Tuesday 24 December 2013

देखो न-

आसमान में उड़ते रहते हो
जरा जमीं में उतर के देखो न !


चश्मा पहनकर देखते हो दुनिया
जरा चश्मा उतारकर देखो न !

स्वार्थ के लिए करते हो सब कुछ
जरा तुम निःस्वार्थ बनकर देखो न !

घर को तो अपने सजाते-संवारते ही हो
अपने देश को जरा संवारकर देखो न !

जग में प्यारी-न्यारी है अपनी यह संस्कृति
जरा उस संस्कृति को अपना के देखो न !

विरला ही होगा फिर तुम-सा दुनिया में
खुद की नजरों में खुद को ही उठा के देखो न !! सविता मिश्रा 'अक्षजा'

Thursday 12 December 2013

हायकु

झांकते नहीं
गिरेबान अपना
दोषी दूसरा |...सविता मिश्रा

वक्तव्य देते
तन वसन पूरा
क्या बच जाती |..सविता मिश्रा

चिल्लाते रहे
ठेकेदार समाज
कपड़े कम |सविता मिश्रा

हुआ हादसा
अर्धनग्न थी वह
ठहाके लगे |सविता मिश्रा

गिरा आचार
क्या नहीं हो रहा
मासूम साथ |..सविता मिश्रा

दोषी औरत
ठहराते आदमी
कमी छुपाते |..सविता मिश्रा

माक़ूल नहीं
दोज़खी हर कही

संभल नारी |सविता मिश्रा

विक्षिप्त हुआ
मानुषिक विचार
आरज लुप्त |सविता मिश्रा

दोषारोपण
दूजे के मथ्थे मढ़
महामति थे |सविता मिश्रा

दोष खुद का
छिद्रान्वेषी मानव
भीड़ ऐसे की |सविता मिश्रा

Friday 6 December 2013

~फेसबुकिया मम्मी~


फेसबुक अकाउंट बना पकड़ा दिया हमको
मम्मी देखो ऐसे-ऐसे होता है समझा दिया हमको
पर हम ठहरे मूरख एक बात भी ना समझे थे
क्या करें कैसे करें कुछ भी ना सीखे थे
आर्कुट ही लगता अपने को चंगा
फेसबुक खोल कौन लेता पंगा
आर्कुट पर ही १५- २० मिनट बिताते
सब की फोटो देख खुश हम हो जाते
कौन अपने पर दे रहा कम्मेंट
कुछ ना अता-पता चलता था
फिर भी थोड़ा बहुत वही पर
अपना खाली वक्त बीतता था |

पर उसके बार-बार समझाने पर
धीरे-धीरे कुछ-कुछ समझने लगे थे
एकाक गाने की लाइन पोस्ट कर
फेशबुक की राह पर चलने लग पड़े थे
एक-दो लोग अच्छा कह कर जाते
हम भी धन्यवाद कह खाना पूर्ति कर आते
पर जब सब धीरे-धीरे समझ आने लगा
मंचो से जुड़ने पर अपना मुहं भी खुलने लगा
कोई कुछ भी कहता जबाब झट दे देते
दुआ सलाम होता भाइयों से बैठ बतिया लेते|

शैने-शैने फ्रेंड लिस्ट की संख्या लगी बढ़ने
सब मंच से निकल अपने लिस्ट में लगे थे जुड़ने
फिर क्या था जो दस मिनट में था दम घुटता
ना जाने कब समय बीतने लगा घंटा दो घंटा
अब बिटिया कहती सिखाकर गलती कर दी
मम्मी तो हमारी फेसबुकिया मम्मी हो ली
दाना-पानी देना सब भूल जातीं इस चक्कर में
हमसे ज्यादा खुद ही अब समय बिताती हैं इसमें|
पतिदेव भी कभी-कभी खीझ ही जाते
जब फेशबुक का चक्कर लगाते हमें पाते
तुम तो इस चक्कर में घर को ही भूल जाती हो
हमको भी थोड़ा भी समय नहीं दे पाती हो
तुम ऐसा करो क्यों नहीं इसको ही छोड़ देती हो?

क्या करें हम तुम्हीं बतलाओ
मेरे अस्तित्व को ऐसे तो न झुठलाओ
छूटी थी जो लेखनी इसी से फिर हम पकड़ पाये
रोज कुछ ना कुछ अब तो लिख ही यहाँ जाये
फिर बताओ कैसे हम इसको छोड़ पाये
फालतू का समय ही तो हम यहाँ बिताये
मन के भाव जो दब गए थे कहीं एक कोने
वह फिर से कागज को स्याह करके
अभिव्यक्ति किसी ना किसी रूप में होले |...सविता मिश्रा

