष्य की शुभकामनाएँ देता हूँ. https://www.amazon.in/dp/B0826N58ZV/ref=cm_sw_r_wa_apa_i_fu57Eb3X6SQKZ

मेरी दृष्टि में -- रोशनी के अंकुर ( लघुकथा संग्रह )

"अक्षजा की कथाओ मे परिपक्ता व धार है संवेदना व पीड़ा की स्याही है कम शब्दों मे गहरी चोट करने की सृजनकला है कलम में। "
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बहिन अक्षजा की कहानियां संक्षिप्त शब्दों मे गहरी बात व्यंग्य , वेदना चित्रण करती है जो कहानी संग्रह को एक अलग पहचान देती है । " रोशनी के अंकुर " सविता मिश्रा आगरा का लघु कहानी संग्रह है जो निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर शाहगंज यु.पी. से प्रकाशित है जिसकी कीमत 300 रुपये है और अमेजन व फ्लिपकार्ट पर भी उपलब्ध है । सुन्दर कवरपेज व प्रिंटिंग है जिसमे 101 लघु कथाये है ।
अक्षजा की कहानीयां " माँ अनपढ़ , मात से शह , सम्पन्न दुनिया , पेट दर्द ,इज्ज़त , आहट , मौकापरस्त , खुलती गिरहें ,ढाढ़स , ठंडा लहू , आत्मग्लानि, पेट की मजबूरी ,भूख ,सुरक्षा घेरा ,पाठशाला , रीढ़ की हड्डी , बेटी ,दंश , दूसरा कन्धा ,हस्ताक्षर ,बाजी,परछाई ,बहुत अच्छे व मार्मिक तरीकें से लिखी हुई कहानियां है इन कहानियों मे पीड़ा , व समसाम्यिक विषयों , रिश्तों , संवेदनाओ पर गंभीर व्यंग्य करती हृदय स्पर्शी लधु कथाये है । भावो व शब्दों व व लय व शिल्प का सुन्दर सामजस्य है अभिव्यक्ति का प्रवाह धारा प्रवाह है जो पाठक की एकाग्रता को टुटने नही देता ना ही उसे भटकने देता है ।नारी की पीड़ा पिता व बेटी के संवेदनशील संबंधों को तारतार करती घटनाओं का दर्दनाक चित्रण व नारी पर हो रहे शारीरक अत्याचार पर सिर्फ मोमबत्तियां जलाता मानव का व्यंग्य गात्मक चित्रण किया जो आदमी को हृदय को झंकझोरती कहानियां है तो कही श्रमिक का शोसन ,
तो कही गरीब की रोटी तो आज के युग मे सबकुछ है पर इंसान नही है इस प्रकार की पंक्तियां कहानियों की गंभीरता व लेखनी की परिपक्ता दर्शाती है कहानियों मे लय ओर निरंतरता है भाषा सरल व आमआदमी को समझ आने वाली है शब्द कम परंतु गहरे अर्थ लिए हुए है व्यंग्य भी मार्मिक तरीके से अंकित है जो आदमी के मस्तिष्क मे घर कर जाते है भाषा क्लिष्ट नही है जिससे आमपाठक भी पठकर इसमे खो सकता है ऊबता नही है । इन्हें पठने के बाद हम कह सकते है अक्षजा की कलम मे परिपक्ता व धार है संवेदना व पीड़ा की स्याही है कम शब्दों मे गहरी चोट करने की सृजनकला कथाकार मे है जो कहानियों को श्रेष्ठ पायदान पर खडी करती है ओर संग्रह को एक पठनीय व हृदय स्पर्शीय बनाती है इनका पहला लधु कथा संग्रह है जिसके लिए
बधाई
