Wednesday 31 December 2014

विदा २०१४

दिन +हफ्ते +महीने कर कर के २०१४ का कलेंडर  बदल गया ....यदि कुछ नहीं बदला तो वह है इंसान का दिलोदिमाक ...नए से कोई ख़ास उम्मीद नहीं पर हा जैसे पिछले चार-पांच साल बिते  वैसे ना बीते तो अच्छा ....आगे हरी इच्छा
जीवन को उधेड़ बुन कर अच्छे -बुरे समय को समझना बड़ा मुश्किल हैं, हो सकता है बहुत से पल वो भी आये हो जो अमृत पान कराएं हो, पर वह पल किसे याद रहते है -हा गम के चाबुक कभी नहीं भूलते .....इन्ही चाबुको के बीच अपने और गैर का हम चुनाव कर लेते है...|

कोई गैर अपना बन दिलोदिमाग में घर कर जाये अच्छा लगता है| कोई बनना चाहे अपना तो भी अच्छा लगता है, पर अपना गैरों सा बर्ताव करें बहुत बुरा लगता है ...फिर भी समय के साथ हर रिश्तें पर धूल ज़मने देते है कभी रिश्तों पड़ी धूल साफ़ करने की भरपूर कोशिश करते है ......कुछ रिश्ते पर कोशिशें कामयाब होती है, कुछ पर नहीं ....समय फिर भी नहीं रुकता ...महीने साल बीतते जाते है समयानुसार ....कभी-कभी अथक परिश्रम कर हम खुद को ठगा सा पाते है ..कभी हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ा समय के साथ हो लेते है .....चलिए समय के साथ, सब कुछ समय पर छोड़  ...उप्पर वाले ने कोई तो समय मेरे लिय या आपके लिय भी बनाया ही होगा ..मूक बन उस समय का इन्तजार करिए ....बस निस्वार्थ कर्म करते हुए .....
वैसे तो निस्वार्थ कर्म करने को कहना बेमानी सा ही है क्योकि इस आज की दुनिया में कोई निस्वार्थ कहाँ हैं भला|

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया///हर व्यक्ति यदि ऐसी सोच रक्खे ऐसी प्रतिज्ञा कर ले तो, न गये समय के दुःख दर्द याद आये, न नये समय से आशंकित हो ...दुःख हो सुख हो अपनों के कंधे का सहारा मिलें तो भवसागर भला कौन नहीं पार कर लेंगा ...पर हम इसी उधेड़ बुन में रहते है कि किसने, कब,कैसा मेरे साथ किया उसे कब, कैसे गच्चा देना है ...बस समय अपनी राह हो लेता है और हम कष्ट में डूबते ही अपनों का साथ न पा तमतमा जाते है क्योकि अपने जो होते है वह कष्ट में कन्धा देने के बजाय अपनी ही उधेड़बुन में लगे होते है कि कब पैरो के नीचे से चादर खींची जाये |  ख़ुशी की सीढी कोई नहीं बनना चाहता है, सब गम की लिफ्ट बन जल्दी से जल्दी उप्पर पहुँचाना चाहते है| अपनों का साथ सभी को चाहिए होता है, पर कोई अपना साथ देने को तैयार नहीं होता|
वक्त  के साथ चलिए ,वक्त -वक्त पर मिलते रहिये, वर्ना वक्त यदि बित गया किसी तरह तो वह व्यक्ति खुद ही नहीं याद रखेगा कि आप किस खेत की मूली थे | क्योंकि वक्त एक न एक दिन घूमफिर कर सभी का आता ही हैं| :) सविता मिश्रा
बोलिए गणेश भगवान् की जय :) :D

Wednesday 3 December 2014

~इतना सारी समस्याएं लड़ें तो लड़ें कैसे ~

अदना सा आदमी कितनों से लड़ता फिरे | अपने विचारों से, परम्पराओं से, नियमों से, कानून से, विसंगतियों से, संगतियो से भी, अव्योस्थाओं से, झूठे आरोपों से, तकियानुसी विचार धाराओं से, एक अजीब ही ढर्रे पर चलती नियमों से, जो बदलना ही नहीं चाहती,सरकार से, भ्रष्टाचार से, महंगाई से, जिन्दगी से, मौत से भी, और तो और इन आकाश में घूमते पर अपने ही आसपास चालों की बिसात बिछातें इन ग्रह नक्षत्रों से ....|एक मामूली सा कमजोर आदमी और इतना सारी समस्याएं लड़ें तो लड़ें कैसे .....?

सब से यदि लड़ भी ले तो आखिर प्रारब्ध और उस अदृश्य शक्ति से कैसे लड़ें ...?
कभी कभी लगता हैं हार कर बैठ जाएँ एक कोने में, और सब कुछ उसके मर्जी पर छोड़ दिया जाएँ| सविता .............

Tuesday 2 December 2014

~हाइबन~

पहली हमारी कोशिश हाइबन लिखने की इधर आइये तो पढ़ अवश्य बताइए कैसी है यह अदना कोशिश ....आप सभी के इंतजार में मेरी यह रचना ...:)

ओह कितनी खुबसुरत तस्वीरें है| काश मैं भी घूम पाती ! इस नाव में, पतवार मैं चलाती और तुम बैठते| जिन्दगी की नाव तो तुम्ही खे रहे हो न | पहाडियों पर चढ़ के तुम्हारा नाम पुकारती| सुनती हूँ, एक बार नाम बोलो तो कई बार गूंजता है| मैं पूरे फिज़ा में तेरे नाम की ही गूंज बसा देती|
समुद्र की शांत पड़े पानी में डूबते सूरज की अरुणाई को निहारती रहती| स्वर्णिम आभा को अपने हृदय में बसा लेती हमेशा-हमेशा के लिय| सब कहते है कि स्त्रियों को स्वर्ण बहुत पसंद है पर तुम तो जानते हो न मुझे बिल्कुल भी नहीं पसंद| पर यह स्वर्ण आभा मैं अपने अंदर बसा सबको अलानिया बताती कि देखो, मुझे भी स्वर्ण पसंद है| सच्चा स्वर्ण बिल्कुल ख़ालिस, कोई मिलावट नहीं |
और तो और एक टका भी न लगेगा इस स्वर्ण को अपने शरीर पर धारण करने पर |
ये सुन रहे हैं न या फिर मैं बके जा रही हूँ| हू हा सुन रहा हूँ!उहू तुम भी न कभी तो मेरी बातें भी सुन लिया करो, घूमा नहीं सकते तो ना सही|
अच्छा दीदी आप बताये आप तो घूम के आई है ???
क्या बताऊ सवित ! जितना तुम तस्वीर देख बयान कर दी, उतना तो हम वहां देखकर भी महसूस नहीकर पायें| हा थक जरुर गये घूमते घूमते| देखो पैरो में सूजन अब भी हैं|
अरे दी आप भी ध्यान से देखिये इन तस्वीरों को सारी थकान दूर हो जायेगी| कितनी खुबसुरत शानदार तस्वीरें आप और जेठजी ने खिंचवाई हैं| देखिये जरा गौर से .......

मन लुभाती
हरियाली बिखरी
कृति निखरी|


पक्षी बन मैं
प्रकृति छटा देखूं
मनु से दूर| ..............सविता मिश्रा

Sunday 23 November 2014

मोह- (बदलाव )

ढाबे पर काम करते हुए बंटी को आज पांच साल हो गये थे | कुछ महीनों से बंटी का व्यवहार बदलने लगा था | जब तब मालिक उसे डांट देता था, "क्या लड़कियों की तरह शर्माता है | जल्दी-जल्दी काम निपटा |"
बंटी था कि अब ट्रक-ड्राइवरो से आर्डर लेने से बचने लगा था | जब भी किसी नशेबाज को खाने की टेबल पर देखता था वह सहम जाता था | उनकी आवाज अनसुनी करता हुआ वह चिंटू को उनके पास जाने की मिन्नते करता |
मालिक को अब शक होने लगा कि कहीं बंटी भाग न जाये, तो वह बंटी पर नज़र रखने लगा | एक दिन अचानक उसकी नजर नहाते हुए बंटी पर पड़ गयी | देखकर वह दंग रह गया |
पास बुलाकर उसकी पगार दें उसे वहां से अपने घर जाने को कहने लगा - "अच्छा-खासा मेरा ढ़ाबा चल रहा है, तुम्हारे कारण मुझे पुलिस का कोई लफड़ा नहीं चाहिए |"
बंटी रोते हुए बोला- "साब! मुझे मत निकालो, मेरे बाबा, दीदी की तरह मुझे भी बेच देंगे | मुझे अपने घर में नौकरी पर रख लो...., बचपन से आपके यहाँ काम किया है | आप जानते हो मैं कामचोर नहीं हूँ, और ईमानदार भी हूँ |"
"अच्छा ठीक है, देखता हूँ |" कहने पर ही बंटी के आँसू रुके |
अपनी पत्नी का मायूस चेहरा और कभी-कभी रोने से सूजी हुई उसकी आँखें | पापा सुनने को तरसते उसके कान | बीस साल से बीतती वीरान जिन्दगी में उसे बंटी की वो पांच वर्ष पुरानी खिलखिलाहट, मासूम अदाए याद आयीं जिससे उसके चेहरे पर चमक आ जाती थी | अचानक उसके ओंठ फड़फड़ाये- "स्नेहा !"
"स्नेहा! यह नया नाम सुनकर बंटी अब भरसक मुस्कराने की कोशिश में लग गया |
मालिक घर पर फोन लगाकर अपनी जोरू से बोला - "सुनो ! आज रात के खाने में खीर बनाना | आज से तुझे कोई बांझ नहीं बोलेगा | अब सब तुम्हें स्नेहा की अम्मा कहकर पुकारेंगे |"
स्नेहा अभी ठीक से मुस्करा भी नहीं पायी थी कि उसके आँखों से आँसुओ की निर्झरिणी फिर से बह निकली | --००---- सविता मिश्रा 'अक्षजा'

Monday 3 November 2014

*इच्छा-शक्ति*

आंसू चीख-चीख कह रहे थे कि जो हुआ उसके साथ वह बहुत गलत हुआ| पर जुबान थी कि ताला जड़ चुका था|
दीपावली के विहान खुशियों का लेखा-जोखा करते, पर अब गम की नदी में गोते लगा रहे थे| हंसता-खेलता परिवार आज गमजदा हो गया था| रह-रह हर बात को लघुकथा में ढ़ालने वाला शख्स आज आँखे मूदें पड़ा था|