Wednesday 4 December 2013

+मध्यम आंच में खीर खूब मीठी बनती है+

हमारे लिए शादी और गौने के
बीच की दीवार भी ना थी
दोनों एक ही साथ
निपटा दिए गये थे
घुघट में उनके दरवाजे
पर दस्तक दे चुके थे
जिन्हें कभी देखे ही न थे
दिल के दरवाजे नहीं खोले थे
शादी के महीनों बाद तक
मस्तमौला थे
नहीं संजोये थे
सपने किसी के लिए
अब जागती आँखों से
सपना सा देख रहे थे
अपने ही सामने पर
नहीं देखा था
खुली आँखों से
महीनों तक
सपनों के राजकुमार को
शर्म से नजरे
झुकी होती थी
आवाज को
बखूबी पहचान लेते थे
निगाहों से निगाहें
मिली ना थी
तो आँखों ही आँखों में इशारा हो गया
गाना भी नहीं गुनगुना सकते थे
क्योकि मोहब्बत
किस चिड़िया का नाम हैं
नहीं समझते थे तब तक
प्यार परवान भी ना चढ़ा था
समय के साथ
परवान चढ़ता गया
अब इतना परिपक्व हो गया
कि किसी की भी लगायी आग का
असर नहीं होता हैं
अपने प्यार को देख
लगता है कि
सही कह गये कुछ सयाने
मध्यम आंच में खीर
खूब मीठी बनती है| सविता

Monday 25 November 2013

लकीर हाथों की


मेरे पति देव
===========




सब हाथ की लकीरों में ढूढ़ते रहे

तुम दिल में हमारे बसे बैठे रहे
इन्तजा है तुमसे हमारी दिल से तुम

हाथों की लकीरों में भी दिखने लगों
जैसे लोग भ्रम में जीना छोड़ दे
और
तुझे लकीरों में देख हाथो की
हमारी किस्मत पर ईष्या करे||....
.सविता मिश्रा

Thursday 21 November 2013

बस दस... :) :)

१--मन टटोलने की यूँ हिमाकत ना किया करो
कही ऐसे करते -दिल ही ना टूट जाये| ..सविता मिश्रा

2--संदेह का लाभ हम खुद ही उन्हें दिला बैठे
अपने ही पाओ पर कुल्हाड़ी चला बैठे| ...सविता

3--जीने की ख्वाइशे किसे थी इस बेरहम दुनिया में
अब तो चाहत हैं किसी दुश्मन को मार कर ही मरे| ..सविता

4--फिरते थे उजाला लिए खरीदार ना मिला कही भी हमें
अँधेरे को बेचने की एक ही आवाज में सब दौड़े आये| ..सविता

5--भ्रम ही हैं देते जीने का एक फलसफा
वर्ना कौन यहाँ जी पाएगा सच्चाई से| .सविता मिश्रा

6--झुकी आँखों को देख गफलत में ना रहो
ये शर्म से नहीं तेरे अदब में झुकी हुई हैं |...सविता मिश्रा

7--सितारों की चमक भी खुद बा खुद फीकी पड़ जाती हैं
घने अँधेरे से जब मिलने को धरती पर आती हैं| ...सविता मिश्रा

8--मौत तो हर पल चुपचाप बैठी हैं अपने ही आगोश में
देख रही तमाशा कि छटपटा रहें हम जिन्दगी की चाह में| ...सविता मिश्रा

9--जाती हुई सांसो के लौटने का करते हैं इन्तजार
मौत रहती हैं इस चाह में कि टूटे सांसो से करार| ..सविता मिश्रा

10--आसमान से धरा पर यूँ गिरा दिया
जैसे कभी हम तुम्हारे कुछ भी ना थे| ...सविता

Thursday 7 November 2013

++ओह क्या क्या समझ बैठे ++

मानी थे लोग अभिमानी समझ बैठे
क्रोधी ना थे लोग क्रोधी कह बैठे
दयालु थे बहुत लोग फायदा उठा बैठे
भावुक थे हम लोग हमको ही छल बैठे
ताकतवर तो अधिक ना थे
पर लोग कमजोर समझ बैठे
कोयल तो ना थे पर लोग
 कौवा समझ बैठे
थोड़ा ही सही सभ्य थे हम
लोग असभ्यता का मोहर लगा बैठे
सहज रहते थे अक्सर
लोग कष्ट दे असहजता दे बैठे
दिल में प्यार था बहुत पर
लोग नफरत कह बैठे
बुद्धिमान ना थे अधिक पर
लोग बुद्धिहीन समझ बैठे
धोखा कभी ना दिए किसी को
लोग फिर भी धोखे बाज कह बैठे
बहानेबाज ना थे कभी भी
लोग वह भी हमको कह बैठे
सपने में भी बुरा ना सोचे किसी का
लोग है की हम पर ही शक कर बैठे
 हमेशा बोलते थे सच्चाई से
लोग झूठा साबित कर बैठे
त्यागी थे निस्वार्थ भाव से
लोग सन्यासी समझने की भूल कर बैठे
बदल जाये हम यह फितरत ना थी
लोग हमे गिरगिट  (बदला हुआ )समझ बैठे
हम जो-जो ना थे लोग खुद से
अपने मन में  समझ वह भी कह बैठे
क्या करे कैसे समझाएं
समझा-समझा थक हारकर बैठे||...सविता मिश्रा

Saturday 19 October 2013

### उठो जागो ###


उठो जागो
क्यों खोयी हो
खुद में !