व लेखनी देखते हुए हम कह सकते है भविष्य में और अच्छे लेखन की संभावनाएं है जिसके लिए बहिन अक्षजा को शुभकामनाएं ।
इनकी कुछ कहानियां व उनकी हृदय स्पर्श करती उनकी पंक्तियां जैस --" मात से शह " -- न शक्ल, न ही सुरत ! कौन शादी करेगा ? भाभी के ननद को कथन । रचना " सम्पन्न दुनिया -- बेटा! सब कुछ हैं किंतु यहां इंसान नहीं है -- !" आज के लेखकों पर व्यंग " पेट दर्द " -- जैसे ही आपकी किताब आने की संभावना बनेगी , यकीनन उसी वक्त से आपका पेट दर्द में आराम मिलने लगेगा । रचना " मौकापरस्त -- चुप करो ! राजनीति नहीं समझते क्या ? आग न्युज वालो ने लगाई । फूंक मारकर हम उसे प्रज्वलित करते रहेगे । आज की राजनीति व मीडिया पर करारा व्यंग्य है "वर्दी -- पापा! मुझे भी काँटो भरा रास्ता स्वयं से ही तय करने दीजिए न । वही रचना "ढाढ़स "-- अम्मा, दाल रोटी तो बस हम गरीबों का भोजन हैं । अमीर तो शाही-- पनीर , पनीर टिक्का , लच्छेदार पराठा आदि खाते है । रचना ठंडा लहू -- हाँ साहब , हुआ तो है । बाल भी सफेद हो गये , बस लहू ही सफेद नही हुआ । रचना "आत्मग्लानि -- आजकल सिद्धांतों की रस्सी पर बिना डगमगाए चलना बहुत मुश्किल है । " पेट की मजबूरी -- हाँ बेटा, आजादी के लिए लडने से पहले समझना चाहिए था हमें कि हमारी ऐसी कद्र होगी । एक स्वतंत्रता सेनानी की पीड़ा ! रचना " सुरक्षा घेरा -- वह बदहवास - सी उस असुरक्षित दुनिया से उल्टे पाँव अपने सुरक्षा घेरे मे लोट आई । इस रचना मे देह व्यापार की मजबूर नारी की पीड़ा ओर सभ्य समाज
की मानसिकता पर गहरा तमाचा कम शब्दों मे । रचना " पाठशाला " -- पाठशाला मे न तो गया , पर जीवन की पाठशाला बखूबी पढ़ी है । रचना " दंश" -- लेकिन किया क्या सबने ! सिवाय मोमबत्तियां जलाने के ? रचना दुसरा कन्धा -- सुनती हो , एक अकेला कन्धा गृहस्थी का बोझ नहीं उठा पा रहा। दुसरा कन्धा --? शायद आसानी हो फिर । रचना "हस्ताक्षर -- अब आपको तलाकनामे पर शिखा के हस्ताक्षर की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी न हम वकीलो की ही । भगवान ने खुद ही हस्ताक्षर कर दिया । रचना " बाजी -- सही कह रहे हो आप सब । वैसे हम सब एक ही तालाब के मगरमच्छ है । रचना " राक्षस --.भैया ! यह रहा वह राक्षस ।
लधुकथा वही सही मायने मे कथा है जिसमें कथाकार कम शब्दों मे पूरी बात कह दे और अक्षजा की कहानियों में यह पूर्णता व परिपक्वता है गागर मे सागर भरती कथाएँ व संदेश देता संग्रह है । जो नये लधुकथाकार को अवश्य पढ़ना चाहिए । कम शब्दों में पूरी बात की कला अक्षजा की कहानियों से सीखनी चाहिए ।
पुनः एक बार अच्छे सृजन के लिए
बधाई
व शुभकामनाएं ।
👏 श्रीगोपाल व्यास एडवोकेट फलोदी ( जोधपुर ) राज .