ना जाने कितनी लघुकथायें उसके अवचेतन मन में दफ़न हो रही थी| वह बोलना चाहता था कि मैं लिखूंगा जब उठाऊंगा कलम, खूब ढेर सारी घटनाओं पर लिखूंगा| मैं जो यह यमराज से लड़ रहा हूँ ना, वह भी लिखूंगा देखना तुम| पर पत्नी थी कि दुःख के सागर में डूबी, उसके दिलोदिमाग को नहीं पढ़ पा रही थी|
बस कलम उठने ही वाली हैं, आखिर हजारों दुआओं में अमृत-सा असर जो हैं| सविता मिश्रा Savita Mishra

Friday 31 October 2014

सच्चा दीपोत्सव

बगल खड़े तीन टावरों में खड़े अट्टालिकाओं पर बल्बों की लड़ियाँ देखकर झुग्गीवासी नन्हें-मुन्हें बच्चे जिद किये बैठे थे | 
“अम्मा ! महँगी लड़ियाँ न सही, दीपावली के दिन दीपक से तो घर सजा सकते हैं न !”
“बेटा ! किसी तरह दीपक-बाती खरीद भी लें, किन्तु महँगा तेल कैसे खरीद पाएंगे हम | कहाँ है हमारे पास में इतना पैसा |”
“अम्मा ! कपड़ा-लत्ता कुछ नहीं मागूँगा ! उन घरों की तरह न सही, मैं तो बस थोड़े से दीपक जलाऊंगा | और साहब के बेटे की तरह पटाखे भी चलाऊंगा |” कामवाली का बेटा शेखर यह कहता हुआ अपनी जिद पर अड़ा था उस दिन | त्यौहार पर बेबस माँ बस आंसू ही बहाये जा रही थी, जुबान पर तो ताला लगा लिया था उसने |
घंटों से रोते देख उसे समझाने में लगी थी कि पिता की आवाज़ आयी - "बेटा ! तू भी पढ़-लिख लेगा, बड़ा अफसर बन जायेगा | तो हम सब भी लड़ियाँ भी सजायेंगे और दीपक भी जलायेंगे | और ढेरों पटाखे भी छुड़ायेंगे | लेकिन इन सबके लिए पहले तुझे पढ़ना पड़ेगा |"
अब तो जैसे शेखर को जुनून सवार हो गया | किताब पकड़ ऐसे बैठा कि आईएएस टॉप करके ही छोड़ा | बस्ती वाले उस दिन झूमकर नाचें थे, जैसे उनका ही बच्चा अफ़सर बना हो |
आज फिर दीपावली का दिन है | और झुग्गी से वह बड़े से सरकारी बंगले में आ गया है | पूरे घर-बाहर नौकर-चाकर दीपक जलाने में लगे हुए हैं | शेखर के मन का अँधेरा दूर नहीं हो रहा है | वह बेचैन हो रह रहकर पुरानी यादों के गलियारें में पहुँच जा रहा था |
माँ के तस्वीर के आगे एक दीपक जला रखता हुआ वह रो पड़ा | फिर कार उठाई और ढेर सारे दीपक-बाती, मिठाई-गुझियाँ, पटाखे लेकर, अपने नौकर के साथ चल पड़ा झुग्गीवासियों के बीच | शाम होते होते सभी झुग्गी जगमगा उठी थी, अट्टालिकाओं की तरह अपनी बस्ती को देखकर सभी खुश थे | बच्चे पटाखे चलाने में मशगूल हो गये | वह एक कोने में खड़ा सबको पटाखे चलाते हुए देख मुस्करा रहा था | तभी एक बच्चा दौड़ता हुआ उसके पास आकर बोला – “भैया ! मैं भी आपकी तरह बड़ा अफ़सर बनूँगा |” 
“बिलकुल ..!” कहकर उसने, उसके सिर पर हाथ फेर दिया |
“साहब ! सच्चा दीपोत्सव तो अब जाके हुआ |”
---००----
31 October 2014
Savita Mishra

Saturday 25 October 2014

~ सुखद क्षण ~(अस्त्र)

अस्त्र
अपनी कामवाली के बच्चे को सड़क पर लोटते देख शीला ठहर गई | बगल ही खड़ी माँ से कारण पूछा ! पता चला कि बच्चा दीपावली पर पटाखे लेने को मचल रहा था |
उसके पास इतने पैसे नहीं थे कि वह पूजा के लिए लक्ष्मी-गणेश, बताशे लेने के बाद उसे पटाखे भी दिला सकती | जिद्द में आकर बच्चा रोता हुआ लोट रहा था |
शीला ने अपने बेटे के लिए खरीदें पटाखों में से कुछ पटाखे उसे दे दिए | पटाखा हाथ में आते ही वह खुश हो गया |
"मम्मी ! मेरे पटाखे आपने इसे दे दिया अब इसका डबल करके मुझे दिलवाइए |
शीला उसे समझाते हुए पटाखों की खामियाँ गिनाती रही | लेकिन वह कहाँ मानने वाला था |
अचानक कामवाली का बच्चा आँखों का पानी पोंछते हुए बोल उठा- "तुम भी लोट जाओ यहाँ, फिर तुम्हारी मम्मी तुम्हें, झट से और पटाखे दिला देगी |"
--०--
25 October 2014 को लिखी 

Saturday 18 October 2014

(जोड़ -घटाना) "परिवर्तन"

"मम्मी! ऑन लाइन आर्डर कर दूँगाया चलिए मॉल से दिला दूँगावह भी बहुत खूबसूरत- बढ़िया दीये। चलिए यहां से। इन गँवारों की भाषा समझ नहीं आतीऊपर से रिरियाते हुए पीछे ही पड़ जाते हैं। बात करने की तमीज भी नहीं है इन लोगों में।"
मम्मी उस दुकान से आगे फुटपाथ पर बैठी एक बुढ़िया की ओर बढ़ी। उसके दीये खरीदने कोजमीन में बैठकर ही चुनने लगीं।
देखते ही झुंझलाकर संदीप बोला- "क्या मम्मीआपने तो मेरी बेइज्ज़ती करा दी। मैं 'हाईकोर्ट का जजऔर मेरी माँ जमींन पर बैठी दीये खरीद रही है। जानती हो कैसे-कैसे बोल बोलेंगे लोग .. जज साहब ..."
बीच में ही माँ आहत होकर बोलीं - "इसी ज़मीन में बैठ ही दस साल तक सब्ज़ी बेची हैकई तेरी जैसों की मम्मियों ने ही ख़रीदी है मुझसे सब्जीतब जाके आज तू बोल पा रहा है।"
संदीप विस्फारित आंखों से माँ को बस देखता रह गया।
मम्मी उसे घूरती हुई आगे बोली-
"वह दिन तू भले भूल गया बेटापर मैं कैसे भुलूँ भला। तेरे मॉल से या ऑनलाइन दीये तो मिल जायेंगे बेटापर दिल कैसे मिलेंगे भला?" 
--००
18 October 2014 को लिखी सविता मिश्रा 'अक्षजा'

Saturday 4 October 2014

दोगलापन (लघु कथा)

"कुछ पुण्यकर्म भी कर लिया करो भाग्यवान! सोसायटी की सारी औरतें कन्या जिमाती हैऔर तू है कि तुझमें कोई धर्म-कर्म है ही नहीं|"
"देखिये जी ! लोग क्या कहते हैंकरते हैंइससे मुझसे कोई मतलब ..."
बात को बीच में काटते हुए रमेश बोला- "हाँ-भई-हाँ! तू तो दूसरे ही लोक से आई हैमेरे कहने पर ही सहीथोड़ा अनुष्ठान कर लिया कर|"
अष्टमी के दिन सोसाइटी में बच्चों का शोर-शराबा सुनकर पति ने कहा तो
 बात मन में मंथन करती रही| न चाहते हुए भी उसने किलो-भर चना भिगो दिया|
नवमी पर दरवाजे की घंटी बजी| सामने छोटे-छोटे बच्चों में लडकियाँ कम लड़के अधिक दिखे| किसी को मना न कर सबको अंदर बुलाया| आसन पर बैठाकर प्यार से भोजन परोसने लगी तो चेहरे पर नजर गयी| किसी की नाक बह रही थीतो किसी के कपड़ो से गन्दी-सी बदबू आ रही थी| मन खट्टा-सा हो गया उसकाकिसी तरह शिखा ने दक्षिणा देकर उन सबको विदा किया|
"देखो जी कहें देती हूँ ! इस बार तो आपका मन रख लियापर अगली बार भूले से मत कहना..इतने गंदे बच्चे ! जानते होएक तो नाक में ऊँगली डालने के बाद उसी हाथ से खाना खायी| छी ! मुझसे ना होगा यह..! ऐसा लग रहा था कन्या नहीं खिला रही बल्कि...! भाव कुछ और हो जाय तो क्या फायदा ऐसी कन्या-भोज काअतः मुझसे उम्मीद मत ही रखना|" तड़-तड़कर शब्दों का पुलिंदा पति पर फेंकती गयी और बेबस पति धैर्य पूर्वक  सुनने के पश्चात बोला-
"अच्छा बाबाजो मर्जी आये करोबस सोचा नास्तिक से तुझे थोड़ा आस्तिक बना दूँ|"
"मैं नास्तिक नहीं हूँ जी। बस यह ढोंग मुझसे नहीं होता हैसमझे आप|"
"अच्छा-अच्छादूरग्रही प्राणी...!" हाथ जोड़कर रमेश ने जब यह कहा तो घर में खिलखिलाहट गूँज पड़ी|
सुधा ने बाहर मिलते ही सवाल दागा- "यार तेरी मुराद पूरी हो गयी क्या ? बाहर तक हँसी सुनाई दे रही थी|"
मिसेज श्रीवास्तव ने मुँह बनाकर कहा- "हम इन नीची बस्ती के गंदे बच्चो को कितने सालों से झेल रहे हैंपर नवरात्रे में ऐसे ठहाके नहीं गूँजे...! बता तोहँसी की सुनामी क्यों आयी थी?"
शिखा मुस्कराकर बोली- "क्योंकि मैं मन-कर्म और वचन से एक हूँ|"
---००---
सविता मिश्रा
 "अक्षजा'
 आगरा  
 
2012.savita.mishra@gmail.com        

Savita Mishra
6 अक्तूबर 2014 · 
बदलकर दुसरे शीर्षक से यह वर्ड  फ़ाइल में है ...९/९/२०१९ को बदला ..करेक्शन नहीं किया यहाँ 

Friday 3 October 2014

~जलती हुई मोमबत्ती~(रौशनी)