कभी अपना परिवार
कभी अपने बच्चे
कभी बस अपना पति
कभी अपना घर
कभी सौन्दर्य-गृह में
कर श्रृंगार
निखारती रहती
सौन्दर्य को ही !
जागो!
झांको अन्दर अपने
तुमसे ज्यादा खूबसूरत
कोई भी तो नहीं!

कभी किटी पार्टी
कभी रहती हो
करती काना-फूसी
क्यों करती हो बर्बाद समय
समय रहते जागो!

उठो !
बाहर निकलो
बदल डालो सब
तुममें शक्ति हैं
तुम दुर्गा हो!
पहचानों अपने आप को
निकलो लेकर मशाल
फैला दो अपनी रोशनी!
घर ही संवारना
काम नहीं हैं तुम्हारा
अपने देश को
अपनी मातृभूमि को
समाज एवं परिवार को भी
अलंकृत करने का
बीड़ा उठाओ !

तुम कर सकती हो
बस एक बार
अपने मन में
ठानकर तो देखो !!..सविता मिश्रा

++ज्यादा की चाह ++

  किस्मत में खूब मेरे लिखा फिर भी
ज्यादा की हमेशा ही चाह रही
तुझे देख कर आह भरू मैं
खुद की सोच पर करूँ अफ़सोस
तेरे देख हालात क्यों आँखे मेरी
गयी डबडबा दिल क्यों आया भर
देखकर पड़ा थाल में भोजन
याद तेरी ही हमको हो आई|
नहीं छोड़ती थी भोजन पर
एक एक दाना चुग अब जाती हूँ
ना जाने क्यों मन मस्तिष्क में
तस्वीर उभर तेरी ही आती है|
बड़ी किस्मत से है मिला सोचती हूँ
क्यों मैं बर्बाद कर जाती हूँ
क्या पता किस जन्म में तेरे जैसे ही
भूखे पेट ही मैं भी कितने दिन सोयी हूँ|
मिली कभी जब एक रोटी हो तो
बाँट कई हिस्से में उसे भी खायी हूँ
शायद वही पुन्य कर्म हो जो
खा रही हूँ इस जन्म में रोटी भरपेट |
सब लेना सीख जरा करना मत बर्बाद
                 बड़ी मुश्किल से मिला हैं भोजन तुमको आज||
सविता मिश्रा

Monday 14 October 2013

++जलता रावण ++

~~जलता रावण ~~

रावण सपरिवार धू-धू कर
जल रहा था
पैसों की बर्बादी देख कर
हमें दुःख बहुत हो रहा था !!

अगल-बगल देखा तो
रावण ही रावण बिखरे थे
सब दुष्ट रावण से निखरे थे
कुटिल चेहरों पर कुटिल मुस्कानें
आँखों में मक्कारी के क़तरे बिखरे थे।

हमने झट प्रभु को याद किया ,
हे राम!
सतयुगी रावण का किया संहार
आओ, फिर कलयुग में कर दो
इन सभी पापियों का उद्धार !

आँख बंद कर
कर ही रहे थे विनती
एक चिंगारी हम पर आ गिरी
लगा हम ही जलने लगेंगे
जलकर भस्म हो जाएंगे।

पति डाँटकर देने लगे नसीहतें
जब चिंगारी चिटकी
क्या तुम तब सो रही थी
जब आग थीं इतनी भड़की
तुम क्यों नहीं पीछे को सरकी।

.जैसे-तैसे राम जाने कैसे
जान बची तो फिर हमने
प्रभु को किया याद घबड़ाकर
और पूछा कि मेरे साथ
आपने क्यों किया ऐसा ?

प्रभु मंद-मंद मुस्काए
फिर बोले
रे मूरख !
तूने ही तो कहा था
आस-पास बिखरे
कलयुगी रावण का उद्धार करो
तो सबसे पास तो तू ही थी
तुझसे ही शुरुआत किया
अब बोल तू चाहती हैं क्या ?
उद्धार करूँ या छोडूँ !!

हम स्तब्ध रहे खड़े
अपने ही गिरेबान झाँक
बहुत ही हुए शर्मिंदा
प्रभु करो तुम अब क्षमा
छोड़ ही दो
थे हम अज्ञानी
नहीं देखेंगे अब से
दूसरों के दोष
अपने में से ही ढूढ़
पहले समाप्त करेंगे!!

प्रभु भी थे मेरे बड़े दयालु
झटपट मान गये
आगे से मत कहना हम से
साथ ही यह भी समझा गये!

तब से जैसा चल रहा है वह चलने दे रहे हैं
रावण को जलता देख हम भी खुश हो रहे हैं|
सविता मिश्रा

आप सभी को दशहरा की हार्दिक शुभ कामनायें  .......:)

Sunday 13 October 2013

क्या रावण को सच में पापी की संज्ञा दे पुतला दहन किया जाना चाहिए ?

यह सिर्फ हमारे विचार है (ek srtri ki najr se )जरुरी नहीं सभी सहमत ही हों, यदि किसी को आपत्ति हैं तो, हमें खेद है ............

