Saturday 18 October 2014

(जोड़ -घटाना) "परिवर्तन"

"मम्मी! ऑन लाइन आर्डर कर दूँगाया चलिए मॉल से दिला दूँगावह भी बहुत खूबसूरत- बढ़िया दीये। चलिए यहां से। इन गँवारों की भाषा समझ नहीं आतीऊपर से रिरियाते हुए पीछे ही पड़ जाते हैं। बात करने की तमीज भी नहीं है इन लोगों में।"
मम्मी उस दुकान से आगे फुटपाथ पर बैठी एक बुढ़िया की ओर बढ़ी। उसके दीये खरीदने कोजमीन में बैठकर ही चुनने लगीं।
देखते ही झुंझलाकर संदीप बोला- "क्या मम्मीआपने तो मेरी बेइज्ज़ती करा दी। मैं 'हाईकोर्ट का जजऔर मेरी माँ जमींन पर बैठी दीये खरीद रही है। जानती हो कैसे-कैसे बोल बोलेंगे लोग .. जज साहब ..."
बीच में ही माँ आहत होकर बोलीं - "इसी ज़मीन में बैठ ही दस साल तक सब्ज़ी बेची हैकई तेरी जैसों की मम्मियों ने ही ख़रीदी है मुझसे सब्जीतब जाके आज तू बोल पा रहा है।"
संदीप विस्फारित आंखों से माँ को बस देखता रह गया।
मम्मी उसे घूरती हुई आगे बोली-
"वह दिन तू भले भूल गया बेटापर मैं कैसे भुलूँ भला। तेरे मॉल से या ऑनलाइन दीये तो मिल जायेंगे बेटापर दिल कैसे मिलेंगे भला?" 
--००
18 October 2014 को लिखी सविता मिश्रा 'अक्षजा'

2 comments:

विभा रानी श्रीवास्तव said...

एक सुंदर संदेश .... सार्थक लेखन

दिगम्बर नासवा said...

मन को गहरे तक छूती है ये कहानी ...
सच सच में कैसा होता है ....
दिवाली की हार्दिक बधाई आपको सपरिवार ....