रौशनी


"शरीर जल (ख़त्म हो) रहा है, लेकिन आत्मा तो अमर है | मोमबत्ती की तरह मैं भले काल कवलित हो गया हूँ, पर इस लौ की भांति तुम सब की आत्माओं में बसा हूँ |" जब सरकारी स्कूल में गाँधी जयंती पर हिंदी के प्राध्यापक महोदय ने मोमबत्ती की ओर इशारा करके कहा तो रूचि भयभीत हो गयी |
दादी से आत्माओं की कहानी खूब सुन रखी थी उसने | दादी ने कहा था अच्छी आत्मायें, बुरी आत्माओं को खूब सताती है | उसे लगा सत्य, अहिंसा के पुजारी बापू आज उसकी खूब खबर लेंगे | कक्षा क्या, पूरे स्कूल की दादा जो थी वह | सुबह प्रार्थना से पहले ही उसने अपनी दोनों सहपाठियों की पिटाई भी कर दी थी, छोटी-बड़ी मोमबत्ती के लेने को लेकर | बच्चों से मारपीट-गाली गलौज के बाद, शिक्षक से मार खाना तो रोज की आदत-सी थी उसकी |
सहसा उसने बापू के चित्र की ओर देखा - बापू के चित्र पर लौ चमक रही थी, बापू की आँखे भी बंद थी | उसे लगा बापू बच्चों में बसी अच्छी आत्माओं से सम्पर्क कर, उन सब को अपनी तरह बनने की सीख दे रहे हैं |
अगले ही पल वह अपने सहपाठियों से क्षमा मांग, उनके गले लग गयी | उसकी इस अप्रत्यासित हरकत से उनकी आँखों में आँसू आ गये जिनसे रोज ही लड़ती थी वह | और कुछ छात्रा हतप्रभ-सी थी - 'कौवे को हंस रूप में देख' |
प्रधानाचार्य महोदय भी ख़ुश होकर बोले - "भले ही आज लोग सफाई कर ख्याति अर्जित कर रहे हैं, पर असली सफाई तो तुमने की है | आज हमारे स्कूल द्वारा दिया जाने वाला 'गांधी सम्मान' मैं सर्वसम्मति से तुम्हें सौंपता हूँ |"
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
--००---
3 October 2014 को लिखी

Sunday 28 September 2014

~मुश्किल है कामचोर बनना ~

वैसे तो कामचोर नहीं थे हम-- पर भाई लोग अक्सर कामचोर ही कहतें| सफाई, खजांची यानि जिम्मेदारी का काम बखूबी करते थे| पर हाँ रसोई के कम से जी अवश्य चुराते थे| भोजन जब भी बनाना पड़ता उल्टा-सीधा ही बनाते| कभी कुकर  में चावल के साथ पानी डालना भूल जाते तो कभी दाल में नमक, हल्दी| हाँ पत्रिका में पढ़ कुछ बनाना हो तो अवश्य मजा आता, बड़ी तन्मयता से बनाते|

पहले भट्ठी जला करती थी तो बहाना रहता  छोटे है अभी, जल जायेगें| फिर गैस आई, पर तब तक भाभी का आगमन हो चूका था, अतः उनकी जिम्मेदारी थी रसोई की|अतः ज्यादा जरूरत ना पड़ी| उनके मायके जाने पर ही ऐसे तैसे न जाने कैसे बना ही लेते दाल-चावल रो गाके| :(  पर रोटी फिर भी मम्मी सेंकती थी| स्कूल में भी होमसाइंस विषय था, अतः बनाना पड़ता, कम से कम इम्तहान के समय| पर वहां भी सहेलियों की मदद से बन जाता|
पर समय की ऐसी मार पड़ी की भोजन बनाना ही पड़ा| अरे बाबा हर लड़की को समय की ऐसी मार पड़ती ही हैं, इसमें आश्चर्यजनक जैसी कोई बात नहीं| हाँ पुरुषों को पड़े तो जरुर घोर आश्चर्य की बात है| :p  हाँ एक आश्चर्य की बात जरुर थी कि जो लड़की स्कूल इम्तहान में पम्पवाला स्टोव के बजाय हीटर ले जाती थी, यानि स्टोव जलाना नहीं आता था उस लड़की को, उसने चूल्हें तक में खाना पकाया|
धीरे-धीरे रसोई में घंटो छोड़िये, चार-चार, छह-छह घंटे बिताने पड़ते दिन भर में| समय हर कुछ बदलने की कूबत रखता है,और मेरा भी रसोई से भागने का स्वभाव समय ने बदल ही दिया| सविता मिश्रा

*एक बुराई .... जिस पर आपने जीत हासिल की हो *
एक प्रतियोगिताआयोजन में लिखा गया संस्मरण कह लीजिये :)

Thursday 25 September 2014

~प्राणवान दुर्गा~

स्कूल के प्रांगण में ही कोलकत्ता से कलाकार आते थे माँ दुर्गा की मूर्ति बनाने| सब बच्चें चोरी-छिपे बड़े गौर से देखते माँ को बनते|
ऋचा को तो उसकी कक्षा के बच्चे खूब चिढ़ाते रहते|
 "देखो तिरेक्षे नयन बिल्कुल ऋचा की तरह है |" सुमी  बोली
"और क्रोध भी बिल्कुल  माँ के रूप की तरह इसमें भी झलक रहा है|" रूचि  बोली
"हा करती हूँ क्रोध और माँ दुर्गा की तरह ही दुष्टों का नाश कर दूंगी|" चिढ़ के ऋचा बोली
"अब तुम सब चुप रहती हो या जाके टीचर से शिकायत करूँ सब की|" तमतमाते हुय बोली ऋचा
"यार चुप हो जा, जानती है न यह टीचरों से भी कहा डरती हैं, जाके शिकायत कर देगी, फिर मार पड़ेगी हम सब को|"
"हाँ यार ये कलाकार तो बेजान माँ दुर्गा की मूर्ति गढ़ रहा है पर प्रभु ने तो चौदह साल पहले यह प्राणवान दुर्गा गढ़ भेज दी थी|" सुमी बोली
"वैसे भी यहाँ मूर्ति पास आना मना भी है, पता चलते ही घर पर शिकायत पहुँच जायेगी|" रूचि के कहते ही सब वहां से भाग ली|  सविता मिश्रा

Wednesday 24 September 2014

~प्यास~(लघुकथा)

फुसफुसाने की आवाज सुन काजल जैसे ही पास पहुँची सुना कि -तुम आ गये न, मैं जानती थी तुम जरुर आओगें, सब झूठ बोलते थे, तुम नहीं आ सकते अब कभी|
"भाभी आप किससे बात कर रही हैं कोई नहीं हैं यहाँ"
"अरे देखो ये हैं ना खड़े, जाओ पानी ले आओ अपने भैया के लिय बहुत प्यासे है|"
डरी सी अम्मा-अम्मा करते ननद के जाते ही भाभी गर्व से मुस्करा दी| .........सविता मिश्रा

Sunday 21 September 2014

~मिस फायर~

पति-पत्नी में छोटी सी बात पर, बहस इतनी बढ़ गयी कि बसंत ने अलमारी में रक्खी रिलाल्वर निकाल ली| अपनी कनपटी पर तान सुधा को धमकाने लगा| सुधा अनुनय-विनय करती रही पर शराब का नशा सर चढ़ कर बोल रहा था| वह भ्रम में था कि हमेशा की तरह रिवाल्बर चलेगी नहीं,  और विजयी मुस्कान उसके चेहरे पर दौड़ रही होगी| उसका अहम् जीत जायेगा| यही सोच उसने ट्रिगर दबा दिया, पर होनी को कुछ और ही मंजूर था| मिस फायर करने वाली रिवाल्बर आज....|
उसकी जान की दुश्मन रिवाल्बर की गोली इसी दिन की घात लगाये बैठी थी| आज वह सफल हो इठला रही थी पर घर में मातम पसर गया था|

++ सविता मिश्रा ++

Friday 19 September 2014

नन्ही चिरैया

"भैया आंखे बंद कर हँसते हो तो कितने अच्छे लगते हो|" गद्गुदी करती हुई परी बोली
भाई खिलखिला पड़ा फिर जोर से| परी भी उन्मुक्त हंसी हंसती रही| दोनों हँसते-हँसते कहा से कहा आ गये थे|
"अरे पापा वह आंटी का घर तो पीछे रह गया|"
"उन्होंने दस बजे तक बुलाया था, आज कन्या खिलाएगी न" परी हँसते हुए बोली|
"अरे मेरी नन्ही चिरैया चिंता ना करो पहुंचा दूँगा, आज खाली हूँ अभी और घुमा दूँ तुम दोनों को|"
"हाँ पापा घुमा दो रिक्शे पर घूमें बहुत दिन हो गये|" बंटी बोला
"और हाँ वही अगल-बगल घरों में ही जाना और कही नहीं जाना मैं दो घंटे में आऊंगा लेने|"
"नहीं जाऊँगी पापा, खूब ढेर सा प्रसाद मम्मी के लिय भी ले लूँगी आंटी से, मम्मी बीमार है न खाना कहा खायी है|"
"

और पापा आपके लिय भी" चल चल भैया दोनों खिलखिलाते हुए चल पड़े उन घरों की ओर जहाँ कन्या जिमाई जा रही थी| सविता मिश्रा

Wednesday 10 September 2014

पिछलग्गू(लघु कहानी)

पिछलग्गू
===========
सुरेश, किशोर के पीछे-पीछे लगा रहता था, वह कुछ भी बोलते, उनको दाद देता कि "वाह सर क्या बात कहीं आपने" वह उसके सीनियर जो थे| सभी आफिस वाले उसके इस हद से ज्यादा की चमचागिरी से परेशान थे| कानाफूंसी करते की काम धाम तो कुछ करता नहीं बस चमचागिरी में लगा रहता है| उसे देखते ही खिल्ली उड़ाते अरे देखो-देखो आ गया चिपकू| यह बात किशोर के कानो तक भी पहुंची| उन्हें कुछ सुझा-एक दिन एक साधारण सा कपड़ा पहने सर पर तौलिया लपेटे कुछ काम लेकर पहुँच गये! चपरासी देखते ही पहचान गया, पर किशोर ने इशारे से चुप रहने को कह दिया|
 सुरेश के पास पहुंचे तो कागज हाथ में आते ही सुरेश उन्हें पाठ पढ़ाने लगा "नहीं ऐसा नहीं ऐसा है, आप छोड़ जाइये मैं देख लूँगा!"उसके चेहरे की ओर भी ना देखा|
चपरासी ने कहा ..."सर वह सही तो बोल रहे थे, आपने उन्हें देखा भी नहीं और ना उनके कागज देखे, लौटा दिया |"
"अरे राम भरोसी यह "बाल" धूप में नहीं सफेद किये मैंने, बस कपड़े से समझ गया कैसा व्यक्ति है, दौड़ने दो कुछ दिन|" सुरेश बड़े तीसमारखा की तरह बोला|