रावण एक प्रभावी व्यक्तित्व के स्वामी थें| उनमें  हर गुण थें ! आज के पापी इंसान को तो रावण की संज्ञा देना, रावण का घोर अपमान करना है| रावण ने एक गलती कि उन्होंने सीता का अपरहण किया| पर उसके पीछे का कारन क्यों कोई नहीं देखता|
राम ने तो कई गल्तियां की .....सीता जैसी सुकोमल नारी को वन-वन ले भटकें, पत्नी आज्ञा मान स्वर्ण-हिरन के पीछे दौड़े, जबकि मालूम था कि ऐसा हो नहीं सकता, फिर सीता की अग्नि-परीक्षा लीं | इससे भी संतुष्टि ना मिली तो उन्होंने गर्भवती सीता का परित्याग कर दिया|  वह भी किसी स्थान पर सुरक्षित सम्मान सहित पहुंचवाएं होते तो भी कुछ बात ठीक थी, पर उन्होंने जंगल में छुड़वाया|

कहाँ  रावण की महज एक गलती, कहाँ  राम की इतनी सारी गल्तियाँ|  जब राम की गलती के पीछे दस आधार बतायें जातें हैं, तो रावण की गलती के पीछे कोई यह क्यों नहीं देखता, कि रावण ने अपनी प्रिय बहन के लिए सीता हरण किया|
खैर वह भी बात अलग थी, पर आज के नालायक पापियों के लिए रावण कि संज्ञा भला क्यों ?  काश आज के पापी रावण के नख बराबर भी होते तो शायद पाप में कुछ कमी आ जाती| पर आज के पापी, एक रावण नहीं करोंणों रावण के द्वारा हुय पाप को
भी मिला  दें तो भी आजकल का एक पापी न तैयार होगा | हाँ आज के पापी को समझने के लिय  सतयुग ही नहीं बल्कि द्वापर युग के दुस्साशन, दुर्योधन जैसे पापियों को भी मिलाना पड़ेगा |

राम जो सतयुग में किये आज कोई करें , तो उसे भी लोग पापी ही कहेंगे| पर उन्हें नहीं कहतें क्योंकि वो बिष्णु भगवान के अंश थे| यदि आज रावण भी होंते तो शायद उनका स्थान भी भिन्न होता |
सब राम जैसे बने, रावण जैसे नहीं | सुनकर आश्चर्य होता हैं | क्या अभी कम नारियों  पर अत्याचार हों रहें हैं, यदि आज सब राम बन गए तो, पाप कि परकाष्ठा हो जाएगी| हों सकता हैं यह हमारे वचन अतिश्योक्ति से लगे पर सच यहीं हैं |
हम आदर करते है
राम  का और साथ-साथ रावण का भी| हमें लगता है हर साल रावण का पुतला दहन कर पैसा बर्बाद करने से अच्छा है, कि हर साल एक बलात्कारी रावण की जगह, एक आतंकवादी कुभ्करण की जगह और एक भ्रष्टाचारी या डकैत मेघनाथ की जगह, भरी सभा में फांसी दे दी  जाय | हर साल दशहरे पर ऐसा हो इससे पैंसे की बर्बादी भी रुकेंगी और गुनाहगार भी कम हो जायेंगे | सार्वजिनक रूप से जब सब पापी का नाश देखेंगे तो खौफ पैदा होगा और फिर पाप करने से ही तौबा करने लगेंगे |
इससे अपराध में कमी भी आएगी और जो पापी है ५-१० साल में निपट जायेंगे | और तो और आगे से तुच्छ मानसिकता, मनोरोगी भी किसी भी पाप को करने से पहले सौ नहीं हजार बार सोचेंगे| क्यों ? हैं न ....सविता मिश्रा



सभी को दशहरे की हार्दिक बधाई .............

*आत्मज्ञान का प्रकाश*


किताब के कुछ पन्नों को
रॉकेट बना उड़ा दिआ  हमने
और कुछ पन्नों को आग में
जला कर ख़ाक किया हमने
लौ भभकी उजाला हुआ पर
अँधेरा (अज्ञान का)तब भी ना मिटा
कुछ पन्नों को बाचना चाहा
दिमाक की बत्ती जली
पर वह तारे की टिमटिमाहट
जैसी ही रौशनी कर सकी
अन्धकार बहुत घना था
एकाक पोथी पढ़ नहीं हटना था
इन बाहरी आडम्बरों की बजाय
अब तो आत्मज्ञान ही खोजा जाय
मन में इस अनुभूति के होते ही
जैसे ही आँख बंद कर
अंदरूनी ज्ञान बाचने लगे
कालिख अँधेरे का छटने लगा
चहुँ ओर दिव्य प्रकाश बिखरने लगा| सविता मिश्रा

Saturday 12 October 2013

दिल का साफ़ कोई नहीं दीखता


गिद्ध कौवे है बहुतेरे
हंस कही नहीं दिखता
नोंच-खसोट कर खा गये
मानस तन अब नहीं दिखता
फंसे रहे हम अन्धकार में

