Sunday 31 March 2013

++एक दूजे को समझने का सरल ढंग ++


सभी परिवार से दूर रहने वाले वर्दी धारियों को समर्पित .......

किसी भी त्यौहार पर
पास नहीं होते हो तो
क्यों इन्तजार करें हम
इन कथित त्योहारों का
कहतें हैं होली मिलन एवं
प्रेम बरसाने वाला त्यौहार हैं
हम दोनों तो वैसे ही
जन्मों से मिलते रहे हैं
प्रेम की बरसात
एक दूजे पर करते रहे हैं तो
आखिर क्यों करे इन्तजार...
तुम अपना काम कर
कितनों को तो मिलाते हो
प्रेम से परे जो हुए
उन्हें समझाते हो
कुछ जो इस रंग भरे त्यौहार पर
खून की होली खेलने पर
उतारू रहते हैं
उन्हें प्रेम का पाठ पढ़ाते हो
कितनी जिन्दगी तुम्हारे
कारण ही तो हर्षो-उल्लास से
यह त्यौहार मनाती हैं
तो फिर हम क्यों दुखी हो
क्योकि हमें मालूम हैं
इस त्यौहार में हमारे साथ
ना होकर भी तुम
साथ रहते हो हमारे
एक दूजे के मन में दिल में
हर क्षण हर सांस में
बच्चो को खलता हैं
तुम्हारा पास ना होना
पर वह भी अब समझदार हो गये हैं
समझते हैं कि जिम्मेदारी निभाना जरुरी हैं
दूरियां जब जिम्मेदारी के कारन हो
एक दूजे को समझने का सरल ढंग हो
तो कोई भी कारन प्यार को कम नहीं करता
बल्कि और भी प्यार- सम्मान बढ़ा देता हैं|..सविता मिश्रा

Saturday 30 March 2013

====प्यारा सा गाँव ====


शहरो की ख़ाक-छान,
जेठ की धुप में,
बैठे थे हम ,
भिखमंगे के रूप में |


प्यारा सा गाँव छोड़,
रिश्तों से नाता तोड़,
शहर की ओर रुख मोड़,
सड़कों से नाता जोड़ |


सड़कों पर भटक-भटक,
सह अषाढ़ की धुप कड़क,
गाँव की छोड़ सोधी महक,
खो गये शहरों की तड़क-भड़क|


पैरों पर पड़ गये छाले,
हो गये रोटी के भी लाले,
हुआ यूँ कमाल,
कि गावँ छोड़े बीते कई साल |


इतने सालों बाद,
आयी फिर गाँव की याद,
सुन लों मेरी फ़रियाद,
कोई फिर कभी ना मांगना ऐसी मुराद ||......सविता मिश्रा



==कल्पना होती हैं मन में ==



नफ़रत की अविरल धारा में
प्यार का पानी बरसे
कुछ ऐसी ही कल्पना होती है
मन में ...
पर नफ़रत सदा प्यार को तरसे|
नफ़रत हो ना कभी
सदा प्यार ही प्यार रहें
पर होगा क्या ऐसा कभी
जब तक घृणा किसी से रहें |

प्यार का बादल घिर जाएँ
घृणा की बदबू तक ना आएँ
नफ़रत बिजली की तरह
मिट्टी में मिल जाएँ |
बस प्यार भरी ...
सावन की घटा छाएँ
प्यार का संगम दिखे
हर दिल में ,
नफरत के पोखर सुख जाएँ
कुछ ऐसी ही कल्पना
होती है मन में|| 2/1990
||सविता मिश्रा ||

Thursday 28 March 2013

कुलदीपक बेटी क्यों नहीं --



जिस घर में जन्म लिया उसी घर में बेटियों का कोई महत्व नहीं होता है| माना आधुनिक युग में पढ़ाते-लिखाते हैं |
उसे  भी अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बनाते हैं | परन्तु कुलदीपक की बात आती है तो बेटे ही आगे होते हैं |
बेटियों
का तो अपने
ही घर में कोई भी वजूद नहीं होता है|

जन्म से लेकर जवान होते-होते न जाने कितनी बार उसे उसके भाइयों से कमतर समझा जाता है | उसे भी इसका
अहसास अक्सर ही दिलाया जाता है | पढ़ाई-लिखाई, पहनावा, खानपान सब चीजों में भाइयों की बराबरी का दर्जा कहाँ प्राप्त होता है उसे!!

