Wednesday 3 September 2014

मन का चोर

रविवार की अलसाई सुबह थी, सब चाय ही पी रहे थे कि फोन घनघना उठा। खबर सुनकर सभी सकते में आ गये बड़े ताऊजी का जवान पोता दीपक (भतीजा) दो दिन के बुखार में चल बसा। अंतिम संस्कार तक गाँव पहुँचना मुश्किल था इसलिये बड़े भैया ने उठावने में शामिल होने का निश्चय किया |
दोपहर हो गई थी | शीला भूख से बिलखते अपने बेटे के लिए मैगी बनाने जा ही रही थी कि जेठानी ने टोका, "अरे जानती नहीं हो ! ऐसी खबर सुनकर उस दिन घर में चूल्हा नहीं जलता है | उसे दूध दे दो |"
शीला बेटे को गोद में बैठाकर दूध पिलाने लगी |
"अच्छा सुनो शीला, मैं तुम्हारे जेठ जी के साथ जरा यमुना किनारे जा रही हूँ | वहाँ कुछ शांति मिलेगी, मन बेचैन हो उठा है यह सुनकर |"
शाम ढल चुकी थी | शीला का पति भतीजे के साथ बिताए बचपन की बातें सुना सुनाकर भावुक हुआ जा रहा था | तभी जेठ और जेठानी के खिलखिलाने की आवाज, बाहर के गेट से खनखनाती हुई अंदर कमरे में आकर शीला के कान में चुभी |
कमरे में आते ही उदासी ओढ़कर जेठानी ने आम पकड़ाते हुए कहा, "लो शीला ! बड़ी मुश्किल से मिला, सबको काट कर दे दो |"
शीला कभी अपने सो गए भूखे बच्चे को देखती तो कभी घड़ी की ओर |
"अरे जानती हो शीला, यमुना के किनारे बैठे-बैठे समय का पता ही न चला |"
"हाँ दी ! क्यों पता चलेगा! दुखों का पहाड़ जो टूट पड़ा है!" शीला ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा |
"तुम्हारे जेठ की चलती तो अभी भी ना आते | कितनी शांति मिल रही थी वहां | मैंने ही कहा कि चलो सब इन्तजार कर रहे होंगे..|"
"दीदी, साड़ी पर चटनी का दाग लगा हुआ है |"
सुनते ही चेहरा फ़क्क पड़ गया | बोलीं - "इस बंटी ने लगा गिरा दिया होगा | फ्रीज से चटनी निकालकर चाट रहा था बदमाश |"
"परन्तु दीदी, चटनी तो कल ही ..! "
"तू कुछ खाई कि नहीं ! आ, ले आ आम काट दूँ, तुम सब लोग खा लो | मुझे तो ऐसे में भूख ही नहीं लग रही |"

सविता मिश्रा 'अक्षजा', आगरा
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'दिखावा' या फिर नया लेखन के 'यमुना किनारा' का सुधरा रूप है यह

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