उजियारा कही नहीं दिखता
निकले कैसे इस अंधियारे से
फरिश्ता कोई नहीं दिखता
सब के सब भेड़-बकरी से
इंसान सा कोई नहीं दिखता
मन में राम बगल में छुरी
मन का साफ़ कोई नहीं दिखता
तन है गोरा-चिट्टा
मन के सब काले है
इस भीड़ भरी दुनिया में
दिल का साफ़ कोई नाही दिखता ||

||साविता मिश्रा||

Thursday 10 October 2013

माँ मेरे रूह में तू बसी --



खबर आई थी कि
तू अस्पताल में है माँ,
सास घर पर थीं
कमजोर दांतो को अपने

निकलवा कर-

दोनों को ही
एक समान
आदर देने के चक्कर में
कल पर छोड़ दिया था
तुझसे मिलना मैंने माँ |

पर वह कल कभी नहीं आया
बल्कि उस कल के सूरज उगते ही
एक मनहूस खबर आई थी
मेरे जीवन का सूरज
मुझमें अपना सारा तेज भरकर
डूब चुका था अनन्त में
भागते हुए पहुँची थी अस्पताल
पर नहीं मिली वहाँ
मुझे तू माँ !

मायके पहुँची तोतू वहां थी
किन्तु हमेशा के लिए
मौन हो चुकी थी
तेरा मृत शरीर सामने था
वह सब अविश्वसनीय सा था |

जीवन का पहला अनुभव था
किसी मिट्टी हुए शरीर को
झकझोर करके उठाना
आसपास फैली अजीब सी
मनुहूसियत, दुखी -मुरझाये चेहरे
आभास करा रहे थे
कि तू नहीं रही माँ !

आँसू थे कि थमने का
नाम ही नहीं ले रहे थे
आँखों के साथ मन रो रहा था
आत्मा चीत्कार रही थी

जब तुझे ले जाने लगे थे
उस तख्ती पर
तो भी समझ नहीं आया मुझे
लगा ही नहीं
कि सच में अब नहीं रही
इस दुनिया में तू माँ !

घर में आईं रिश्तें की
बहन बेटियाँ बहुएँ
जेठानी, देवरानी
सब तैयारी में लगे थे
नहाने और तेरा शरीर जहाँ था
उस स्थान को धोने में !

पवित्र करने में
छिड़क रहें थे वह गंगाजल
जो तेरे ही द्वारा लाया गया था
वह पवित्र जल भी
मुझ सा ही भ्रमित था।

हम खोये थे
बालकनी की खिड़की पर अटके
और सोच रहे थे
कि तू चिता से उठ जाएगी
सब को आश्चर्य में डाल
लौट आएगी घर अपने
रास्ता तकते रहे थे
जब तक सब न आ गए
तब तक तेरे होने की
खुशखबरी का था
बेसब्री से इन्तजार माँ !

पर
ऐसा न हुआ
फिर भी विश्वास था कि
टूट ही नहीं रहा था
जब-जब बेटी का होता है जन्म
सोचते है
शायद तू उनमें
रूप धरकर आ जाएगी
पर यह भ्रम भी
एक दो साल का होने पर
टूट जाता है
क्योंकि तुझ सा
उनमें कुछ भी नहीं दिखता ...!

ओ माँ
तू सशरीर इस दुनिया में भले ना हो
पर मेरे रूह में तू अब भी बसती है...।।

सविता मिश्रा 'अक्षजा'

माँ से बढकर दूजा शब्द नहीं 

'''गम का बाजार'''

परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनी कि,
हमारें अश्रु मोती बन बहे |
हुई जटिल समस्या कि ,
अब रोके ना रुकें |
गम के इस बाजार में ,
गम ही हमको मिले |
|| सविता मिश्रा ||

आईना
=======
आईना को जब हमने
आईना दिखाना चाहा तो
आईना भी शर्मसार हो गया
आईने के सामने से हट गया |
आईना कों जब हमने उसके
उसूलों को समझाया तो
वह कुपित होकर
चकनाचूर हो गया |
||सविता मिश्रा ||

Wednesday 9 October 2013

## बेटे एवं बेटी के बीच की खाई ##

आगे कुआँ पीछे है खाई ,
क्यों मतभेद करती हो माई |
मैं तो अभी नन्ही सी कली हूँ ,
तेरे ही गोदी में मैं पली-बढ़ी हूँ |
भैया को देती हो रोज दूध-मलाई ,
मुझे तो तुने हमेशा ही सुखी रोटी पकड़ाई ,
भैया तो राज-दुलारा ,आँखों का तारा ,
प्यार लुटाती हो उस पर ही सारा का सारा |
कुछ तो मुझे भी समझ ले मैया ,
ना तू मुझ से दुर्व्योहार कर ओ मेरी मैया |
एक दिन जब चली जाऊँगी घर से तेरे ,
याद आयेगे तुझे काम सब मेरे |