तभी सूट-बूट में किशोर आ गया और उसी काम को करने को बोला जो वह साधारण सा कपड़ा वाला व्यक्ति दे गया था .. सुरेश ने झट से कागज निकाले और मुहं लटकाए केविन में जाते ही, "सौरी सर गलती हो गयी, आइन्दा से कभी ना होगी|" बाहर निकलते हुए चपरासी को मुस्कराता देख सुरेश उप्पर से नीचे तक जलभुन उठा| सविता मिश्रा १०/८

Sunday 7 September 2014

कक्षोन्नति -

"सिर्फ अस्सी, अंग्रेजी मेsडियम में पढ़कर भी सीटू तेरे इतने कम नम्बर आये हैं अंग्रेजी में !"  माँ थोड़ी नाराज होते हुए बोली।
"मम्मी, आपकी अंग्रेजी तो कितनी कमजोर है ! इंग्लिश मीडियम होता है।" स्वीटी मम्मी को अंग्रेजी का एक शब्द अटकते हुए बोलती सुनी तो बोल पड़ी।
"बताइए न मम्मी,आप पढ़ने में कैसी बच्ची थीं? तेजतर्रार या कमजोर?" बगल बैठा सीटू जिद करके पूछने लगा।
"अच्छा सुन ! बताती हूँ ! बात उन दिनों की है जब मैं चौथी कक्षा में थी | अंग्रेजी विषय तो जैसे अपने छोटी सी बुद्धि में घुसता ही न था|"
"अच्छा, तभीss..!"
"अंग्रेजी की टीचर भी बड़ी खूसट किस्म की थी। मारना और चिल्लाना ही उनका ध्येय था| उनके क्लास में आते ही सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती थी अपनी|"
हां, हां, जोर से हँस पड़ा बेटा।
" हँस मत, जिस दिन रीडिंग का पीरियड होता था , उस दिन जान हलक में अटकी रहती थी | अपनी बारी ना आये, भगवान से प्रार्थना ही करती रहती थी। एक दिन रीडिंग करने खड़ी हुई तो नाम मात्र जो आता भी था, वह भी डर से बोल नहीं पा रही थी मैं |"
"यह था, मेरी माँ हिटलर की तो डर गया था!" स्वीटी बोली
"हुउss, तब दो बार तो कस के डांट पिलाई टीचर ने | डांट खाते ही दिमाग तो जैसे घास चरने चला गया| अब तो बोलती ही बंद | इतना अटकी ..इतना अटकी...कि क्या बताऊँ ..! बड़ी तन्मयता से किताब को घूर रही थी बस, खोपड़ी पर डंडा जब बरसा तब तन्मयता टूटी अपनी| उनका डर इतना था कि चीख हलकी सी ही निकली, पर आँखों से आंसू, झरने सा बहा था मेरे |"
वनिता ने जैसे ही बोलना बंद किया कि बच्चे हँस लिए, "मम्मी आप इतनी कमजोर थी पढ़ने में, और हमें कहती है नम्बर हम कम लाते हैं!"
"अच्छा मम्मी, क्लास में कौन सी पोजीशन आती थी आपकी ?"
"अरे बच्चों, यह मत ही पूछो! कोई औसत दर्जे का छात्र....
बात काटते हुए तभी बच्चों के पापा तपाक से बोले- " और तुम्हारी मम्मी तो कक्षा में उन्नति करती थी |"
"मतलब ?" सीटू बोला
"मतलब कक्षोन्नति आती थी तुम्हारी मम्मी! जिसका मतलब निकालती थी कि इन्होंने कक्षा में उन्नति की है| जबकि मतलब था ग्रेसमार्क्स पाकर किसी तरह पास हो गयीं हैं उस कक्षा में |"
उनकी बात सुनकर पूरे माहौल में ठहाका गूँज गया| वनिता भी सर झुका हँसते हुए बोली- "तब के जमाने में 33% ले आकर पास हो जाना भी बड़ी बात होती थी!"
"हाँ, किन्तु ..!
"कक्षोन्नति तो अंग्रेजी, हिन्दी के कारण आती थी मैं।" ..सविता मिश्रा 

Friday 5 September 2014

ओहदा

इस चित्र पर नया लेखन ग्रुप में
"तू मुझसे चार साल छोटा था, कितनी बार तुझे डांटा-मारा मैंने | यहाँ तक की बोलना बंद कर देता था, जब तू कोई गलती करता था| फिर भी तू मुझसे हर पल चिपक माफ़ी मांगता रहता| आज मेरी एक छोटी सी बात का तू इतना बुरा मान गया कि परिवार सहित चल दिया|"

"मैं तुझे स्टेशन तक मनाने आया पर तू न माना, तेरे दिल में तो तेरी पत्नी-बच्चों का ओहदा मुझसे अधिक हो गया रे छोटे|"
थोड़ा सांस लेते हुए रुके फिर बोले - "अरे तेरी पोती क्या मेरी ना थी| उसे मैंने जो कहा उसकी भलाई के लिए ही तो कहा न|"

"मैंने शादी नहीं की| सारा प्यार-दुलार तुम पर,अपने बच्चों, फिर नाती-पोतो में ही तो बांटा न मैंने| तो क्या मुझे इतना भी हक ना था|" छाती सहलाने लगे जैसे प्राण बस निकल ही रहे थे उसे सहेज रहे हो थोड़ी देर को|

"जा छोटे जहाँ भी रह सुखी रह| तुझे मुझसे बिछड़ने का दुःख भले ना हो, पर मैं अपने इन निरछल आंसुओ का क्या करूँ जो रुकतें ही नहीं हैं |"
"एक ना एक दिन तू इन आंसुओ की कीमत को समझेगा पर तब तक ......| हो सके तो मेरे अर्थी को कन्धा देने जरुर आना छोटे...मेरे ऋण से मुक्त हो जायेगा|"

चिठ्ठी पढ़ते ही वर्मा जी फफकते हुए रो पड़े| सुबकते हुए बोले भैया आप सही थे गलती मेरी ही थी| मैं बहू के बहकावे में आ गया| आपकी बात सुन लेता तो आपकी पोती को लिव-इन-रिलेशनशिप के दर्द से बचा पाता| उसके बहके कदम वापस तब आए जब पाँव में छाले हो गए |"  सविता मिश्रा

Thursday 4 September 2014

दो जून की रोटी

माँ 
किसनी के आँखों में हमेशा ही पानी भरा रहता था, जो रह-रहकर छलक जाता था | क्योंकि अपने सालभर के बच्चे के पेट की आग बुझाने के लिए उसके पास फूटी कौड़ी भी नहीं थी | उस दिन वह भूख से बिलबिलाते गिल्लू को डांट रही थी | पड़ोस की दो औरतें रोना-चिल्लाना सुनकर दरवाजे तक आ पहुँची थी |
“किसनी ! वो क्या पिएगा | तेरे आँचल का दूध तो अब उसके लिए ऊँट मुँह में जीरा-सा है |” सुनकर किसनी बोली कुछ नहीं बस आँसू बहाती रही |
“देख ! हाथ-पैर मारता हुआ फिर भी छाती से चिपका इसकी ठठरी को चूसे जा रहा है |” यह कहते हुए दूसरी पड़ोसन ने पहली पड़ोसन की बात का पुरजोर समर्थन किया|
“परसों किसी शराबी के साथ गयी थी | उसने कुछ दिया नहीं तुझे ?” दूसरी पड़ोसन ने दरवाजे से ही दहाड़ लगाई |
“जो दिया, उससे कहाँ पूरी हो रही है, दो जून की रोटी की कमी |” किसनी की मरी-सी आवाज़ उन दोनों के कानों से टकराई|
“हाँ ! बिकने वाली हर चीज सस्ती जो आँकी जाती है | औरत की मज़बूरी को सब साले तड़ लेते हैं न |” पहली पड़ोसन ने घृणापूर्वक जमीन में थूंकते हुए कहा |
मजमून भांपते ही उधर से गुजरता एक दलाल ठहर गया | वह तो ऐसी मजबूर गरीब माँ की ताक में ही उस गली के चक्कर महीने, दो महीने में लगा लेता था | देहरी पर आकर बोला - "किसनी! क्यों न अमीर परिवार के हवाले कर दे तू इसको ? वहां खूब आराम से रहेगा | दो लोग हैं मेरी नज़र में, जो बच्चे की तलाश में हैं | तू कहे तो बात करूँ?"
“मेरा यही सहारा है, ये चला जायेगा तो मर ही जाऊँगी मैं तो |” ममता में तड़पकर किसनी ने सीने से चिपका लिया गुल्लू को !
दलाल के द्वारा खूब समझाने पर गुल्लू के भविष्य के खातिर आख़िरकार किसनी राजी हो गयी | पड़ोसनों के उकसाने पर शर्त भी रखी कि उस घर में वो लोग नौकरानी ही सही उसे जगह देंगे तब |
दलाल की कृपा से आज किसनी को भर पेट भोजन मिलने लगा था, तो छाती में दूध भी उतरने लगा | परन्तु अब गुल्लू को छाती से लगाने के लिए तरस जाती थी किसनी | गुल्लू कभी दूध की बोतल, कभी खिलौने लिए अपनी नयी माँ की गोद से ही चिपका रहता था|
“तेरे उजले भविष्य के खातिर ये भी सही, माँ हूँ न |” कहकर आँखों से बहती अविरल धारा को किसनी ने रोक लिया |
--00--

http://www.rachanakar.org/2014/11/blog-post_294.html रचनाकार वेब पत्रिका में छपी हुई |

