Sunday 28 September 2014

~मुश्किल है कामचोर बनना ~

वैसे तो कामचोर नहीं थे हम-- पर भाई लोग अक्सर कामचोर ही कहतें| सफाई, खजांची यानि जिम्मेदारी का काम बखूबी करते थे| पर हाँ रसोई के कम से जी अवश्य चुराते थे| भोजन जब भी बनाना पड़ता उल्टा-सीधा ही बनाते| कभी कुकर  में चावल के साथ पानी डालना भूल जाते तो कभी दाल में नमक, हल्दी| हाँ पत्रिका में पढ़ कुछ बनाना हो तो अवश्य मजा आता, बड़ी तन्मयता से बनाते|

पहले भट्ठी जला करती थी तो बहाना रहता  छोटे है अभी, जल जायेगें| फिर गैस आई, पर तब तक भाभी का आगमन हो चूका था, अतः उनकी जिम्मेदारी थी रसोई की|अतः ज्यादा जरूरत ना पड़ी| उनके मायके जाने पर ही ऐसे तैसे न जाने कैसे बना ही लेते दाल-चावल रो गाके| :(  पर रोटी फिर भी मम्मी सेंकती थी| स्कूल में भी होमसाइंस विषय था, अतः बनाना पड़ता, कम से कम इम्तहान के समय| पर वहां भी सहेलियों की मदद से बन जाता|
पर समय की ऐसी मार पड़ी की भोजन बनाना ही पड़ा| अरे बाबा हर लड़की को समय की ऐसी मार पड़ती ही हैं, इसमें आश्चर्यजनक जैसी कोई बात नहीं| हाँ पुरुषों को पड़े तो जरुर घोर आश्चर्य की बात है| :p  हाँ एक आश्चर्य की बात जरुर थी कि जो लड़की स्कूल इम्तहान में पम्पवाला स्टोव के बजाय हीटर ले जाती थी, यानि स्टोव जलाना नहीं आता था उस लड़की को, उसने चूल्हें तक में खाना पकाया|
धीरे-धीरे रसोई में घंटो छोड़िये, चार-चार, छह-छह घंटे बिताने पड़ते दिन भर में| समय हर कुछ बदलने की कूबत रखता है,और मेरा भी रसोई से भागने का स्वभाव समय ने बदल ही दिया| सविता मिश्रा

*एक बुराई .... जिस पर आपने जीत हासिल की हो *
एक प्रतियोगिताआयोजन में लिखा गया संस्मरण कह लीजिये :)

Thursday 25 September 2014

~प्राणवान दुर्गा~

स्कूल के प्रांगण में ही कोलकत्ता से कलाकार आते थे माँ दुर्गा की मूर्ति बनाने| सब बच्चें चोरी-छिपे बड़े गौर से देखते माँ को बनते|
ऋचा को तो उसकी कक्षा के बच्चे खूब चिढ़ाते रहते|
 "देखो तिरेक्षे नयन बिल्कुल ऋचा की तरह है |" सुमी  बोली
"और क्रोध भी बिल्कुल  माँ के रूप की तरह इसमें भी झलक रहा है|" रूचि  बोली
"हा करती हूँ क्रोध और माँ दुर्गा की तरह ही दुष्टों का नाश कर दूंगी|" चिढ़ के ऋचा बोली
"अब तुम सब चुप रहती हो या जाके टीचर से शिकायत करूँ सब की|" तमतमाते हुय बोली ऋचा
"यार चुप हो जा, जानती है न यह टीचरों से भी कहा डरती हैं, जाके शिकायत कर देगी, फिर मार पड़ेगी हम सब को|"
"हाँ यार ये कलाकार तो बेजान माँ दुर्गा की मूर्ति गढ़ रहा है पर प्रभु ने तो चौदह साल पहले यह प्राणवान दुर्गा गढ़ भेज दी थी|" सुमी बोली
"वैसे भी यहाँ मूर्ति पास आना मना भी है, पता चलते ही घर पर शिकायत पहुँच जायेगी|" रूचि के कहते ही सब वहां से भाग ली|  सविता मिश्रा