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चर्चाकार : अनिल शूर आज़ाद

 सरल-सहज तथा अनावश्यक बौद्धिकता से मुक्त लघुकथाएं

चर्चाकार : अनिल शूर आज़ाद
साहित्य-क्षेत्र में इन दिनों लघुकथा विधा की खासी बहार है। बड़ी संख्या में नित नई एकल लघुकथा-पुस्तकें, संपादित संकलन, पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांक आदि सामने आ रहे हैं। कोरोना के बावजूद यह सिलसिला थमा नहीं है। बल्कि ऑनलाइन लघुकथा-संगोष्ठियां, वार्ताएं, ई-पत्रिकाएं, ब्लॉग आदि सामने आने से व्यस्तता और बढ़ गई प्रतीत होती है। हर रोज कितने ही नए पुराने साथी ऑनलाइन रूबरू होते देखे जा रहे हैं।
ऐसे अतिव्यस्त दौर में सविता मिश्रा 'अक्षजा' (दूरभाष : 9444418621) का प्रथम लघुकथा-संग्रह 'रोशनी के अंकुर' सामने आया है। पुस्तक में इनकी एक सौ एक लघुकथाएं शामिल हुई हैं। अधिकांश रचनाएं घर-परिवार, रोजमर्रा के सुख-दुख, सफलताओं-विफलताओं, चुनोतियों तथा स्त्री-जीवन आदि के गिर्द बुनी गई हैं - इस विषय-वैविध्य के चलते ये, बतौर लेखिका अक्षजा के उज्ज्वल भविष्य के प्रति आश्वस्त करती हैं। इसका एक कारण यह भी कि लेखिका ने विधा की तकनीक को समझ लिया है।
हां.. 'आत्मकथ्य' में लेखिका ने घोषित किया है कि चार वर्ष के अल्पकाल में "साढ़े तीन सौ से अधिक लघुकथाएं लिख चुके हैं हम या शायद इससे अधिक ही। कई वरिष्ठ-जनों का मार्गदर्शन मिलता रहा जिनके आभारी हैं हम। बड़ों के आशीर्वाद और छोटों के स्नेह से मेरी मंजिल एक न एक दिन मिलेगी ही।" अच्छी बात है। इस संदर्भ में हमेशा की तरह अपनी बात दोहराना चाहता हूं कि साहित्य में मात्रा/संख्या नहीं, स्तर पर सतत जोर रहना जरूरी है। जैसे 'उसने कहा था' जैसी कुछ कालजयी कहानियां उन हज़ार कहानियों पर भारी हैं जो समय के साथ काल-कलवित हो गई। यही लघुकथा पर भी लागू होता है।
पुस्तक की दो भूमिकाएं क्रमशः सर्वश्री अशोक भाटिया तथा श्रवण कुमार उर्मलिया द्वारा लिखी गई हैं। श्रवणजी ने जहां लेखिका में निहित उभरती संभावना को चिन्हित किया है वहीं प्रो. भाटिया ने अपने वक्तव्य की शुरुआत "लघुकथा एक वाक्य से लेकर लगभग एक हजार शब्दों तक की, स्वयं में पूर्ण कथा-रचना है।" पंक्ति से की है। यही कुछ वे गत दो-तीन वर्ष से कहते रहे हैं। संभवतः इसीसे प्रेरित-प्रभावित होकर सविता मिश्रा ने भी "ठंड" जैसी कमजोर रचना को लघुकथाओं में शामिल कर लिया है जिसका आकार चौथे पृष्ठ तक पहुंचता है। लेखिका सहित नई पीढ़ी के तमाम लेखकों को ऐसी रचनाओं को 'लघुकथा' कहे जाने पर भी, पुनर्विचार अवश्य करना चाहिए।
लघुकथाओं की भाषा प्रायः सरल-सहज तथा अनावश्यक बौद्धिकता से मुक्त है एवं इसीलिए ये बेहतर बन पड़ी हैं। वहीं अनेक लघुकथाएं ऐसी भी हैं जिन्हें थोड़ी कसावट के साथ अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है। पुनर्प्रकाशन के समय यह अवश्य किया जाना चाहिए। बहरहाल इस प्रथम लघुकथा-संग्रह के लिए बहुत
बधाई
एवं हार्दिक शुभकामनाएं

समीक्षक -राजीव तनेजा

 मेरी 'रोशनी के अंकुर'