4 September 2014 नया लेखन ग्रुपमें लिखी हुई |
थोड़े चेंज के साथ



Wednesday 3 September 2014

मन का चोर

रविवार की अलसाई सुबह थी, सब चाय ही पी रहे थे कि फोन घनघना उठा। खबर सुनकर सभी सकते में आ गये बड़े ताऊजी का जवान पोता दीपक (भतीजा) दो दिन के बुखार में चल बसा। अंतिम संस्कार तक गाँव पहुँचना मुश्किल था इसलिये बड़े भैया ने उठावने में शामिल होने का निश्चय किया |
दोपहर हो गई थी | शीला भूख से बिलखते अपने बेटे के लिए मैगी बनाने जा ही रही थी कि जेठानी ने टोका, "अरे जानती नहीं हो ! ऐसी खबर सुनकर उस दिन घर में चूल्हा नहीं जलता है | उसे दूध दे दो |"
शीला बेटे को गोद में बैठाकर दूध पिलाने लगी |
"अच्छा सुनो शीला, मैं तुम्हारे जेठ जी के साथ जरा यमुना किनारे जा रही हूँ | वहाँ कुछ शांति मिलेगी, मन बेचैन हो उठा है यह सुनकर |"
शाम ढल चुकी थी | शीला का पति भतीजे के साथ बिताए बचपन की बातें सुना सुनाकर भावुक हुआ जा रहा था | तभी जेठ और जेठानी के खिलखिलाने की आवाज, बाहर के गेट से खनखनाती हुई अंदर कमरे में आकर शीला के कान में चुभी |
कमरे में आते ही उदासी ओढ़कर जेठानी ने आम पकड़ाते हुए कहा, "लो शीला ! बड़ी मुश्किल से मिला, सबको काट कर दे दो |"
शीला कभी अपने सो गए भूखे बच्चे को देखती तो कभी घड़ी की ओर |
"अरे जानती हो शीला, यमुना के किनारे बैठे-बैठे समय का पता ही न चला |"
"हाँ दी ! क्यों पता चलेगा! दुखों का पहाड़ जो टूट पड़ा है!" शीला ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा |
"तुम्हारे जेठ की चलती तो अभी भी ना आते | कितनी शांति मिल रही थी वहां | मैंने ही कहा कि चलो सब इन्तजार कर रहे होंगे..|"
"दीदी, साड़ी पर चटनी का दाग लगा हुआ है |"
सुनते ही चेहरा फ़क्क पड़ गया | बोलीं - "इस बंटी ने लगा गिरा दिया होगा | फ्रीज से चटनी निकालकर चाट रहा था बदमाश |"
"परन्तु दीदी, चटनी तो कल ही ..! "
"तू कुछ खाई कि नहीं ! आ, ले आ आम काट दूँ, तुम सब लोग खा लो | मुझे तो ऐसे में भूख ही नहीं लग रही |"

सविता मिश्रा 'अक्षजा', आगरा
--००--
'दिखावा' या फिर नया लेखन के 'यमुना किनारा' का सुधरा रूप है यह

माँ, माँ होती है --



मेरा रोम-रोम करे व्यक्त आभार

माँ का कोई दूजा नहीं है आधार ।

माँ आखिर माँ होती है
हमारे लिए ही जागती 
हमारे लिए ही सोती है 
कलेजे के टुकड़े को अपने
लगा के सीने से रखती है
आफत आये कोई हम पर तो 
स्वयं ढाल बन खड़ी होती है ।

आँखे नम हुई नहीं कि हमारी
झरने आँसुओ के लगती है बहाने
होती तकलीफ गर हम को तो
माँ बदहवास सी हो जाती है।

पिटना दूर की बात है
कोई छू भी दे तो
उसके सीने पर ही 
चलती जैसे कुल्हाड़ी 
चोट हमको आये तो
कमजोर माँ भी दहाड़ देती है ।

हर एक गलती पर अक्सर वह
फेर देती हाथ प्यार से सर पर हमारे 
समझाती दुलार कर, डांटती भी है
भला हो हमारा जिसमें
काम हर वहीं करती है
आँचल में छुपा हमको सो जाती है
ज्यादा प्यार में भी माँ रो जाती है ।

दिए जख्म दुनिया के हृदय में छुपा
हमें उस ताप से सदा दूर रखती है 
बुरी नजर से बचा कर चलती है
आँखों से ओझल कभी नहीं करती है ।

मेरे बार बार करवटें लेने से भी
वह परेशान होती है
गुस्सा होने पर भी वह
हाथ पैरों में आके तेल मलती है ।

किन शब्दों में करूँ मैं बखान उसका
ब्रह्माण्ड में सानी नहीं है जिसका.....।।
सविता मिश्रा 'अक्षजा'

बधाई


कितनी अजीब बात हैं हम अपनी एक छोटी सी सुई भी संभाल कर रखतें हैं और दूजों के घर को ख़ाक करने से भी नहीं हिचकतें ...वाह री दुनिया वाले कब समझोंगें आप सब दूसरों का दर्द .....खैर भगवान गणेश आप सभी के परिवार में सुख समृधि के साथ पधारे एवं आप सभी की मनोकामनाये पूर्ण करे और थोड़ी सी बुद्दी भी दे जैसे आप दूजों का नुकसान करने से पहले हजार बार सोचें आखिर बुद्धि के देवता हैं|सविता मिश्रा

Friday 29 August 2014

लगाव (लघुकथा )


"बुढऊ देख रहे हो न, हमारे हँसते-खेलते घर की हालत!! कभी यही आशियाना गुलजार हुआ करता था! आज देखो खंडहर में तब्दील हो गया है|" दीवारों पर पड़ी गहरी दरारें दिखाते हुए बुढ़िया बोली|

"हाँ बुढ़िया, चारो लड़को ने तो अपने-अपने आशियाने बगल में ही बना लिए है! वह भला क्यों यहाँ की देखभाल करते|" गहरी साँस भरता हुआ बूढ़ा बोला |
"साथ रहते तो देखभाल करते न ! चारो तो आपस में लड़-झगड़कर  अलग-अलग हो गये | दीवारों की झड़ती हुई प्लास्टर छूती हुई बोली |

"उन्हें क्या पता उनके माता-पिता की रूह अब भी भटक रही है! यही खंडहर में|" कोने में अपना सिर टिकाते हुए आह भरी |
"हाँ, वे अपने लाडलो के साथ बीते समय को भूलकर, भला कैसे यहाँ से विदा होते! दुनिया से विदा हो गये तो क्या?" लम्बी सी आह भरी बुढ़िया की आवाज गूंजी |
"और जानते हो जी, कल इसका कोई खरीदार आया था, पर बात न बनी चला गया! बगल वाले जेठ के घर पर भी उसकी निगाह लगी हुई थी|"
"अच्छा ! बिकने तो न दूंगा, जब तक हूँss !" खंडहर से गड़गड़ाहट की आवाज गूंज उठी वातावरण में |
"शांत रहो बुढऊ, काहे इतना क्रोध करते हो |"
"सुना है, बड़का का बेटा शहर में कोठी बना लिया है! अपने बीवी  बच्चों को ले जाने आया है ...!"
"हाँ, बाप बेटे में बहस हो रही थी ..! अच्छा हुआ हम दोनों समय से चल दिए वरना इस खंडहर की तरह हमारे भी .....|" ++ सविता मिश्रा ++

Monday 25 August 2014

सिसकियाँ

माँ  के कमरे से खूब रोने चीखने की आवाजें आ रही थी, १४ साल की राधा भयभीत हो रसोई में दुबकी रही, जब तक पिता के बाहर जाने की आहट ना सुनी ! बाहर बने मंदिर से पिता हरी की दुर्गा स्तुति की ओजस्वी आवाज गूंजने लगी! भक्तों की "हरी महाराज की जय" के नारे से सोनी की सिसकियाँ दब गयी! पिता के बाहर जाते ही माँ से जा लिपट बोली "माँ क्यों सहती हो?" सोनी घर के मंदिर में बिराजमान सीता की मूर्ति देख मुस्करा दी! अपने घाव पर मलहम लगाते हुए बोली, "मेरा पति और तेरा पिता हैं, तू बहुत छोटी है, नहीं समझेगी|"................सविता मिश्रा

Saturday 23 August 2014

कृष्ण कन्हईया


"कृष्ण कन्हईया जन्म लेने वाले है रे कलुवा तोहरे घरवा में ता, कुछ मिठाई-उठाई खिलावय क इंतजाम बा की नाही|" 
"का मालिक अब आपहु शुरू होई गयेंन सबन की तरह|" "उ ता उप्पर वाले का मर्जी हयेह, हम थोड़व कुछ करा|" कलुवा की बात सुन सब ठहाक
ा लगाने लगे|
"बाबू- बाबू" बदहवास हालत में कलुवा का बेटा चिल्लाता हुआ आया|
"का भा रे चिनुवा"
बाबू- माई",
"का भा तोरे माई के"
"उ माई, 'काकी' कहत बा की बाबू के बोलाय लावा हल्दी, तोहार माई बच्चा जनय के पहिलें ही ....... |"        .............सविता मिश्रा

Friday 22 August 2014

"भगवान की मर्जी"

=============
विमला मजदूरी कर घर पहुंची तो भड़क गयी भोलू पर, "कमाकर खिलाना नहीं था तो पैदा क्यों किया?"
शराबी भोला "भगवान् की मर्जी कह" बड़ी बड़ी बातें करने लगा|
भगवान सच में बड़ा कारसाज हैं, जिसके घर एक समय का ठीक से भोजन भी नहीं उसके घर हर साल बच्चे| और जिसके घर भण्डार भरा हैं, उसके उप्पर बाँझ का कलंक लगा देता हैं|
शादी के २० साल हो गये थे,सुमिता के घर किलकारी ना गूंजी थी| सुमिता भगवान के किस चौखट पर नहीं पहुंची|
आज यह जोड़ा शराबी भोलू के चौखट पर पहुँच गया| भोला और विमला में खूब बहस हुई पर .....चंद नोटों की गड्डिया ममता पर भारी पड़ गयी|
सुमिता के घर बधाई देने वालो का ताँता लगा था| आज उसकी गोद भर गयी थी, भले कोख सूनी रह गयी थी तो क्या| "भगवान की मर्जी" कह सुमिता ख़ुशी से झूम रही थी|              ...सविता मिश्रा