Wednesday 24 September 2014

~प्यास~(लघुकथा)

फुसफुसाने की आवाज सुन काजल जैसे ही पास पहुँची सुना कि -तुम आ गये न, मैं जानती थी तुम जरुर आओगें, सब झूठ बोलते थे, तुम नहीं आ सकते अब कभी|
"भाभी आप किससे बात कर रही हैं कोई नहीं हैं यहाँ"
"अरे देखो ये हैं ना खड़े, जाओ पानी ले आओ अपने भैया के लिय बहुत प्यासे है|"
डरी सी अम्मा-अम्मा करते ननद के जाते ही भाभी गर्व से मुस्करा दी| .........सविता मिश्रा

Sunday 21 September 2014

~मिस फायर~

पति-पत्नी में छोटी सी बात पर, बहस इतनी बढ़ गयी कि बसंत ने अलमारी में रक्खी रिलाल्वर निकाल ली| अपनी कनपटी पर तान सुधा को धमकाने लगा| सुधा अनुनय-विनय करती रही पर शराब का नशा सर चढ़ कर बोल रहा था| वह भ्रम में था कि हमेशा की तरह रिवाल्बर चलेगी नहीं,  और विजयी मुस्कान उसके चेहरे पर दौड़ रही होगी| उसका अहम् जीत जायेगा| यही सोच उसने ट्रिगर दबा दिया, पर होनी को कुछ और ही मंजूर था| मिस फायर करने वाली रिवाल्बर आज....|
उसकी जान की दुश्मन रिवाल्बर की गोली इसी दिन की घात लगाये बैठी थी| आज वह सफल हो इठला रही थी पर घर में मातम पसर गया था|

++ सविता मिश्रा ++

Friday 19 September 2014

नन्ही चिरैया

"भैया आंखे बंद कर हँसते हो तो कितने अच्छे लगते हो|" गद्गुदी करती हुई परी बोली
भाई खिलखिला पड़ा फिर जोर से| परी भी उन्मुक्त हंसी हंसती रही| दोनों हँसते-हँसते कहा से कहा आ गये थे|
"अरे पापा वह आंटी का घर तो पीछे रह गया|"
"उन्होंने दस बजे तक बुलाया था, आज कन्या खिलाएगी न" परी हँसते हुए बोली|
"अरे मेरी नन्ही चिरैया चिंता ना करो पहुंचा दूँगा, आज खाली हूँ अभी और घुमा दूँ तुम दोनों को|"
"हाँ पापा घुमा दो रिक्शे पर घूमें बहुत दिन हो गये|" बंटी बोला
"और हाँ वही अगल-बगल घरों में ही जाना और कही नहीं जाना मैं दो घंटे में आऊंगा लेने|"
"नहीं जाऊँगी पापा, खूब ढेर सा प्रसाद मम्मी के लिय भी ले लूँगी आंटी से, मम्मी बीमार है न खाना कहा खायी है|"
"

और पापा आपके लिय भी" चल चल भैया दोनों खिलखिलाते हुए चल पड़े उन घरों की ओर जहाँ कन्या जिमाई जा रही थी| सविता मिश्रा

Wednesday 10 September 2014

पिछलग्गू(लघु कहानी)