😊
विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली में बांटी गई अपनी 'रोशनी के अंकुर' के अंकुर अब निकलने लगे हैं। राजीव भैया किसी परिचय के मोहताज नहीं जो हम परिचय कराए। हम जैसे नवांकुर की किताब पढ़ना वह भी पूरी 101 लघुकथाएँ, और उस पर चार शब्द कहना, बहुत बड़ी बात है...इसके लिए आभार व्यक्त करते हैं हम राजीव भैया का😊😊😊
उनके द्वारा लिखी समीक्षा आप सब भी देखिए..👇👇
बिना किसी खर्चे के किताबों को पढ़ने और उन्हें प्रोत्साहित करने का एक आसान तरीका, उनकी आपस में दूसरों के साथ अदला बदली भी है। इस तरीके से आप अपने सीमित बजट में भी ढेर सारी किताबों को पढ़ कर उनका आंनद ले सकते हैं। इस बार के पुस्तक मेले में जब मेरी मुलाकात सविता मिश्रा 'अक्षजा' जी से हुई तो बातों ही बातों में मैंने उन्हें अपनी किताब "फ़ैलसूफियां" के बारे में बताया तो उन्होंने भी बतौर जानकारी कहा कि उनकी भी एक लघु कथाओं की एक किताब आ चुकी है। एक दूसरे की किताब को खरीदने के बजाय हमने सोचा कि क्यों ना आपस में किताबों की अदला बदली कर ली जाए?
नतीजन अब मेरे हाथ में उनकी किताब "रौशनी के अंकुर" है और मैंने इसे अभी अभी पढ़ कर खत्म किया है। इस किताब में उनकी 101 लघु कथाएं हैं और इसको पढ़ते वक्त कहीं पर भी यह नहीं लगा कि यह उनका पहला संकलन है। सीधी..सरल एवं प्रवाहमयी भाषा में बहुत ही आसानी से वे अपने मन की बात प्रभावी ढंग से कहती हैं। विषयों को चुनने की उनकी समझ वाकयी तारीफ के काबिल है। वे अपने आसपास घटित हो रही घटनाओं एवं खबरों पर पैनी नज़र रखती हैं और उन्हीं में से अपनी सुविधानुसार कहानी तथा किरदारों को चुनते हुए आसानी से अपनी रचना का ट्रीटमेंट तय कर लेती हैं।
इस संकलन की कुछ लघुकथाएँ जो मुझे बेहद प्रभावी लगी, उनके नाम इस प्रकार हैं:
*सही दिशा
* निर्णय
* आत्मग्लानि
* दाएं हाथ का शोर
* सर्वधाम
* तोहफ़ा
* भाग्य का लिखा
एक पाठक के तौर पर पढ़ते हुए जहाँ एक तरफ उनकी लघु कथाओं में मुझे विषयों की व्यापकता एवं स्थानीय भाषायी प्रयोग ने प्रभावित किया , वहीं दूसरी तरफ कुछ कहानियाँ ने इस बात की तरफ इंगित भी किया कि अंत में वह अपनी बात उनमें पूर्णरूप से स्पष्ट नहीं कर पायी हैं। कहीं-कहीं पर यह भी लगा कि रचना जल्दबाज़ी में तुरत फुरत जैसे लिखी गयी बस..वैसे ही लिख दी गयी। मेरे ख्याल से इस क्षेत्र में उन्हें अभी और मेहनत करने की ज़रूरत है।
मेरे हिसाब से किसी भी रचना को लिखते वक्त ये लेखक की ज़िम्मेदारी बन जाती है कि वो जो कहना चाहता है, वह पाठक को पूर्णरूप से बिना किसी ग़लतफ़हमी या त्रुटि के साफ..साफ समझ आना चाहिए। अगर इसमें रचियता कहीं चूकता है तो उसे, उस रचना पर अभी और मेहनत कर मांजने की ज़रूरत है। कई बार एक लेखक के तौर पर हमें अपनी रचनाओं का बार बार खुद ही पुनर्मूल्यांकन करना पड़ता है, तब कहीं जा कर वह रचना पाठकों की कसौटी पर खरी उतरने लायक बनती है। पुस्तक के अंदर मात्रात्मक ग़लतियों का होना तथा नुक्तों का सही एवं वाजिब जगहों पर भी प्रयोग नहीं किया जाना थोड़ा अखरता है। वैसे लेखिका ने इस बात पर अपने आत्मकथ्य में सफ़ाई दी है लेकिन ग़लती तो खैर ग़लती ही है। उम्मीद है कि अपनी आने वाली पुस्तकों और इसी किताब के आगामी संस्करणों में वे मेरे इन सुझावों को अन्यथा ना लेते हुए अपनी कमियों को दूर करने का पूरा प्रयास करेंगी।
152 पृष्ठीय इस लघुकथाओं के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स ,शाहगंज, आगरा ने और इसका मूल्य ₹300/- रखा गया है। किसी भी किताब या रचना पर पाठकों का ध्यान आकर्षित करने में कंटैंट के अलावा उसके शीर्षक की भी अहम भूमिका होती है। शीर्षक ऐसा होना चाहिए जो पाठक को खुदबखुद अपनी तरफ खींचे। उम्मीद है कि अगली बार लेखिका की रचनाओं एवं किताबों के शीर्षक ज़ोरदार होंगे। इसी के साथ आने वाले भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को बहुत बहुत
बधाई
***राजीव तनेजा***