Tuesday 19 August 2014

यमुना किनारा

गाँव से खबर आई कि पड़ोस के जो की परिजन ही थे उनके बड़े बेटे की मृत्यु हो गयी है|
शीला भूख से बिलखते अपने चार साल के बेटे के लिए मैगी बनाने के लिए स्टोव जलाने जा ही रही थी कि जेठानी ने रोका, "अरे यह क्या कर रही हो जानती नहीं हो ऐसे में कुछ भी नहीं बनता, आज दूध पिला दो रो रहा है तो|"
"अच्छा सुनो 
शीला मैं तुम्हारे जेठ जी के साथ जरा यमुना किनारे जा रही हूँ , वही से कुछ फल-फूल लेती आऊंगी|" शाम ढल चुकी थी, शीला और उसका पति अब भी शोक में ही बैठे मरे हुए भाई के बारे में बात कर रहे थे| जेठ जेठानी हँसते-खिलखिलाते आये, जेठानी ने आम पकड़ाते हुए कहा, "लो शीला बड़ी मुश्किल से मिला काट कर सबको दे दो|" 'दो आम और सब' मन में ही सोच रह गयी| शीला कभी अपने भूखे सोये बच्चे को देखती कभी घड़ी की ओर| "अरे जानती हो शीला यमुना के किनारे बैठे-बैठे समय का पता ना चला|"
"हा दी क्यों पता चलेगा" शीला दुखी सी हो बोली, "तुम्हारे जेठ की चलती तो अब भी ना आते, पर मैंने ही कहा कि चलो सब इन्तजार कर रहें होगें...." ....शीला उनकी उतारी साड़ी तह करती हुई बोली अरे दीदी "इस पर कुछ गिर गया है" जेठानी का मुहं उतर सा गया पर संभल कर बोली, "हा तुम तो जानती ही हो लोग कितने बेवकूफ होते है, दोना फेंक दिया था मुझ पर एक ने ." "तुम्हारें भैया तो लड़ जाते मैंने ही रोक दिया" कह हंस कर अपने चेहरे के भाव छुपाने लगी| "...हां दी होते भी है और दुसरो को समझते भी है ........"  जेठानी की चेहरे की रंगत देखने लायक थी|  ..सविता मिश्रा


http://www.rachanakar.org/2014/11/blog-post_294.html रचनाकार वेब पत्रिका में छपी हुई |
१९ अगस्त २०१४ में नया लेखन ग्रुप में |
(अब इसे बदल कर मन का चोर शीर्षक से लिखा है )
इस लिंक पर है
https://kavitabhawana.blogspot.com/2014/09/blog-post_87.html

Friday 15 August 2014

पेट की मज़बूरी


एक बूढ़े बाबा हाथ में झंडा लिए बढ़े ही जा रहे थे, कईयों ने टोका क्योकि चीफ मिनिस्टर का मंच सजा था, ऐसे कोई ऐरा गैरा कैसे उनके मंच पर जा सकता था| बब्बू आगे बढ़ के बोला "बाबा आप मंच पर मत जाइये, यहाँ बैठिये आप के लिय यही कुर्सी डाल देतें है|" "बाबा सुनिए तो" पर बाबा कहाँ रुकने वाले थे|

जैसे ही 'आयोजक' की नजर पड़ी, लगा दिए बाबा को दो डंडे, "बूढ़े समझाया जा रहा पर तेरे समझ नहीं आ रहा" आंख में आंसू भर बाबा बोले "हा बेटा आजादी के लिय लड़ने से पहले समझना चाहिए था हमें कि हमारी ऐसी कद्र होगी|"
"बहु बेटा चिल्लाते रहते हैं कि बुड्ढा कागजो में मर गया २५ साल से ...पर हमारे लिये बोझ बना बैठा है|" तो आज निकल आया पोते के हाथ से यह झंडा लेकर..., कभी यही झंडा बड़े शान से ले चलता था, पर आज मायूस हूँ जिन्दा जो नहीं हूँ  ....|" आँखों से झर झर आंसू बहते देख आसपास के सारे लोगों के ऑंखें नम हो गयी|
बब्बू ने सोचा जो आजादी के 
लिये लड़ा, कष्ट झेला वह .....,और जिसने कुछ नहीं किया देश के लिय वह मलाई ....,छीअ! "पेट की मज़बूरी है बाबा वरना ...|" बब्बू रुंधे गले से बोल चुप हो गया| ..सविता मिश्रा

"माहिया"


१..मेघ हुआ बंजारा
रुक तनिक ठहर जा
बरस हम पर जरा सा

२..कुछ मेरी जुबा सुनो
कुछ कहते खुद की|
कह सुन फिर उसे गुनों|

३..मेघ घिरे जो काले
हो मन मतवाला
वर्षा के संग झूमें|

४..मन की पीड़ा तेरे

सारी हर लूंगी
मुस्करा पिया मेरे|

५..पयोधर की ये घड़ी
झिर-झिर लगी झड़ी
बदरा से धरा लड़ी|

६..बैठ गोद में मेरे
आँचल में लु छुपा
अब तू आँख तरेरे|

७..हँसनें की नहीं घड़ी

सड़क पर जो गिरी
मदद करने को बढ़ी|


८ ..सुख लिखना चाह रही
दु:ख लिख जाता हैं
खुद को फूसला रही|
++ सविता मिश्रा ++

Monday 11 August 2014

राखी भेजा है

चंद धागों में पिरो निज प्यार भेजा है
अपनी रक्षा के लिए साभार भेजा है|


माना तेरे मन में राखी का सम्मान नहीं
बड़े मान से राखी में दुलार भेजा है|


भाई बहिन का नाता जैसे इक अटूट बंधन है
जार जार होता जाता पर जोरजार भेजा है|


ढुलक गया  मोती मेरी नम आँखों से
गूंथ गूंथ ऐसे मोती का हार भेजा है|


सारे शिकवे गिले भूल सावन में हर बार
बंद लिफ़ाफ़े में यादों का भण्डार भेजा है|


मेरी राखी के धागों का मोल नहीं है भैया
प्यार छुपा कर धागों में बेशुमार भेजा है|


मतलब की दुनिया मतलब के सारे रिश्तें नाते
रखना रिश्तें मधुर यही मनुहार भेजा है|


माना होता अजब अनोखा यही खून का रिश्ता
राखी के तारों में निहित रिश्तों का प्यार भेजा है|


कभी ना फीकी हो मेरे भैया कान्ति तेरे चेहरे की
हरने को सारे गम तेरे माँ सा दुलार भेजा है|
सविता मिश्रा

संस्कार


संस्कार-

खबर लगते ही सुमन बदहवास-सी घटना स्थल पर पहुंची। अपने बेटे प्रणव की हालत देख वह बिलख रही ही थी कि भीड़ से आती फुसफुसाहटें सुनकर सन्न रह गयी। एक नवयुवती की आवाज सुमन के कानों में तीर-सी जा चुभी- "अंडे से बाहर आए नहीं कि लड़की छेड़नी  शुरू कर दी।"
एक आवाज और छूटी तो सीधे हथोड़े-सी सुमन के दिल पर जा पड़ी - "नालायक! सरेआम लड़की छेड़ रहा था। सबने अच्छे से कुटाई की इसकी ।"
सुर-से-सुर मिलाती सर्र से एक और आवाज आकर सुमन के कान से टकराई - "अच्छा हुआ पिटा। कैसा जमाना आ गया है भाइयों के साथ भी लड़की सुरक्षित नहीं चल सकती..|" सब सुनकर  शर्म से जमीन में धँसी जा रही थी सुमन। 
 "अरे नहीं, 'भाई नहीं थे |' वो सारे तो इस लड़के की धुनाई करके भाग गए। लेकिन देखो वह लड़की अब भी खड़ी हो सुबक रही है ।" बगल में ही खड़ी बुजुर्ग महिला बोली तो सुमन का खून खौल उठा | 
वह घायल हुए प्रणव पर ही बरस पड़ी- "हमने तुझे क्या ऐसे 'संस्कार' दिए थे करमजले! बहन-बेटी की सुरक्षा की शिक्षा दी थी मैंने और तू ..! अच्छा हुआ जो तेरी कोई बहन नहीं है ।
प्रणव - "मम्मी! सुनो तो ! मैंने ....!"
 सुमन बड़बड़ाती हुई उस लड़की की तरफ जाकर बोली - "बेटी! माफ़ करना, ऐसा नहीं है वह। बस संगत आजकल गलत हो गयी है उसकी, मैं बहुत शर्मिंदा .."
"नहीं ! नहीं! आंटी जी, इसकी कोई गलती नहीं है। वह तो मुझे बचा रहा था उन दरिंदो से। इसके साथ जो लड़के थे, उन्होंने ही आपके बेटे की यह हालत की है। इसने तो उनसे मेरा बचाव करना चाहा था। सब भीड़ देख भाग खड़े हुए वर्ना न जाने क्या होता...!" लड़की सुबकते हुए बोली |
सुनकर अचानक सुमन को गर्व हो आया अपने बेटे पर | 
 "हमें माफ़ कर देना मेरे बच्चे, हमने कैसे समझ लिया कि मेरा बेटा ऐसा कुछ कर सकता है।" बेटे के पास जा उसका सिर गोद में रख बिलखते हुए बोली। अब भीड़ भी उसको कोसने के बजाय हमदर्दी में आसपास जुट गई थी।
प्रणव दर्द से कराहते हुए हँसकर बोला - "मम्मी ! मैंने आपके दिए संस्कारो की रक्षा..,आह..! अब तो आपको नाज है न अपने बेटे पर।"अब उसकी आँखों में क्रोध से उपजा धकधकता अँगार नहीं बल्कि ममता का सागर उफ़ान ले रहा था।  
 "तुझे समझाती थी न कि संगत अच्छी रख, देखा तूने ! कोई अम्बुलेंस बुलाओ |" चीखने लगी सुमन | 
--00--
प्रथम प्रकाशित लघुकथा -- "पुुष्पवाटिका" पत्रिका में सेतेम्बर 2014 में ।

Friday 8 August 2014

~प्यासी धरती माँ ~

सुमी पानी का गागर दूर पोखर से भर ला रही थी, उसकी छोटी बहन चिक्की भी उसके साथ थी उसे गर्मी में नंगे पैर चलने के कारण पैरो में जलन हो रही थी और गला-ओंठ भी प्यास से सूखे जा रहे थे| पैरों से जमीं की और सर पर धूप की तपिश उससे बर्दाश्त नहीं हो रही थी|
प्यास तो सुमी को भी लगी थी, पर वह थोड़ी बड़ी थी, सहने की आदत पड़ गयी थी उसे|
चिक्की चिल्लाई..." दीदी बहुत जोरो से प्यास लगी है, पानी भरी भी हो, फिर भी ना पी रही हो ना पिला रही हो|" "अरे छुटकी तू समझती क्यों नहीं ऐसे पानी गागर से पियेगें तो बहुत सा पानी बर्बाद हो जायेगा" सुमी चिक्की को समझाने के अंदाज में बोली|
"अरे दीदी बर्बाद क्यों होगा, एक तो हमारी प्यास बुझेगी, दूजे इस सूखी-फटी धरा को भी पानी मिल जायेगा, देखो मुहं बाए पानी मांग रही है| जब हम अपनी माँ के लिय इत्ती दूर से पानी भर ला सकतें है, तो अपनी धरती माता को  खुद ही को लाभ पहुँचाने के लिय जरा सा पानी नहीं दे सकते है?" चिक्की सायानी बन बोली|
सुमी बोली ..."अरे छुटकी तू कह तो सही रही है और यह सुखा खेत तालाब के पास भी है, चल-चल दो चार गागर रोज यहाँ भी डालेगें आखिर मेरी धरती माँ क्यों प्यासी रहें भला" ...दोनों ही चल पड़ती है एक नये संकल्प के साथ.....| ...सविता मिश्रा

