Sunday 23 November 2014

मोह- (बदलाव )

ढाबे पर काम करते हुए बंटी को आज पांच साल हो गये थे | कुछ महीनों से बंटी का व्यवहार बदलने लगा था | जब तब मालिक उसे डांट देता था, "क्या लड़कियों की तरह शर्माता है | जल्दी-जल्दी काम निपटा |"
बंटी था कि अब ट्रक-ड्राइवरो से आर्डर लेने से बचने लगा था | जब भी किसी नशेबाज को खाने की टेबल पर देखता था वह सहम जाता था | उनकी आवाज अनसुनी करता हुआ वह चिंटू को उनके पास जाने की मिन्नते करता |
मालिक को अब शक होने लगा कि कहीं बंटी भाग न जाये, तो वह बंटी पर नज़र रखने लगा | एक दिन अचानक उसकी नजर नहाते हुए बंटी पर पड़ गयी | देखकर वह दंग रह गया |
पास बुलाकर उसकी पगार दें उसे वहां से अपने घर जाने को कहने लगा - "अच्छा-खासा मेरा ढ़ाबा चल रहा है, तुम्हारे कारण मुझे पुलिस का कोई लफड़ा नहीं चाहिए |"
बंटी रोते हुए बोला- "साब! मुझे मत निकालो, मेरे बाबा, दीदी की तरह मुझे भी बेच देंगे | मुझे अपने घर में नौकरी पर रख लो...., बचपन से आपके यहाँ काम किया है | आप जानते हो मैं कामचोर नहीं हूँ, और ईमानदार भी हूँ |"
"अच्छा ठीक है, देखता हूँ |" कहने पर ही बंटी के आँसू रुके |
अपनी पत्नी का मायूस चेहरा और कभी-कभी रोने से सूजी हुई उसकी आँखें | पापा सुनने को तरसते उसके कान | बीस साल से बीतती वीरान जिन्दगी में उसे बंटी की वो पांच वर्ष पुरानी खिलखिलाहट, मासूम अदाए याद आयीं जिससे उसके चेहरे पर चमक आ जाती थी | अचानक उसके ओंठ फड़फड़ाये- "स्नेहा !"
"स्नेहा! यह नया नाम सुनकर बंटी अब भरसक मुस्कराने की कोशिश में लग गया |
मालिक घर पर फोन लगाकर अपनी जोरू से बोला - "सुनो ! आज रात के खाने में खीर बनाना | आज से तुझे कोई बांझ नहीं बोलेगा | अब सब तुम्हें स्नेहा की अम्मा कहकर पुकारेंगे |"
स्नेहा अभी ठीक से मुस्करा भी नहीं पायी थी कि उसके आँखों से आँसुओ की निर्झरिणी फिर से बह निकली | --००---- सविता मिश्रा 'अक्षजा'

1 comment:

दिगम्बर नासवा said...

उफ़ ... सच कितना कडुवा होता है समाज का ...