बेटी की शादी के लिए जब वर ढूढने निकलते हैं, दो चार घर में न सुनने पर ही बेटी बोझ लगने लगती है|
अक्सर लड़की की शादी खोजने में परेशानी होने पर माता-पिता यह कह बैठते है कि 'पता नहीं किस जन्म में
क्या पाप किया कि जो बेटी का जन्म हुआ' क्यों! हैं न |
कितने धक्के खाने पड़ रहे हैं | भले ही बाद में बहू आकर कितने भी धक्के मारे| दाना-पानी भी देने में मुहँ फेरे |
यहाँ  तक  कि  धक्कियाँ  के  घर से बाहर का रास्ता भी दिखा  दे |  लेकिन बहू, बहू  है  और बेटी बोझ |

बेटी सदियों से बोझ ही तो मानी जाती रही है | और आज भी यही निति -रीति चली आ रही है| उसका अपना घर
न कल था न आज है| भले आज की लड़की कमा धमाकर अपने मजबूत पैरों पर खड़ी है|
यदि ईट-पत्थरों से घर हुआ करता तो एक क्या वह चार घर बना लेती अपनी कमाई से लेकिन अपनों से घर, घर
होता है और उसके अपने उसका अपना घर रहने नहीं देते हैं | भले ही वह किसी घर को अपना समझ के
सजाएँ-संवारे|

शादी होने के बाद भी बेटी बनी बहू जब तक पुरुषों की सह-सुन सहयोग करती रहे तब तक ठीक | उसकी
सेवा-सहयोग से पति यदि कस-बस में हो गया तब तो सुभानल्लाह| परन्तु  पति के सिर पर से प्यार का भूत उतर
गया | फिर तो लेने के देने पड़ जाते | तन-मन-धन गवाँ के भी फिर वह कहीं की भी न रहती | उसकी हालत तब
नौकरानी से भी गयी गुजरी हो जाती है |
नौकरानी तो कम से कम पगार लेकर काम करती है| ऊपर से ऐंठ भी दिखाती है | पर पत्नी वह भी नहीं कर
सकती है | नारियों को सम्मान देने को कहने वाला यही समाज बस मौन खड़ा रहकर देखता रहता है तमाशा |
सिर्फ तमाशा ही देखता तो भी ठीक था किन्तु जले पर नमक भी छिड़कता रहता | और चटखारे ले-लेकर निंदा-
रसपान भी करता है |

पति से कंधा से कंधा मिलाकर घर गृहस्थी में अपना हर क्षण होम कर देने वाली महिला को मशीन बन जाना 
पड़ता है | जिस दिन भी कह दे- 'बाहर से थक-हार कर आती हूँ तुम भी हाथ बाटाया करो !!' देखो फिर क्या
बवाल होता है | पुरुष के अहम को कितना ठेस पहुँचता है इस बात से | वह अपनी हर हद तब पार कर जाता है |
मानसिक प्रताड़ना उसी दिन से फिर औरत को झेलनी होती है | भले प्यार से  कहने में वही पुरुष तलवे चाटे
औरत  की |  लेकिन रोज -रोज घर  का काम वह कभी भी नहीं  कर सकता है |  क्योंकि
ऐसी मानसिकता ही नहीं है पीढ़ियों  से |  घरेलू काम तो बस  महिलाओं के ही जिम्मे होते हैं |

कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि औरत हमेशा ही शासित होती रही है| यदि विद्रोह करे तो दस ऊँगलिया उसी की ओर यह समाज उठाता है |

प्यार में हो तो पुरुष नारी के इशारें पर नाचे! प्यार खत्म होते ही दासी का भी दर्जा नहीं देता| यही कड़वी सच्चाई है इस पुरुषशासित समाज की | औरत एक छत होने की आस में इस कड़वे विष का पान करती रहती है |
और शायद आगे भी करती ही रहेगी | क्योंकि समाज भले बदल जाये, लोग बदल जाये लेकिन मानसिकता कभी
नहीं बदल सकती | न औरत की और न ही मर्दों की ही |

