Sunday 13 October 2013

*आत्मज्ञान का प्रकाश*


किताब के कुछ पन्नों को
रॉकेट बना उड़ा दिआ  हमने
और कुछ पन्नों को आग में
जला कर ख़ाक किया हमने
लौ भभकी उजाला हुआ पर
अँधेरा (अज्ञान का)तब भी ना मिटा
कुछ पन्नों को बाचना चाहा
दिमाक की बत्ती जली
पर वह तारे की टिमटिमाहट
जैसी ही रौशनी कर सकी
अन्धकार बहुत घना था
एकाक पोथी पढ़ नहीं हटना था
इन बाहरी आडम्बरों की बजाय
अब तो आत्मज्ञान ही खोजा जाय
मन में इस अनुभूति के होते ही
जैसे ही आँख बंद कर
अंदरूनी ज्ञान बाचने लगे
कालिख अँधेरे का छटने लगा
चहुँ ओर दिव्य प्रकाश बिखरने लगा| सविता मिश्रा

4 comments:

दिगम्बर नासवा said...

आत्मज्ञान से ही मंजिल मिलती है ... घना कोहरा छंटता है ...
विजय दशमी की हार्दिक बधाई ...

सुशील कुमार जोशी said...

सुंदर !
टंकण से हुई गलतियों को कृपया सुधार लें !

Unknown said...

सुंदर....बहुत सुंदर

Unknown said...

अति सुन्दर