पिछलग्गू
===========
सुरेश, किशोर के पीछे-पीछे लगा रहता था, वह कुछ भी बोलते, उनको दाद देता कि "वाह सर क्या बात कहीं आपने" वह उसके सीनियर जो थे| सभी आफिस वाले उसके इस हद से ज्यादा की चमचागिरी से परेशान थे| कानाफूंसी करते की काम धाम तो कुछ करता नहीं बस चमचागिरी में लगा रहता है| उसे देखते ही खिल्ली उड़ाते अरे देखो-देखो आ गया चिपकू| यह बात किशोर के कानो तक भी पहुंची| उन्हें कुछ सुझा-एक दिन एक साधारण सा कपड़ा पहने सर पर तौलिया लपेटे कुछ काम लेकर पहुँच गये! चपरासी देखते ही पहचान गया, पर किशोर ने इशारे से चुप रहने को कह दिया|
 सुरेश के पास पहुंचे तो कागज हाथ में आते ही सुरेश उन्हें पाठ पढ़ाने लगा "नहीं ऐसा नहीं ऐसा है, आप छोड़ जाइये मैं देख लूँगा!"उसके चेहरे की ओर भी ना देखा|
चपरासी ने कहा ..."सर वह सही तो बोल रहे थे, आपने उन्हें देखा भी नहीं और ना उनके कागज देखे, लौटा दिया |"
"अरे राम भरोसी यह "बाल" धूप में नहीं सफेद किये मैंने, बस कपड़े से समझ गया कैसा व्यक्ति है, दौड़ने दो कुछ दिन|" सुरेश बड़े तीसमारखा की तरह बोला|

तभी सूट-बूट में किशोर आ गया और उसी काम को करने को बोला जो वह साधारण सा कपड़ा वाला व्यक्ति दे गया था .. सुरेश ने झट से कागज निकाले और मुहं लटकाए केविन में जाते ही, "सौरी सर गलती हो गयी, आइन्दा से कभी ना होगी|" बाहर निकलते हुए चपरासी को मुस्कराता देख सुरेश उप्पर से नीचे तक जलभुन उठा| सविता मिश्रा १०/८

Sunday 7 September 2014

कक्षोन्नति -

"सिर्फ अस्सी, अंग्रेजी मेsडियम में पढ़कर भी सीटू तेरे इतने कम नम्बर आये हैं अंग्रेजी में !"  माँ थोड़ी नाराज होते हुए बोली।
"मम्मी, आपकी अंग्रेजी तो कितनी कमजोर है ! इंग्लिश मीडियम होता है।" स्वीटी मम्मी को अंग्रेजी का एक शब्द अटकते हुए बोलती सुनी तो बोल पड़ी।
"बताइए न मम्मी,आप पढ़ने में कैसी बच्ची थीं? तेजतर्रार या कमजोर?" बगल बैठा सीटू जिद करके पूछने लगा।
"अच्छा सुन ! बताती हूँ ! बात उन दिनों की है जब मैं चौथी कक्षा में थी | अंग्रेजी विषय तो जैसे अपने छोटी सी बुद्धि में घुसता ही न था|"
"अच्छा, तभीss..!"
"अंग्रेजी की टीचर भी बड़ी खूसट किस्म की थी। मारना और चिल्लाना ही उनका ध्येय था| उनके क्लास में आते ही सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती थी अपनी|"
हां, हां, जोर से हँस पड़ा बेटा।
" हँस मत, जिस दिन रीडिंग का पीरियड होता था , उस दिन जान हलक में अटकी रहती थी | अपनी बारी ना आये, भगवान से प्रार्थना ही करती रहती थी। एक दिन रीडिंग करने खड़ी हुई तो नाम मात्र जो आता भी था, वह भी डर से बोल नहीं पा रही थी मैं |"
"यह था, मेरी माँ हिटलर की तो डर गया था!" स्वीटी बोली
"हुउss, तब दो बार तो कस के डांट पिलाई टीचर ने | डांट खाते ही दिमाग तो जैसे घास चरने चला गया| अब तो बोलती ही बंद | इतना अटकी ..इतना अटकी...कि क्या बताऊँ ..! बड़ी तन्मयता से किताब को घूर रही थी बस, खोपड़ी पर डंडा जब बरसा तब तन्मयता टूटी अपनी| उनका डर इतना था कि चीख हलकी सी ही निकली, पर आँखों से आंसू, झरने सा बहा था मेरे |"
वनिता ने जैसे ही बोलना बंद किया कि बच्चे हँस लिए, "मम्मी आप इतनी कमजोर थी पढ़ने में, और हमें कहती है नम्बर हम कम लाते हैं!"
"अच्छा मम्मी, क्लास में कौन सी पोजीशन आती थी आपकी ?"
"अरे बच्चों, यह मत ही पूछो! कोई औसत दर्जे का छात्र....
बात काटते हुए तभी बच्चों के पापा तपाक से बोले- " और तुम्हारी मम्मी तो कक्षा में उन्नति करती थी |"
"मतलब ?" सीटू बोला
"मतलब कक्षोन्नति आती थी तुम्हारी मम्मी! जिसका मतलब निकालती थी कि इन्होंने कक्षा में उन्नति की है| जबकि मतलब था ग्रेसमार्क्स पाकर किसी तरह पास हो गयीं हैं उस कक्षा में |"
उनकी बात सुनकर पूरे माहौल में ठहाका गूँज गया| वनिता भी सर झुका हँसते हुए बोली- "तब के जमाने में 33% ले आकर पास हो जाना भी बड़ी बात होती थी!"
"हाँ, किन्तु ..!
"कक्षोन्नति तो अंग्रेजी, हिन्दी के कारण आती थी मैं।" ..सविता मिश्रा 