समीक्षक - गीतकार, रमा वर्मा श्याम

 साहित्य साधिका समिति की संस्थापिका/ Rama Verma Shyam दीदी द्वारा लिखी ‘रोशनी के अंकुर’ लघुकथा संग्रह पर उनका अपना दृष्टिकोण।

समीक्षा के पूरे नौ पेज लिखना भी बड़ी बात है उन्होंने ज्यादातर कथाओं पे बात की है।
समीक्षा को बस पढ़कर हमें कहना है कि उन्होंने दीपक को सूरज दिखा दिया है।
आभार रमा दीदी आपका😊❤️

समीक्षक अशोक अश्रु

वरिष्ठों का आशीष मिलता रहे यूँ ही और क्या चाहिए

😊😊😊
आप सब भी पढ़िए हो सके तो---👇👇
समीक्षा : 'रोशनी के अंकुर '
लेखिका: सविता मिश्रा 'अक्षजा'
मैं आप से बात कर रहा हूँ लेखिका श्रीमती सविता मिश्रा 'अक्षजा' की पुस्तक 'रोशनी के अंकुर' लघुकथा संग्रह की जो निखिल पब्लिसर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स आगरा से प्रकाशित हुआ है। जब हम इस संग्रह के आवरण पृष्ठ को देखते हैं तो आवरण पृष्ठ की धरा पर एक प्रकाश पुंज दृष्टिगोचर होता है ।जो कहीं न कहीं अंकुर से ही प्रस्फुटित हुआ है जो कह रहा है कि समग्र सृष्टि का बीज रूप अंकुर ही है तथा जहाँ से प्रकृति का उद्गम हुआ है। आवरण के पृष्ठ भाग पर लेखिका का परिचय है। जब मैं उनका परिचय पढ़ रहा था या यूँ कहूँ कि मैंने अनुभव किया कि वह जो हैं वही दीखना चाहती हैं। किसी तरह का कोई आडम्बर नहीं। अधिकाधिक महिला लेखिकाएँ अपने जन्म का वर्ष नहीं लिखतीं पर यहाँ ऐसा नहीं है। परिचय मैं उन्होंने अपने माता-पिता, पति एवं बच्चों का जिक्र किया है। जब मैंने पुस्तक खोली तो यह पुस्तक उन्होंने अपने स्वर्गीय सास-ससुर को समर्पित की है। मेरे कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि वह अपने परिवार अपने रिश्तों के प्रति निष्ठावान हैँ तथा संस्कारों के प्रति सजग हैं।
आज का पाठक बड़े बड़े उपन्यासों एवं कहानियों की तुलना में लघुकथाओं की ओर अधिक आकर्षित है। कारण स्पष्ट है कि आज की भागमभाग जिंदगी में उसके पास समय कम है।वह कम समय में अधिक से अधिक मनोरंजन चाहता है वहाँ लघुकथाएं अपना स्थान बनाने में सफल रही हैं। पद्य में जिस प्रकार दोहा या शेर को दो पंक्तियों में बड़ी से बड़ी बात कहने की महारथ प्राप्त है उसी प्रकार लघुकथा को गद्य में वही स्थान प्राप्त है। ये कुछ क्षणों में पाठक की हमराही बन जाती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि लघुकथाएं कुछ शब्दों में ही अपनी भाव प्रवीणता के कारण पाठक के मन को गुदगुदाने लगतीं हैं तथा कुछ समय में ही पाठक की पाठन क्षुधा को तृप्त कर देतीं हैं।
'रोशनी के अंकुर' एक सौ एक मोतियों की माला है।जिसके हर मोती में आब है तथा हर मोती की महत्ता है। ये एक सौ एक लघुकथाएं संग्रह के एक सौ अड़तीस पृष्ठों में हैं अर्थात अधिकाधिक कथाएं एक पृष्ठ के अंदर ही पूर्ण हो गई हैं। इस प्रकार ये लघुकथाएं वास्तव में लघु रूप में हैं। लघुकथाओं के सन्दर्भ में विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न परिभाषाएं दी हैं।मेरा मानना तो यही है जो कि जो लघुकथा पाठक मन को झंकृत करदे या जो कथाकार कह रहा है वह मानव मन की गहराइयों में उतर कर अपना घर बनाले वही कथा श्रेष्ठ है। लेखिका ने इस सन्दर्भ में बहुत ही सच्चाई से श्रम किया है। उनकी अधिकतर लघुकथाएं भावनात्मक और मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत हैं। जो रोजमर्रा के जीवन में घटने वाली घटनाओं को अपने अंदर समेटे हुए हैं। इसीलिए पाठक को लघुकथाओं के चरित्र अपने आसपास के ही महसूस होते हैं। जिसके कारण वह उनसे शीघ्र तारतम्य स्थापित कर लेता है। यही अक्षजाजी के इस लघुकथा संग्रह का विशेष गुण है।
