आसमान में उड़ते रहते हो
जरा जमीं में उतर के देखो न !
चश्मा पहनकर देखते हो दुनिया
जरा चश्मा उतारकर देखो न !
स्वार्थ के लिए करते हो सब कुछ
जरा तुम निःस्वार्थ बनकर देखो न !
घर को तो अपने सजाते-संवारते ही हो
अपने देश को जरा संवारकर देखो न !
जग में प्यारी-न्यारी है अपनी यह संस्कृति
जरा उस संस्कृति को अपना के देखो न !
विरला ही होगा फिर तुम-सा दुनिया में
खुद की नजरों में खुद को ही उठा के देखो न !! सविता मिश्रा 'अक्षजा'