Friday 5 September 2014

ओहदा

इस चित्र पर नया लेखन ग्रुप में
"तू मुझसे चार साल छोटा था, कितनी बार तुझे डांटा-मारा मैंने | यहाँ तक की बोलना बंद कर देता था, जब तू कोई गलती करता था| फिर भी तू मुझसे हर पल चिपक माफ़ी मांगता रहता| आज मेरी एक छोटी सी बात का तू इतना बुरा मान गया कि परिवार सहित चल दिया|"

"मैं तुझे स्टेशन तक मनाने आया पर तू न माना, तेरे दिल में तो तेरी पत्नी-बच्चों का ओहदा मुझसे अधिक हो गया रे छोटे|"
थोड़ा सांस लेते हुए रुके फिर बोले - "अरे तेरी पोती क्या मेरी ना थी| उसे मैंने जो कहा उसकी भलाई के लिए ही तो कहा न|"

"मैंने शादी नहीं की| सारा प्यार-दुलार तुम पर,अपने बच्चों, फिर नाती-पोतो में ही तो बांटा न मैंने| तो क्या मुझे इतना भी हक ना था|" छाती सहलाने लगे जैसे प्राण बस निकल ही रहे थे उसे सहेज रहे हो थोड़ी देर को|

"जा छोटे जहाँ भी रह सुखी रह| तुझे मुझसे बिछड़ने का दुःख भले ना हो, पर मैं अपने इन निरछल आंसुओ का क्या करूँ जो रुकतें ही नहीं हैं |"
"एक ना एक दिन तू इन आंसुओ की कीमत को समझेगा पर तब तक ......| हो सके तो मेरे अर्थी को कन्धा देने जरुर आना छोटे...मेरे ऋण से मुक्त हो जायेगा|"

चिठ्ठी पढ़ते ही वर्मा जी फफकते हुए रो पड़े| सुबकते हुए बोले भैया आप सही थे गलती मेरी ही थी| मैं बहू के बहकावे में आ गया| आपकी बात सुन लेता तो आपकी पोती को लिव-इन-रिलेशनशिप के दर्द से बचा पाता| उसके बहके कदम वापस तब आए जब पाँव में छाले हो गए |"  सविता मिश्रा