कन्या के रूप में जन्म लेकर बड़े होते ही माँ के यह शब्द कि "तुम लड़की हो सह-सुन चला करो' मरते दम तक
एक नारी के साथ होते है| और यही शब्द वह अपनी अगली पीढ़ी को देती जाती है |

जिस दिन भी औरत इन शब्दों से उलट चली, उसी दिन तत्काल  प्रभाव  से उसकी खुशियाँ खत्म हो जाती है|
समाज-परिवार उसे ठुकराना शुरू कर देता है |  उसे घृणित नजरों से देखने लगता है | तब वह सब कुछ  होते हुए भी  न घर  की  होती  और  न ही  घाट की |  सारे रास्तें  फिर  बबूल  के  काँटों  से  भरे  हुए  ही मिलते  है| गिने-चुने फूल भी जो रहें होते हैं राह में, वह मुरझा जाते हैं |...सविता मिश्रा #अक्षजा

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~~दुःख ही औरत का मित्र ~~

औरत की किस्मत में कितने गम है
पुरुष कहते यह तो बहुत कम है|

औरत की आँखे होती हमेशा नम
पुरुषों को नहीं होता इस पर कोई गम|

कहते है यह तो त्रिया चरित्र है
दुःख ही औरत का सच्चा मित्र है|
दुःख को सहती जाती रह अडिग
घर सुखमय रहे करती रहती गणित।

डिगा नहीं पाता कोई उसके पग
हिम्मत से बढाती हमेशा अपने डग।

कितना भी कर ले कोई सितम
नहीं मनाती कभी उसका मातम|

दुःख सह और भी परिपक्व हो जाती
ध्येय पर अपने खुद को अडिग ही पाती|| ...||सविता मिश्रा ||

Thursday 21 March 2013

++हम से ही है स्रष्टि सारी++

हमने ही बनाई यह सृष्टि
हम ही है पिछड़े
हमने ही सिखाया चलना
हमे ही अब सिखा रहें
हम मौन है तो
समझो नहीं कमजोर

रह पाओगें क्या हम बिन
सोचो  दें दिमाक  पर  जरा जोर
जीवन होगा छिन्न-भिन्न
मन भी अक्सर रहेगा खिन्न|

माँ-बहन-पत्नी
सब रूप है मेरे
तुम खुद से चल पाओ
ऐसे कर्म नहीं तेरे
हमसे ही है तेज तुम्हारा
हमसे ही गरिमा बनी
सिख- सिखा हारी तुमको
कमजोर नहीं हैं नारी
हम से ही हैं सृष्टि सारी
पड़ते हैं हम सब पर भारी
सब सुखद हैं सपन सा सुहाना
फिर भी सब कुछ ही हैं अपना .
.
.विसंगतियों के साथ  हमको
अब यूँ नहीं जीवन यापन करना||
...सविता मिश्रा

Tuesday 5 March 2013

==काश हम अपना दिया वोट वापस मांग सकते ==

)===============================(
काश हमने जो वोट दिए वो वापस हो सकते,
तो हम उसे वापस ले सरकार को पायदान पर लाते|
हमारे से ही लेकर हमें नीचा दिखाते हैं,
कुछ बोलो तो हम पर ही गुर्राते हैं|
धक्के मार बाहर का रास्ता समझाते हैं,
उनके चमचे भी अब पहलवान हो गये हैं|
नाशापिटो के मुहं में गज भर लम्बी जुबान हो गयी हैं,
नेता के खास होते ही इंसानियत तो जैसे लहुलुहान हो गयी हैं|
काश हम अपना दिया वोट वापस मांग सकतें .........