प्रकृति संपदा (कहानी )

माँ अपनी दोनो बच्चियों को पानी भरने में लगा देती| गरीबी के कारण स्कूल तो जाती नहीं थी दोनो |  खुद घर का और काम निपटाने में लग जाती| गाँव से दूर एक नहर थी, वहां से बड़ी बिटिया निक्की गगरा में पानी भर कर लाती| ज्यादा बड़ी ना थी, पर अपनी उम्र और जान से दुगुना काम कर लेती थी | छुटकी उसकी संगत के कारण जाती और वहां नहर में खूब  मौज  भी करने को मिल जाता | अतः खुशीखुशी बड़ी  बहन के साथ हो लेती | दोनो नहर में घंटो मस्ती करते, फिर गगरा में पानी भर घर आ जाते| दिन में कई चक्कर लगाते और हर बार पानी देख बेकाबू हो कूद पड़ती छुटकी | नहर में मस्ती करने  में  बड़ा  मन लगता |  साँझ ढ़लने तक पानी ही भरती रहती  दोनो |  घर आते ही डांट खाती  तो खिलखिला हंस पड़ती | मस्ती में काम भी खूब कर लेती  दोनो, अतः माँ को ज्यादा शिकायत ना होती|

एक दिन गाँव में सुखा ग्रस्त इलाके में दौरा करने वाली टीम आई, उसने गाँव वालो को समझाया- "आप लोगो के परदादा ने पेड़ लगाया, आप अब तक फायदा लेते आये | फिर अब आप सब भी क्यों नहीं लगाते पेड़? आपके पास तो इतनी जमीने खाली पड़ी है? बहुत सी जमीने तो खेती लायक भी नहीं है | उसी जमींन पर आप मेहनत कर पेड़ उगाये, देखिये साल दो साल में ही आप धनवान हो जायेगे| .प्रकृति संपदा से बढ़ कर भी कुछ है क्या?"

निक्की बड़े ध्यान से बात सुन रही थी, दुसरे दिन जब वह नहर पर पानी लेने गयी तो वहाँ  नीम के कई पौधे उगे हुए थे | कुछ पौधे वह उखाड़ कर छुटकी को पकड़ा दी | बोली "ले छुटकी पकड़ और हा संभल कर पकड़ना | ज्यादा कस कर मुट्ठी ना बाँध लेना |"
"पौधे मर जायेगे न" छुटकी बड़ी गंभीरता से बोली|
"हाँ निक्की दीदी, मैंने भी सुना था, वो चच्चा कहें थे कि पौधे बहुत नाजुक होते है|"
घर आते ही निक्की बोली  "बाबा देखो मैं क्या लायी ? इसे लगाना है अपने घर के पास" और खुरपी ले चल पड़ी! पहले तो रामसुख झल्लाया, पर फिर खुद ही लग गया गड्ढा खोदने|
दस दिन में ही घर के आस पास आठ-दस पेड़ लगा दिए| समय के साथ पेड़ थोड़े बड़े हो गये| एक दिन पास में निक्की खड़ी हो चिल्लाई "बाबा , अम्मा, देखो-देखो यह तो हमसे भी बड़ा हो गया"| उसको बढ़ता देख पूरा परिवार खुश और आश्वस्त था कि मेरे बच्चे सूखे की मार नहीं झेलेंगे|
उसकी देखा-देखी अब पूरा गाँव मिलकर बंजर भूमि पर मेहनत कर आम, इमली, महुवा केढेरों पेड़ लगा दिए | अब तो उनकी देख रेख में पेड़ लहलाहा रहे थे| ...सविता मिश्रा

Monday 4 August 2014

दादी

रोहित गाँव पहुँचने के दो घंटे बाद ही, बहुत  खुश हो अपनी प्रिंसिपल पत्नी को फोन करता है ..."स्वीट हाट, अम्मा मान गयी, उसे कल ही लेके मैं आ रहा हूँ वह ‘कमला वाला कमरा’ जरा साफ़ करा देना | और हाँ ! जो पिताजी की तस्वीर स्टोर रुम में  फेंक दी थी तुमने, वह पड़ी होगी कहीं | उसे खोजकर  उस पर सुंदर सा गमकते फूलों का हार जरुर चढ़ा देना | इतना तो कर सकती हो न मेरे लिय, प्लीज .. !”  बेटे से कुछ कहने आईं कमरे के बाहर खड़ी माँ बेटे की बात सुन सन्न रह गयी |  आँखों से झर-झर आँसुओ की धारा बहने लगती है, पर पोते को देखने की ख़ुशी में  उलटे पाँव हो कपड़ें-लत्तें  की एक गठरी बांध लेती है |
“मूल से सूद ज्यादा प्यारा होता है, तुम समझते हो न ? कहते हुए खुद की आत्मा को टांग देती है दीवार पर लटकती अपने पति की तस्वीर पर हार के साथ | 
“अम्मा जल्दी करो देर हो रही |”
 रुआसें स्वर में बोली - “तुम समझ गये न ! अपनी स्वाभिमानी आत्मा के साथ गयी तो दो पल भी नहीं ठहर पाऊँगीं अपनी बहु के पास
बहु के पास रहने के लिए अपनी आत्मा को अपनी  कुटीया में ही छोड़ना होगा |  आँसुओ  को दिल के कोने में दफन कर स्वार्थी बेटे के साथ चल देती है शहर की ओर..|

Friday 25 July 2014

परिवेश (लघुकथा )


आज कुछ ज्यादा ही सब्जियाँ खरीद लीं तो बोझ से नीलम बेहाल हो गई। तभी साल भर के बच्चे को उठाये दस बारह वर्ष की बच्ची ने जब नीलम के आगे हाथ फैलाये तो उसे चॉकलेट देते हुए उससे एक थैला घर पहुँचाने पर उसे दस रुपये देने का कहा।
लड़की ने बच्चे को बगल में दबाया, दूसरे हाथ से थैला थाम लिया और नीलम के साथ चलने लगी। खुद का बोझा कम होने से मिली राहत के कारण अब नीलम का ध्यान उस लड़की पर गया। "तुम्हारा नाम क्या है ?"
"बिनुई" , लडकी ने शरमा कर कहा।
"और इस नन्हे का?"
"लालू" चलते-चलते उसने जवाब दिया।
"माँ कहाँ है तुम्हारी ?"
"काम पर गयी "
"स्कूल नहीं जाती ?"
"नहीं .."
"लालू को ऐसे गोद में लिए थकती नहीं ?"
"नहीं ..!"
हर सवाल का संक्षिप्त सा उत्तर मिला |

नीलम को याद आया जब उसने अपनी बेटी हिमा को कहा था "बेटा यह सब्जी का थैला अंदर रख दो।"
बिटिया ने कुछ देर कोशिश की लेकिन उससे वह थैला उठा ही नहीं। "मम्मी मुझसे नहीं उठ रहा तुम खुद ले लो न|" उसने ठुनकते हुए कहा था।

उस दिन ना जाने क्यों उसे गुस्सा आ गया था - "तू दस साल की है और तुझसे चार किलो का थैला नहीं उठ रहा।"
"माँ सच में नही उठ रहा " उसने फिर से कोशिश करते हुए जवाब दिया।
"गरीब बच्चों को देख, वह चार पांच साल में ही कितना भारी-भारी बोझा उठा लेते हैं | वह भी बिना चेहरे पर शिकन लाए |" उसने खीझते हुए कहा था।
"तो क्या मम्मी हम जो कर सकते हैं वो सब वे गरीब बच्चे भी कहां कर पाते हैं | साइंस, मैथ्स, इंग्लिश पढ़ना, रात देर तक जाग कर प्रोजेक्ट बनाना !" कहकर वह मगन हो गयी थी टीवी देखने में |


सही तो कह रही थी हिमा! जिसको जैसे परिवेश में पालेंगे वैसे ही तो बनेगा |
लालू के किलकने पर वह यादों से बाहर आई और उस बच्ची से बोली "तुम पढ़ोगी..!"
"नहीं...!"
"क्यों..?"
"माँ कहती है पढ़ाई बोझ है। हम जैसे लोग नहीं उठा सकते। और फिर इसे कौन सम्भालेगा..!" कहते ही वह लालू को गोद में लिए चल दी ।
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सविता मिश्रा "अक्षजा'
 आगरा 
 
2012.savita.mishra@gmail.com


नींव की ईट (kahani)


                                              नींव की ईंट

श्याम बहुत ही होनहार छात्र था | सभी शिक्षक उसकी बहुत ज्यादा तारीफ़ किया करते थे पेरेंट्स-टीचर मींटिंग में जब माँ-बाप अपने बेटे की तारीफ़ शिक्षकों के मुख से सुनते थे तो उनका सीना ख़ुशी से फूल जाता था | वह कक्षा एक से लेकर कक्षा आठ तक अव्वल आता रहा था | कक्षा का कोई भी विद्धार्थी उससे ज्यादा नम्बर लाना तो दूर, उसके आस-पास भी नहीं ठहरता था | वह अस्सी परसेंट से प्रथम आता तो उसकी कक्षा के और बच्चे पैंसठ प्रतिशत के जरा इधर- जरा उधर आकर ठहर जाते थे | धीरे-धीरे समय बीतता रहा था और माता-पिता के दिमाग में बेटे की तारीफ़ों के पुलिंदों का वजन बढ़ता रहा
अब श्याम के कक्षा नौ की त्रिमासिक परीक्षा नजदीक आ गयी थी । माँ नीलू को उस पर बहुत भरोसा था | अतः वह ज्यादा ध्यान नहीं देती थी
 | राजेश जब कभी पढ़ने के लिए टोकता तो वह उससे अक्सर कहती थी "बच्चा है! खेलने-खाने की उम्र हैज्यादा पढ़ाई पर जोर मत दिया करिए | अपने मन से पढ़कर क्लास में फस्ट तो आता ही है , फिर क्यों बार-बार उसे पिंच करते रहते हैं |"
कक्षा आठ में ही उसके क्लास में टॉप करने से खुश हो राजेश ने एक मोबाइल उपहार में दे दिया था जब कभी एक्स्ट्रा क्लासेस के लिए रुके या कोचिंग में देर हो तो माँ को खबर कर दे | या फिर पढ़ाई के विषय में दोस्तों से राय बात करनी हो तो मोबाइल जरुरी हो जाता है | यह सब समझकर मोबाइल उसके हाथ में रखकर उसकी आँखों की चमक में उन्होंने उसके भविष्य की चमक का आभास करना चाहा था | लेकिन मोबाइल को खोलकर उसकी एप देखने की ख़ुशी में श्याम की आँखे राजेश के चेहरे से हटकर मोबाइल स्क्रीन की चमक में खो गयी थी |
वह अपनी मेहनत जारी रक्खेगा इस विश्वास पर राजेश ने मोबाइल दे तो दिया था लेकिन
 वह भटक भी सकता है,  यह बात उनके दिमाग़ में आयी ही नहीं थी | माता-पिता जब भी श्याम के कमरे में देखते थे तो श्याम उन्हें किताबों में खोया हुआ ही दिखता था | उसकी लगन और मेहनत को देखकर माता-पिता आश्वस्त थे कि इस बार भी कक्षा में टॉप करेगा उनका बेटा | पर उन्हें क्या पता था कि श्याम तो असल में उन्हें धोखा दे रहा है | उनकी नजर बचाकर  वह ह्वाट्सएप पर चैटिंग और गेम खेलने में ही लगा रहता है | स्कूल से घर, घर से कोंचिंग | कोचिंग से आते ही अपने कमरे में पैक हो जाता था श्याम | कोचिंग जा रहा या नहीं इसकी भी कभी भी पूछताछ नहीं की राजेश ने |