Thursday 4 September 2014

दो जून की रोटी

माँ 
किसनी के आँखों में हमेशा ही पानी भरा रहता था, जो रह-रहकर छलक जाता था | क्योंकि अपने सालभर के बच्चे के पेट की आग बुझाने के लिए उसके पास फूटी कौड़ी भी नहीं थी | उस दिन वह भूख से बिलबिलाते गिल्लू को डांट रही थी | पड़ोस की दो औरतें रोना-चिल्लाना सुनकर दरवाजे तक आ पहुँची थी |
“किसनी ! वो क्या पिएगा | तेरे आँचल का दूध तो अब उसके लिए ऊँट मुँह में जीरा-सा है |” सुनकर किसनी बोली कुछ नहीं बस आँसू बहाती रही |
“देख ! हाथ-पैर मारता हुआ फिर भी छाती से चिपका इसकी ठठरी को चूसे जा रहा है |” यह कहते हुए दूसरी पड़ोसन ने पहली पड़ोसन की बात का पुरजोर समर्थन किया|
“परसों किसी शराबी के साथ गयी थी | उसने कुछ दिया नहीं तुझे ?” दूसरी पड़ोसन ने दरवाजे से ही दहाड़ लगाई |
“जो दिया, उससे कहाँ पूरी हो रही है, दो जून की रोटी की कमी |” किसनी की मरी-सी आवाज़ उन दोनों के कानों से टकराई|
“हाँ ! बिकने वाली हर चीज सस्ती जो आँकी जाती है | औरत की मज़बूरी को सब साले तड़ लेते हैं न |” पहली पड़ोसन ने घृणापूर्वक जमीन में थूंकते हुए कहा |
मजमून भांपते ही उधर से गुजरता एक दलाल ठहर गया | वह तो ऐसी मजबूर गरीब माँ की ताक में ही उस गली के चक्कर महीने, दो महीने में लगा लेता था | देहरी पर आकर बोला - "किसनी! क्यों न अमीर परिवार के हवाले कर दे तू इसको ? वहां खूब आराम से रहेगा | दो लोग हैं मेरी नज़र में, जो बच्चे की तलाश में हैं | तू कहे तो बात करूँ?"
“मेरा यही सहारा है, ये चला जायेगा तो मर ही जाऊँगी मैं तो |” ममता में तड़पकर किसनी ने सीने से चिपका लिया गुल्लू को !
दलाल के द्वारा खूब समझाने पर गुल्लू के भविष्य के खातिर आख़िरकार किसनी राजी हो गयी | पड़ोसनों के उकसाने पर शर्त भी रखी कि उस घर में वो लोग नौकरानी ही सही उसे जगह देंगे तब |
दलाल की कृपा से आज किसनी को भर पेट भोजन मिलने लगा था, तो छाती में दूध भी उतरने लगा | परन्तु अब गुल्लू को छाती से लगाने के लिए तरस जाती थी किसनी | गुल्लू कभी दूध की बोतल, कभी खिलौने लिए अपनी नयी माँ की गोद से ही चिपका रहता था|
“तेरे उजले भविष्य के खातिर ये भी सही, माँ हूँ न |” कहकर आँखों से बहती अविरल धारा को किसनी ने रोक लिया |
--00--

http://www.rachanakar.org/2014/11/blog-post_294.html रचनाकार वेब पत्रिका में छपी हुई |