जिस प्रकार पारखी के माध्यम से कुछ दानों से ही बोरी में भरे अनाज के गुणों की पहचान करली जाती है। उसी प्रकार मैं भी 'रोशनी के अंकुर' संग्रह की कुछ लघुकथाओं का जिक्र करूंगा। उनकी लघुकथा 'कागज का टुकड़ा' दाम्पत्य जीवन के खट्टे-मीठे प्रसंगों को लेकर लिखी गई है। इस लघुकथा के माध्यम से लेखिका यह संदेश देने में पूरी तरह सफल रही हैं कि कभी-कभी जो आँखें देखती हैं वह सत्य नहीं होता। इसलिए मन की आँखें खोलकर देखना और समझना परमावश्यक है। इसी प्रकार लघुकथा 'तुरपाई' में लेखिका यह संदेश देने में पूर्णतः सफल रही हैं कि बेटी का घर बनाने में बेटी की मां का बहुत बड़ा योग रहता है। इस कथा में मां अपनी बेटी को एक दृष्टांत के माध्यम से उचित सीख देकर उसे उसकी ससुराल वापिस भेज देती है। जिससे बेटी का घर बिगड़ने से बच जाता है। जब मैं इस संग्रह की लघुकथा 'अभिलाषा' पढ़ रहा था। उस समय मेरे मन में अयोध्या सिंह उपाध्याय'हरिऔध' की कविता 'एक बूंद' घुमड़ने लगी। जिसमें एक बूंद बादलों से निकल कर आगे बढती है तो स्वयं से प्रश्न करने लगती है। "हाय क्यों घर छोड़कर मैं यों बढी ।" इसी प्रकार अभिलाषा लघुकथा में टूटी हुई चूडियां भट्टी में पुनः तपने जाने से पूर्व आपस में चिंतन करने लगती हैं कि भविष्य में हमारा क्या होगा। पता नहीं हम किसके हाथ की चूड़ियाँ बनेंगे। लघुकथा 'मन का बोझ' के माध्यम से लेखिका ने समाज को यह सीख दी है कि कभी कभी हम रास्ते में हुए एक्सीडेंट को देखकर भी उसे अनदेखा करके आगे बढ जाते हैं।जबकि हमारा धर्म एवं कर्तव्य यह होना चाहिए कि हम उसके प्राथमिक उपचार की व्यवस्था करें तथा पुलिस को सूचित करें।इस कथा का पात्र दुर्घटना देखकर भी बिना रुके चला जाता है। बाद में उसे मालूम पड़ता है कि उसी के पुत्र का एक्सीडेंट हुआ था यदि तुरत उपचार मिल जाता तो शायद उसके प्राण बच जाते। मैं इस संग्रह की लघुकथा 'सच्ची सुहागन' पर कुछ न कहूँ तो मेरी बात अधूरी रह जाएगी। यह लघुकथा एक गरीब परिवार की व्यथा कथा है। इस लघुकथा के द्वारा लेखिका ने बहुत ही मार्मिक ढंग से इस तथ्य को उजागर किया है कि एक गरीब परिवार की अभिलाषाओं और इच्छाओं का आर्थिक विपन्नता के कारण किस प्रकार गला घुटता है। मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि इस संग्रह की अधिकाधिक लघुकथाएं संदेशपरक एवं सकारात्मक सोच के साथ साथ समाज का नग्न चित्रण करने से भी नहीं चूकी हैं। इसी प्रकार लेखिका ने 'इज्ज़त' 'समय का फेर' 'वर्दी' 'बिन मुखौटे के' 'आत्मसम्मान' 'देश' 'बेटी' 'नशा' 'इतिहास दोहराता है' 'रौशनी' 'भाग्य का लिखा' आदि लघुकथाएं समाज में व्याप्त विसंगतियों को उजागर करती हुई दीखतीं हैं।
सविता मिश्राजी ने समाज में घटने वाली घटनाओं के हृदय पटल पर बनने वाले बिम्बों के मंथन से निकले नवनीत को ही अपनी लघुकथाओं की विषय वस्तु बनाया है।जो यथार्थ के करीब हैं और उद्देश्यपरक हैं।उन्होंने अपने आसपास जो देखा है और अनुभव किया है उसी का सार 'रोशनी के अंकुर' के रूप में हमारे सामने है।आप संस्कारों के प्रति जिद्दी हैं इसकी झलक भी उनकी लघुकथाओं में मिलती है। सरल भाषा में आपको बड़ी से बड़ी बात कहने की महारथ प्राप्त है। आपका जन्म इलाहाबाद में हुआ है और वहीँ आप पढ़ी- बढ़ी हैं इसलिए वहाँ की मिट्टी की सुगंध आपकी भाषा में घुलमिल गई है जिससे आपकी भाषा शैली में मिठास बढ़ गया है।
इस संग्रह की एक दो लघुकथाओं को छोड़ दें तो यह एक सशक्त लघुकथा संग्रह है। ईश्वर करे कि 'अक्षजाजी' की लेखिनी इसी खूबसूरती के साथ सक्रिय रहे। भविष्य में शीघ्र और भी उनकी पुस्तकें देखने को मिलें। ऐसी रचनाएँ साहित्य की निधि होती हैं, जो साहित्य को सही अर्थों में 'साहित्य' होने का गौरव प्रदान करती हैं।
समीक्षक
अशोक अश्रु
सम्पादक: संस्थान संगम मासिक पत्रिका, आगरा ।
मो.9870986273