समय तितली-सा उड़ता गया | परीक्षा की घड़ी नजदीक आ गयी | माँ को तो सपने में भी टीचरों के मुख से श्याम की वाहवाही करने की आवाज़ें गूँजने लगी थी | जब कभी कमरे की ओर किसी काम को कहने जाती तो उसे दरवाजे की ओर पीठ किए पढ़ता हुआ देखकर उलटे पैर वापस हो लेती थी | उसे यकीं हो चला था कि हो-न-हो उसका लाड़ला सबको इस बारी भी मात दे देगा |
परीक्षा हो चुकी थी | राजेश श्याम के कमरे में घुसा तो वह फैली किताबों के बीच उकडू बैठा था | राजेश ने पीछे से आवाज़ दी “ अरे बेटा अब तो दो-चार दिन किताबों को छोड़ दो | तुम तो बिलकुल किताबों में ही खोये रहते हो |”
पिता की आवाज़ सुनकर श्याम हड़बड़ा गया |
“मुझे पता है तुमने खूब मेहनत से पढ़ाई की है, परिणाम पक्का सुखद होगा |”
“जी पापा..!” सहमी सी आवाज़ में बोला था श्याम | पिता के जाते ही किताब के नीचे दबाकर रखा मोबाइल निकालकर उसने चैटिंग में बाय लिखकर बंद कर दिया मोबाइल |
रिजल्ट निकलने का दिन आ गया था | माता-पिता बड़े गर्व से छप्पन इंच का सीना लेकर रिजल्ट लेने स्कूल में पहुँचे थे | लेकिन इस बार सब उल्टा हुआ था | स्कूल में पहुँचते ही शिक्षकों ने शिकायतों का पुलिंदा जैसे उनके लिए तैयार ही रखा था|
 एक -एक कर सभी शिक्षकों ने श्याम की शिकायत कर डाली थी और हिदायत दी कि “आप श्याम पर अधिक ध्यान दीजिए |  बढ़ता हुआ बच्चा हैहाथ से निकल गया तो बहुत मुसीबत होगी आपको | आपके ही भले के लिये कह रहे हैं हम सब, कृपया बुरा नहीं मानियेगा |”
गणित के शिक्षक ने कहा, “आखिर इतने अधिक होनहार छात्र को ऐसा क्या हुआ कि हर सब्जेक्ट में पहले से आधे नम्बर भी नहीं ला पाया है इसबार | अगले साल बोर्ड की परीक्षा है | हमें तो उससे बड़ी उम्मीद थी कि वह आपके साथ-साथ हमारे स्कूल का भी नाम रोशन करेगा | किन्तु ..!”
“कड़ी निगरानी रखिए उसपर| प्यार से समझाइये उसे | आखिर कौन-सा अपनी बर्बादी का अस्त्र उसने उठा लिया है | जितनी जल्दी हो सकें उसे उस अस्त्र-शस्त्र से उसे मुक्त करिये, वरना हाथ मलते रह जायेंगे |” क्लास-टीचर ने बड़े दुखी मन से कहकर हाथ में रिजल्ट पकड़ा दिया |
राजेश को शिक्षकों से अपने बेटे के बारे में सुनकर आश्चर्य हो रहा था | उसे लग रहा था ये सब शिक्षक कैसी बातें कर रहे हैं मेरे बेटे के बारे में ! उन्हें हाथ में रिजल्ट लेने की जल्दी होने लगी थी | राजेश की दृष्टी अपने हाथ में आये श्याम के रिजल्ट पर गयी उनके पैरो के नीचे से जैसे जमीन ही खिसक गयी |
 माँ को भी काटो तो जैसे खून ही नहीं | दोनों आवक रह गये | रिजल्ट पर फटी नजरें गड़ी-की-गड़ी रह गयी | श्याम सारे विषयों में फेल था |
राजेश को बिजली का झटका-सा लगा | उसे तुरंत अपनी गलती का अहसास हुआ |
उन्होंने शिक्षक से कहा “आप चिंता न करें ! अगली बार छमाही इम्तहान में मेरा यही बेटा
पहले जैसा नम्बर लाकर के दिखाएगा |”
राजेश क्रोध और शर्म से दोहरा हुआ जा रहा था लेकिन उसे यह भी मालूम था कि बच्चे पर गुस्सा करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा | बल्कि कुछ और जुगत भिड़ानी होगी | यदि अभी नहीं उसे सम्भाल पाए तो फिर तो अगर वह भटककर दूर निकल गया तो वापस आना बड़ा मुश्किल हो जायेगा |
माँ हाथ में रिजल्ट पकड़े सहमी-सी खड़ी थी | राजेश अभी उसपर भड़केंगे | क्रोध करते हुए यह भी नहीं देखेंगे कि वह स्कूल के बाहर खड़े हैं | सामने भीड़ खड़ी है | उसपर अभी वो भीड़ हँसेंगी लेकिन राजेश ने बड़े शांत शब्दों में बोला “ये पैसे लो .! उसकी पसंद की चाकलेट लेकर सड़क की दूसरी छोर पर निकलो | तब तक मैं भीड़ से स्कूटर निकलाकर पहुँचता हूँ |” सुनकर नीलू ने राहत की साँस ली |
माना की मेरी गलती थी मैंने उसे उसके भरोसे पर छोड़ दिया था | लेकिन मुझे क्या पता था कि श्याम मोबाइल का दुरूपयोग नहीं कर रहा बल्कि मेरे विश्वास का दुरूपयोग कर रहा है वह | काश में पढ़ते वक्त उसके कमरे में उसके सामने बैठी उसपर नज़र रखती | लेकिन क्या बच्चों को इतनी कड़ी नजरों की पहरेदारी में पढ़ता हुआ देखना सही है ! नहीं ! नहीं ! कहीं और चुक हुई है | शायद हम दोनों ने उसपर अतिशय भरोसा किया वह भी बर्बादी का अस्त्र अपने ही हाथों से पकड़ाकर | थोड़ी दिन उसका सदुपयोग हो रहा या दुरूपयोग यह देखना चाहिए था | थोड़ा-सा ध्यान देती उसपर तो अवश्य उसकी गलती पकड़ आ जाती | लेकिन ..!
“अरे भई! क्या सोच रही हो ! अब स्कूटर से उतरोगी भी | घर आ गया | और देखो ! तुम उसे अभी कुछ मत बोलना | मैं देखता हूँ ..| मैंने बिगड़ने का रास्ता दिखाया था तो उस रास्ते को मैं ही बंद करूँगा, किसी भी तरह |”
घर में घुसते ही राजेश ने श्याम को बुलाया श्याम डर गया कि आज तो खैर नहीं | पापा बहुत मारेगें |
 थरथर काँपता हुआ वह आकर अपराधी की तरह सिर झुकाए खड़ा हो गया | पर राजेश ने न उसे मारा न ही डांटा | बल्कि उन्होंने तो अपने स्वर को भी मधुर पुराने गीतों में बजते संगीत की तरह रखा | उन्होंने कुछ भी ऐसा नहीं किया जैसा माँ- बेटे को अंदेशा था |  बस पास बुलाकर श्याम को बड़े प्यार से समझाया कि बेटा ! जिन्दगी की राह इसी उम्र में मजबूत होती है | इस उम्र में तुम अपने सुनहले भविष्य में जितनी मजबूत कड़ी लगावोगे भविष्य उतना ही उज्ज्वल होगा | इस कड़ी को कमजोर कर दोगे तोभविष्य की राह बहुत कठिन हो जाएगी बेटा | यूँ समझो कि यही समय नींव की ईंट है | नींव मजबूत तो भविष्य की इमारत अपने आप बुलंद ही होगी | और भटके तो फिर ...जब समझ आएगा तो बहुत देर हो चुकी होगी बेटा | मैंने तो तुम्हारे भले के लिए तुम्हें मोबाइल लेकर दिया था किन्तु तुमने तो अपने भविष्य से नहीं बल्कि मेरे विश्वास से खेला है |” कहने के बाद कमरे में एकबारगी थोड़ी देर के लिए सन्नाटा पसर गया |
सिर झुकाए खड़े हुए श्याम की समझ में पिता की बात आ गयी थी | पिता ने इशारा करके नीलू से चाकलेट माँगा फिर श्याम के हाथ में देते हुए फिर कहा “मुझे उम्मीद है तुम मुझे निराश नहीं करोगे |”
एक हाथ में चाकलेट लेते हुए उसने खुद ही दुसरे हाथ से अपना मोबाइल पापा को देते हुए बोला
, “पापा भटकाव की जड़ यह हैइसे अब आप ही रखिये और जब मैंपढ़ –लिखकर आप की तरह गजटेड अफसर हो जाऊँगा न तो आपसे इससे भी लेटेस्ट अच्छा वाला मोबाइल माँगूंगा |” यह कहने के तुरंत बाद श्याम अपने कमरे में जाकर अपनी पढ़ाई करने जाने लगा |  राजेश ने उसे पुकारा और सीने से लगाकर कहा “आई प्राउड ऑफ़ यूँ ! मुझे गर्व है तुम पर मेरे बच्चे |
“सुबह का भटका हुआ शाम को वापस घर आ जाये तो उसको भटका हुआ नहीं कहते हैं | लो बेटा मेरी ओर से भी एक चाकलेट |” उसकी कामयाबी के प्रति आश्वस्त हो राजेश और नीलू दोनों एक दुसरे की तरफ देखकर मुस्करा दिए |
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