4 September 2014 नया लेखन ग्रुपमें लिखी हुई |
थोड़े चेंज के साथ



Wednesday 3 September 2014

मन का चोर

रविवार की अलसाई सुबह थी, सब चाय ही पी रहे थे कि फोन घनघना उठा। खबर सुनकर सभी सकते में आ गये बड़े ताऊजी का जवान पोता दीपक (भतीजा) दो दिन के बुखार में चल बसा। अंतिम संस्कार तक गाँव पहुँचना मुश्किल था इसलिये बड़े भैया ने उठावने में शामिल होने का निश्चय किया |
दोपहर हो गई थी | शीला भूख से बिलखते अपने बेटे के लिए मैगी बनाने जा ही रही थी कि जेठानी ने टोका, "अरे जानती नहीं हो ! ऐसी खबर सुनकर उस दिन घर में चूल्हा नहीं जलता है | उसे दूध दे दो |"
शीला बेटे को गोद में बैठाकर दूध पिलाने लगी |
"अच्छा सुनो शीला, मैं तुम्हारे जेठ जी के साथ जरा यमुना किनारे जा रही हूँ | वहाँ कुछ शांति मिलेगी, मन बेचैन हो उठा है यह सुनकर |"
शाम ढल चुकी थी | शीला का पति भतीजे के साथ बिताए बचपन की बातें सुना सुनाकर भावुक हुआ जा रहा था | तभी जेठ और जेठानी के खिलखिलाने की आवाज, बाहर के गेट से खनखनाती हुई अंदर कमरे में आकर शीला के कान में चुभी |
कमरे में आते ही उदासी ओढ़कर जेठानी ने आम पकड़ाते हुए कहा, "लो शीला ! बड़ी मुश्किल से मिला, सबको काट कर दे दो |"
शीला कभी अपने सो गए भूखे बच्चे को देखती तो कभी घड़ी की ओर |
"अरे जानती हो शीला, यमुना के किनारे बैठे-बैठे समय का पता ही न चला |"
"हाँ दी ! क्यों पता चलेगा! दुखों का पहाड़ जो टूट पड़ा है!" शीला ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा |
"तुम्हारे जेठ की चलती तो अभी भी ना आते | कितनी शांति मिल रही थी वहां | मैंने ही कहा कि चलो सब इन्तजार कर रहे होंगे..|"
"दीदी, साड़ी पर चटनी का दाग लगा हुआ है |"
सुनते ही चेहरा फ़क्क पड़ गया | बोलीं - "इस बंटी ने लगा गिरा दिया होगा | फ्रीज से चटनी निकालकर चाट रहा था बदमाश |"
"परन्तु दीदी, चटनी तो कल ही ..! "
"तू कुछ खाई कि नहीं ! आ, ले आ आम काट दूँ, तुम सब लोग खा लो | मुझे तो ऐसे में भूख ही नहीं लग रही |"

सविता मिश्रा 'अक्षजा', आगरा
--००--
'दिखावा' या फिर नया लेखन के 'यमुना किनारा' का सुधरा रूप है यह

माँ, माँ होती है --



मेरा रोम-रोम करे व्यक्त आभार

माँ का कोई दूजा नहीं है आधार ।

माँ आखिर माँ होती है
हमारे लिए ही जागती 
हमारे लिए ही सोती है 
कलेजे के टुकड़े को अपने
लगा के सीने से रखती है
आफत आये कोई हम पर तो 
स्वयं ढाल बन खड़ी होती है ।

आँखे नम हुई नहीं कि हमारी
झरने आँसुओ के लगती है बहाने
होती तकलीफ गर हम को तो
माँ बदहवास सी हो जाती है।

पिटना दूर की बात है
कोई छू भी दे तो
उसके सीने पर ही 
चलती जैसे कुल्हाड़ी 
चोट हमको आये तो
कमजोर माँ भी दहाड़ देती है ।

हर एक गलती पर अक्सर वह
फेर देती हाथ प्यार से सर पर हमारे 
समझाती दुलार कर, डांटती भी है
भला हो हमारा जिसमें
काम हर वहीं करती है
आँचल में छुपा हमको सो जाती है
ज्यादा प्यार में भी माँ रो जाती है ।

दिए जख्म दुनिया के हृदय में छुपा
हमें उस ताप से सदा दूर रखती है 
बुरी नजर से बचा कर चलती है
आँखों से ओझल कभी नहीं करती है ।

मेरे बार बार करवटें लेने से भी
वह परेशान होती है
गुस्सा होने पर भी वह
हाथ पैरों में आके तेल मलती है ।

किन शब्दों में करूँ मैं बखान उसका
ब्रह्माण्ड में सानी नहीं है जिसका.....।।
सविता मिश्रा 'अक्षजा'

बधाई


कितनी अजीब बात हैं हम अपनी एक छोटी सी सुई भी संभाल कर रखतें हैं और दूजों के घर को ख़ाक करने से भी नहीं हिचकतें ...वाह री दुनिया वाले कब समझोंगें आप सब दूसरों का दर्द .....खैर भगवान गणेश आप सभी के परिवार में सुख समृधि के साथ पधारे एवं आप सभी की मनोकामनाये पूर्ण करे और थोड़ी सी बुद्दी भी दे जैसे आप दूजों का नुकसान करने से पहले हजार बार सोचें आखिर बुद्धि के देवता हैं|सविता मिश्रा