नहीं देगी
बहू तुझे एक गिलास
भी जब पानी ,
तब बहुत ही याद आऊँगी मैं यह बात जानी |
रोयेगी तब बहुत ही पछताऐगी,
पर मेरे दिल के घाव कैसे भर पाऐगी |
अतः जितनी जल्दी हो उतनी जल्दी  माई ,
बेटे एवं बेटी के बीच की पाट ले खाई|

||सविता मिश्रा ||


६/५/2012

Tuesday 8 October 2013

~प्यार का सागर भर जाऊँगी~(मैं बेटी हूँ)


मैं बेटी हूँ ...
जरुरत पडने पर हमारी,
हमको ही याद करती हो,
नव रात्र का उद्दयापन करने,
हमें ही घर घर ढूढवाती हो |

इतना परेशान होती हो मैया
पर अपने घर में नहीं लाती हो|
पैदा होते ही हमको,
दूध में डूबा मरवा देती हो,
या जिन्दा ही मिट्टी में गड़वा देती हो |

मैया तुम ही सोचो ,
तुम भी तो बेटी थी,
नानी जी ने मारा होता तुम्हें तो ,
तुम हमें क्या इस तरह मार पाती |
तुम बेटी होकर भी क्यों ,
बेटी को मारती जाती हो |

हममें भी जीवन को जीने की अभिलाषा है,
मैया यूँ ना खत्म करो हमें, तुमसे ही तो आशा है|
जैसे प्यार से तुने दो कुल सवाँरे है ,
मुझे भी वह करने का मौका दो |

मैं मान हूँ , सम्मान हूँ तेरा,
तु माने तो अभिमान हूँ तेरा |
मैया मुझे तुम जब दुनिया में आने दोगीं ,
जरुरत पर यूँ घर- घर डोल कन्या नहीं ढूढोगीं|

हर घर में मैं भी किलकारी मारते दिख जाऊँगी,
सबके ह्रदय में प्यार का सागर भर जाऊँगी || सविता मिश्रा

Wednesday 2 October 2013

---कड़वा सच ---


स्वयं ही स्वयं को कोसते है,
किसी से नहीं बोलेगें सोचते है |
पर जुबाँ है कि फिसल जाती है ,
कैंची की तरह चल जाती है |
सामने वाला हो जाता है घायल ,

हो जाता है उसको मलाल |
क्यों बोलती हू सच कड़वा ,
झूठ का खिलाती नहीं क्यों हलवा|
झूठ ही है दुनिया पर छाया ,
सच को कोई समझ न पाया|
झूठ बोल स्वयं पर इतराया ,
सच बोलना सबको क्यों नहीं आया |
झूठ फरेब से उकता गयी हूँ ,
सच के घेरे में आ गयी हूँ |
सच के कारन अपनो से बिछुड गयी ,
अपने ही दायरे में सिकुड़ गयी |
कोई करता नहीं है मुझको सलाम ,
क्योकि सच बोलती हूँ यह जानती है आवाम |

||सविता मिश्रा ||
26---7--98.

Sunday 29 September 2013

वक्त की सीख -

आज वक्त है शहनाई का
शहनाई बजा लीजिये |

आज वक्त है विदाई का
आँसू बहा लीजिये |

आज वक्त है जीने का
आशीर्वाद दीजिए |

आज वक्त है खुशी का
आप भी शामिल हो लीजिये |

आज वक्त है लड़ाई का
कफ़न बांध लीजिये |

 आज वक्त है अंतिम सफर का
थोड़ा कंधा तो दीजिए |

आज वक्त है दुःख का
थोड़ा सा बाँट लीजिये |

आज वक्त है तुम्हारा
तो हमें ना भूलिए |

आज वक्त है बदल रहा
भरोसा ना कीजिये |

 वक्त की धूप-छाँव में
हमें ना तौलिए |

वक्त ही है बलवान
स्वयं पर गुमान ना कीजिये |

आज है तुम्हारा तो
कल होगा हमारा |

यही है वक्त की तकरार
मान लीजिये ||
--००--
||सविता मिश्रा 'अक्षजा'||
२०/११/८९

Saturday 14 September 2013

हिंदी की दुर्दशा -"होता गर चुल्लू भर पानी तो डूब मरते"





हिंदी बोलने में हमें शर्म आती है
अंग्रेजी की गिटपिट खूब भाती है|
अंग्रेजों ने तो हमें स्वतंत्र किया
अंग्रेजी ने हमें गुलाम बना लिया|

माना यह शारीरिक गुलामी नहीं
हमारी मानसिक गुलामी ही सही|
परन्तु, अन्ततः गुलाम तो है ही हम
अंग्रेजी के कोड़े और सह रहे गम|

हमें उस समय स्वयं पर शर्म आती है
जब किसी विदेशी को हिंदी आती है|
अंग्रेजी बोलकर स्वयं पर जो गर्व करते
होता अगर चुल्लू भर पानी तो डूब मरते|
झोपड़ी हो या महल हर जगह अंग्रेजी समायी
अपनी मातृभाषा बोलने में सब को शर्म आयी|