*रिश्तों की सच्चाई को संवेदना के स्तर पर उधेड़ती सशक्त लघुकथाएं* समीक्षा

 2 वर्ष के बाद पुनः #लघुकथा संग्रह- '#रोशनी_के_अंकुर' की समीक्षा के साथ

😊😊

पुस्तक समीक्षा
*रिश्तों की सच्चाई को संवेदना के स्तर पर उधेड़ती सशक्त लघुकथाएं*
समीक्षक: डाॅ. अखिलेश पालरिया
आगरा निवासी सविता मिश्रा 'अक्षजा' का लघुकथा संग्रह- 'रोशनी के अंकुर' समाज में व्याप्त उन तमाम विद्रूपताओं, विषमताओं व असमानताओं का यथार्थ चित्रण है जिन्हें पढ़कर मस्तिष्क उद्वेलित होता है, मन में संवेदनाओं का ज्वार उमड़ता है तो खलनायकों के प्रति आक्रोश भी फूट पड़ता है।
इसमें कोई शक नहीं कि संग्रह का फलक विस्तृत है, जहाँ रोशनी के अंकुर मनमाने तरीके से अवांछित बादलों को चीर कर प्रस्फुटित हो जाते हैं।
इन 101 लघुकथाओं में कुछ का विषय काॅमन जरूर है लेकिन स्वर अलग-अलग हैं जो कभी बाँसुरी की तरह रिश्तों को सहेजते हैं और कभी ढोल-नगाड़ों की भाँति कानों में गूँजते हैं तथा लघुकथाओं की साफगोई व उद्देश्य से पाठकों को परिचित कराते हैं।
लघुकथाओं के केन्द्र में मुख्यतः विवश स्त्रियों की दास्तानें हैं जो कई बार पुरुषों की आक्रामकता पर हथौड़े की तरह वार करती हैं। लगता है, लेखिका समाज की एक जागरूक महिला की तरह अपनी पैनी व सूक्ष्म दृष्टि से घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में दुष्टजनों के नंगे बदन पर चाबुक की चोट करती प्रतीत होती हैं। एक पुलिस निरीक्षक की पत्नी सविता जी जिस दबंगता से यह काम शब्दों से बखूबी करती हैं उसे देखते हुए पति-पत्नी दोनों के लिए ताली बनती है।
यह भी सच है कि लेखिका अपनी लघुकथाओं द्वारा रिश्तों को सींचने का काम कर रही हैं- कभी प्रेम से, कभी व्यंग्य तो कभी हास्य से।
संग्रह की 101 लघुकथाओं में 'वैटिकन सिटी' सर्वाधिक मार्मिक बन पड़ी है जिसमें कन्या भ्रूण हत्या को अंजाम देते समय गर्भस्थ शिशु व माँ के बीच संवाद पाठक को झकझोर कर रख देते हैं। प्रस्तुत है लघुकथा के कुछ अंश-
*"माँ-माँ..."*
*"क्या हुआ मेरी बच्ची?"*
*"माँआआअ, सुनो न! तुझे सुलाकर डाॅक्टर अंकल मेरे पैर काटने की कोशिश में लग गए हैं..!"*
*ओ मुए डाॅक्टर! मेरी बच्ची, मेरी लाडली को दर्द मत दे। कुछ ऐसा कर ताकि उसे दर्द न हो! भले मुझे कितनी भी तकलीफ दे दे तू।"*