सब तरफ है त्राहिमाम त्राहिमाम सा चीखता ,
छत्तीस के आंकड़े में ही उलझता गया इंसान|
कहीं मंहगाई कहीं तस्करी होती है बेधड़क,
गुर्गे गुंडागर्दी करते हर तरफ बेखटक|
सब जगह तो नाचते मिल ही जाते हैं इनके ही गुर्गें,
जिसे भी पाते है सीधा साधा बना जाते हैं देखो मुर्गें|
जिसे देखो उसे ही ये अपना शिकार बना जाते,
जहाँ तहां ये बेखौफ देखो उत्पात मचा जाते|
जो बच निकले नजर से वह बड़ा खुशनसीब हैं बन्दा,
राजनीती का दलदल सच में बहुत ही हैं गन्दा|
काश हम अपना दिया वोट वापस मांग सकते ..........सविता मिश्रा

Monday 4 March 2013

~~ खुशामद जो जीवन भर ना सीख पायें ~~

खुशामद ना कियें कभी भी
और ना ही कर पायें अभी
जब देखो तब हम
सभी से अकड़ते आयें..
मात-पिता ने समझाया बहुत
झुकना सीखो थोड़ा हो लड़की जात
पर जैसे अपने खून में ही ना था
और ना थी अपने बस की यह बात ...
धीरे-धीरे बड़े होते गये
भाइयों के साथ ही खड़े होते गये
कभी नहीं की भाइयों की चापलूसी
ना ही मक्खन पालिस कभी भाभी की....
विधालय में भी आकर नहीं आया यह गुण
सहेलियों की चमचागिरी देख करती भुनभुन
टीचरों को भी नहीं लगाया कभी मक्खन
गलत बात नहीं कोई कभी किया सहन ...
हर गलत बात पर झट कर बैठती दंगा
प्रिंसिपल से भी ले लिया करती पंगा
पता नहीं क्या सोचती होगी टीचर भी
शायद कहती हो हैं बहुत नकचढ़ी यह लड़की....
सास ने भी बहुत ही सिखाया
एक अच्छी कहावत भी याद दिलाया
दुधारू गाय की लात भी हैं सहते
सह लिया करो कोई कुछ है यदि कहतें ...
पर अपने सर पर तो अकड़ ही छायी
कभी भी ना कर सकी किसी की झूठी बड़ाई
अपने बच्चे भी जब नहीं पीतें थे दूध
जाते थे चिड़चिड़ा कर गोदी से कूद....
 तब सास समझातीं 
थोड़ा चापलूसी कर भटकाओं 

फिर बहला-फुसला के
दूध तुम उन्हें पिलाओं ....

तब भी हम ना समझे इस गुण के महत्व को
रुला-रुला पिलातें थे किसी तरह दूध उनको ...
क्या बताएं ऐसे -ऐसे पड़ाव है जीवन में बहुतेरे आयें
कई बार इस खुशामद के बिना हम बहुत कुछ झेल जाये||.
:)=======================:(

..सविता मिश्रा

Saturday 2 March 2013

~~सपना सुहाना~~

गले लगा के उन्होंने हमसे बोला
क्यों रह रहकर तुम बन जाती हो शोला|

उनकी इस बात पर हम आवक रह गए
आंसू हमारी आँखों से अपने आप ही बह गए|

बड़े प्यार से आंसुओं को उन्होंने पोछा
बांसुरी बजा के हमको प्यार से रोका|

हम तब गले लग उनसे बिफर से गए
बड़ी मुश्किल से फिर खुद को संभाल लिए|

उन्होंने बोला बताओं सच में क्या हुआ
हम सुनाना शुरू किये तो फिर रुके कहा|


धैर्य रख वह हमारी हर बात सुनतें रहें
फिर बड़े सहजता से बोले अब सब दुःख तुमसे दूर हुए|

जा अब तू ना कभी रोएगी
तेरा होगा अब से मंगल ही मंगल|

हमारी याद में जब जब खोएगी
तुझे हम तुरंत आ तब तब देगें दर्शन|

हम बड़े खुश हो उछल ही पड़े
पर यह क्या बिस्तर से जमीं पर गिरे|

यह तो महज एक था सपना सुहाना
बुदबुदाये हम कि सविता तू औकात में रहना|

+मिलने वाला कहा है असलियत में भगवान्
क्योकि तू अभी तो सही से बनी नहीं इंसान||..
सविता मिश्रा