अंग्रेजी हमारे तन-मन में समायी
अंग्रेजी बोल हमने इज्जत कमायी|
हमने स्वयं ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलायी
अपनी राष्ट्रभाषा को छोड़कर गुलामी अपनायी|

हिंदी बोलने में हमारी बेइज्जती होती है
जुबान हमारी गुलामी ढोती रहती है|
अंग्रेजी हटाने वास्ते फिर क्रांति को करना होगा
फिर शायद देश भक्तों को बलिदान करना होगा|

हिंदी बोलने पर जो हमें फूहड़ कहें
जाके कहीं चुल्लू भर पानी वो डूब मरें।
उस दिन हम स्वयं को पूर्ण स्वतन्त्र समझेगें
जिस दिन अंग्रेजी छोड़कर हम हिंदी बोलेगें|

एक दिन तो ऐसा अवश्य ही आयेगा
जब हिंदी ही सभी की जिह्वा पर होगा|
आशा ही नहीं घना विश्वास है यह मेरा
हिंदी, हिंदुस्तान एक दिन सम्मान करेगा तेरा।
२२/११/१९८९
+++ सविता मिश्रा +++ #अक्षजा

Thursday 12 September 2013

दिल की बात -



उफ़ अपने दिल की बात बतायें कैसे
दिल पर हुए आघात अब जतायें कैसे !

दिल का घाव नासूर बना
अब मरहम लगायें कैसे
कोई अपना बना बेगाना
दिल को अब यह समझायें कैसे !

कुछ गलतफहमी ऐसी बढ़ी
बढ़ते-बढ़ते बढती ही गयी
रिश्तें पर रज-
सी जमने लगी
दिल पर पड़ी रज को हटायें कैसे !

उनसे बात हुई तो सही पर
बात में खटास दिखती रही

लगा वह हमें ही गलत ठहरा रहें
मानो बातों में हमें नीचा दिखा रहें
उनकी बातें लगी बुरी हमें पर
दिल पर पत्थर रख पायें कैसे !

पत्थर रख भी बात बढ़ायें हम
अपनापन जातयें पर टीस-सी रही
एक मन में लकीर-सी पड़ती गयी
अब उस लकीर को हटायें कैसे
दर्दे दिल समझाता रहा खुद को
पर इस दर्द को मिटायें कैसे !

अपनों ने ही ना समझा हमें
गैरों की क्या शिकवा करें
घमंडी साबित किया हमें
दुःख हुआ दिल को बहुत ही
बताओ हम इस दिल को समझायें कैसे
फिर टूटे हुए दिल को अब बहलायें कैसे !!

सविता मिश्रा 'अक्षजा'

Tuesday 10 September 2013

++क्या बात थी++

तुझे समझना चाहा था मगर
समझ पाती तो क्या बात थी|

कहने को तो अपने थे तुम पर
अपना बना पाती तो क्या बात थी|

भटकते हैं सभी अपने जूनून के चलते
मैं खुद को भटकने से बचा पाती तो क्या बात थी|

मुर्दे हैं जो सभी यत्र-तत्र बिखरे हुए
उन्हें जिन्दा कर पाती तो क्या बात थी|

झूठी फरेबी इस दुनिया में सविता
अपनी बात सच्चाई से रख पाती तो क्या बात थी|

सो रहें हैं जो अपने आँख-कान बंद कर
उन्हें अपनी आवाज से उठा पाती तो क्या बात थी|

प्रभु सुनती हूँ तू हैं हर कहीं, हर किसी में
मैं भी तुझे किसी इंसा में देख पाती तो क्या बात थी|

बहुत कुछ कहना सुनना हैं तुझसे
तुझसे एक बार मैं मिल पाती तो क्या बात थी|

मन्दिरों में ढूढ़ने से अच्छा ओ मेरे भोले
खुद में ही तुझको बसा पाती तो क्या बात थी|...सविता मिश्रा
१३/९/२०१२

Monday 2 September 2013

नन्हीं सी गौरेया की चाह--

बालकविता ...:)

नन्हीं सी गौरेया का

प्रकृति की सुन्दरता देख
मन मचल उठा
फुदकूँ यहाँ-वहाँ
उधम मचाऊँ खूब
माँ के आने तक
पर नन्हीं सी कोमल पत्ती को
अकेला देखकर
मन उसका सिहर उठा

पत्ती भी अकेली
मैं भी अकेली
पड़े ना शिकारी की नजर
इस डर से वह
बहुत ही उदास हुई

ओ नन्हीं पत्ती
तू जल्दी से बड़ी हो जा
और पूरी डंठल में फ़ैल जा
तेरी ओट में फिर मैं छुप सकूंगी
शिकारी से तब शायद बच सकूंगी

माँ जब तक दाना चुगकर
नहीं आती
तू ही तो माँ बनकर
हमें सहलाती और बचाती
ओ पत्ती तू जल्दी से
डंठल के चारों ओर फ़ैल जा
और तनिक बड़ी भी हो जा