*माँ मेरा पेट...!"*
*"ओह मेरी लाडली! इतना सा कष्ट सह ले गुड़िया, क्योंकि इस दुनिया में आने के बाद इससे भी भयानक प्रताड़ना झेलनी पड़ेगी तुझे! मुझे देख रही है न! मैं कितना कुछ झेलकर आज उम्र के इस पड़ाव पर पहुँची हूँ। इस जंगल में स्त्रीलिंग होकर जीना आसान नहीं है, नन्ही गुड़िया।"*
*"माँ-माँआआआ, इन्होंने मेरा हाथ..!"*
*"आह! चिंता न कर बच्ची। बस थोड़ा सा कष्ट और झेल ले! जिनके कारण तुझे इतना कष्ट झेलना पड़ रहा है, वो एक दिन 'वैटिकन सिटी' बने इस शहर में रहने के लिए मजबूर होंगे, तब उन्हें समझ आएगी लड़कियों की अहमियत।" तड़प कर माँ बोली।*
*माँ, अब तो मेरी खोपड़ी! आह! माँ! प्रहार पर प्रहार कर रहे हैं अंकल!"*
*"तेरा दर्द सहा नहीं जा रहा नन्हीं! मेरे दिल के कोई टुकड़े करें और मैं जिन्दा रहूँ! न-न! मैं भी आ रही हूँ तेरे साथ!"*
*माँ!"*
*"मैं तेरे साथ हूँ गुड़िया...! वैसे भी लाश की तरह ही तो जी रही थी। स्त्रियों को सिर उठाने की आजादी कहाँ मिलती है इस देश में। तुझे जिंदा तो रख न सकी किन्तु तेरे साथ मर तो सकती ही हूँ! यही सजा है इस पुरुष प्रधान समाज को मेरे अस्तित्व को नकारने की।"*
(पृष्ठ 93-94)
संग्रह में रिश्तों पर आधारित उल्लेखनीय लघुकथाएं हैं- *'आहट', 'प्यार की महक', 'तुरपाई', 'सौदा', रीढ़ की हड्डी', 'ठूंठ', 'पारखी नज़र' , 'एक बार फिर'* आदि।
इसी प्रकार संवेदना के स्तर पर उत्कृष्ट लघुकथाओं में *' वैटिकन सिटी', 'सम्पन्न दुनिया', 'सही दिशा', 'हिम्मत', 'ब्रेकिंग न्यूज', 'पछतावा', 'इंसान ऐसा क्यों नहीं', 'अपनी नज़रों में', 'परिवर्तन', 'परिपाटी'* आदि हैं।
कहना होगा कि लेखिका सविता मिश्रा 'अक्षजा' व्यंग्य ही नहीं, लघुकथा विधा की भी एक सशक्त हस्ताक्षर हैं।
पुस्तक की प्रिंटिंग व बाइंडिंग ठीक है लेकिन बिन्दियों की कई जगह त्रुटियाँ अखरती हैं। कवर पृष्ठ भी अधिक आकर्षित नहीं करता।
लघुकथा संग्रह: *रोशनी के अंकुर*
लघुकथाकार: *सविता मिश्रा 'अक्षजा'*
प्रकाशक: *निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, आगरा*
प्रकाशन वर्ष: *2019*
पृष्ठ: *152*
मूल्य: *₹300*
150/ में इधर अमेजॉन पे उपलब्ध