तेरी झुरमुट में मैं भी
तेरे साथ लुका छिपी खेलूं
माँ साँझ ढलते ही आयेगी
जब तक माँ आये
तब तक हम दोनों ही
एक दूजे के संग
मस्ती करे और खिलखिलाये |

और धीरे धीरे एक दिन
पत्ती बडी़ भी हो गई
चिडि़या की छोटी सी बच्ची
चैन से शाम होने तक
उसके ओट में सोने लग गई !..सविता मिश्रा

Sunday 1 September 2013

स्वार्थ पूर्ति -


बेटा शादी के चार साल बाद
अपने ही घर आया था
उसे देख माँ फूले नहीं समाई
ढेर सारे पकवान बना लाई |

देख रहा था बेटा उसे बड़े गौर से
फिर प्यार जता बोला उससे ठौर के
माँ ! थक जायेगी इतना क्यों कर रही है ?
आराम किया कर तू अब बूढी हो गयी है
माँ का एक प्यारी सी थपकी देकर कहना
बुड्ढा होगा तेरा बाप !
अभी तो मुझ में हिम्मत है
इन बूढी हड्डियों में अभी बड़ा दम है
तेरे जैसे जवानों पर मैं भारी हूँ
मेहनत से मैं कभी नहीं हारी हूँ |

बस फिर क्या था
बेटे के चेहरे पर आई
एक रहस्यमयी मुस्कराहट
बेटे ने करते-करते भोजन
कहा पिता से छुपाकर घबराहट
आप दोनों रहते हैं यहाँ अकेले
जमाना खराब है ये चिंता क्यों झेले
सदैव हमारा मन रहता है अटका
सशंकित और लगा रहता है खटका
आप दोनों चलिए न हमारे साथ
बेच दीजिये ये सारी जमीन-जायदाद
वहाँ बड़ा-सा तीन कमरों का घर है
आपकी बहू और पोते-पोती भर हैं
अच्छे से आप दोनों वहाँ रहेगें
और हम भी चिंता में नहीं घुलेगें |

बेटा माँ-बाप को घर अपने लाया
उन्हें देख पत्नी का चेहरा उतर आया
नाराजगी जताते हुए वह बोली
उठा लाये क्यों इस महंगाई में
कौन दो को और झेलेगा
बुड्ढे-बुड्ढी की तानाकसी और
टोका-टाकी दिन-रात ही सहेगा |

बेटे ने बड़े प्यार से समझाया
पत्नी को थोड़ा तब समझ आया
आज खुशहाल परिवार है
न कामवाली की चिकचिक
न भोजन-वाली की झिकझिक
आया जो की महत्वपूर्ण है उसे क्यों भूलें
अब तो दादी के गोद में उनके बच्चें झूले |

दोनों नौकरी पर निकल जाते हैं
थके हारे घर आ आराम पाते हैं
प्यार से भोजन करके सो जाते हैं
दो बोल बोलने से भी जी चुराते हैं |

माँ-बाप भी खुश हैं कि
चलो कोई बात नहीं
पोता-पोती के सुख के आगे
इस छोटे से दुःख की औकात नहीं
अपने ही तो कलेजे के टुकड़े हैं
जब तक हिम्मत है किये जाते हैं
एक दूजे की स्वार्थ पूर्ति की ख़ुशी
एक दूजे में ही बाँटकर जिए जाते हैं |

आखिर हमें भी तो नन्हें बच्चों को देख
दुनिया भर की ख़ुशी मिल जाती है
इस ख़ुशी के लिए ही तो
दादी-दादा तरस जाते हैं
थोड़ी से समझदारी से ही
उजड़े घर सँवर जाते हैं ||.

.सविता मिश्रा 'अक्षजा'

Thursday 29 August 2013

जुदाई मेरी-

जुदाई मेरी तू सह न सकेगा कभी भी सनम
अहम को अपने इतना तवज्जो दिया न कर |
करता है बहुत प्यार तहेदिल से तू मुझे
यह बात तू कभी इकरार कर या न कर |
खोया रहता हर वक्त तू मेरी ही यादों में
इस बात का तू कभी इजहार कर या न कर |
याद में मेरे छलक आते हैं नैनों से अश्क तेरे
यह बात मान या मानने से तू इनकार कर |
लेने आगोश में मुझे तड़पता है दिल-ए-नादान तेरा
यूँ दिल को तू अपने हर वक्त बेकरार किया न कर |
बगैर मेरे रह न सकेगा, जुदाई मेरी सह न सकेगा ...
देके एक आवाज तू देख दौड़ी चली आऊँगी
अपने अहम का तू खुद को शिकार न कर |
गलती न थी मेरी आऊँगी फिर भी पास तेरे
बस एक बार तू इशारा देके तो देखा कर |
बगैर मेरे कभी भी रह न पायेगा कहीं
स्वयं पर सनम यूँ गुमान किया न कर |
बगैर मेरे रह न सकेगा, जुदाई मेरी सह न सकेगा
अहम को अपने इतना ज्यादा तवज्जो दिया न कर ..|
---०००---
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
१/२०१३ शायद ..किसी की पोस्ट पर लिखा था