Thursday 5 February 2015

तमाचा ( लघु कथा )

निष्ठा अपने घर के बरामदे में सहेलियों के संग बैठी थी | जब कभी मंजू तीन चार सहेलियों के साथ होती तो किसी न किसी मुद्दे पर चर्चा गरमा ही जाती थी | लेकिन जल्दी ही हँसी-ठिठोली पर आकर समाप्त हो जाती थी | आज चाय की गर्मागर्म चुस्कियों के साथ ईमानदारी पर बातचीत हो रही थी। अचानक यह बातचीत एक दूसरे पर कटाक्ष में बदलने लगी | मेरा पति ईमानदार तेरा बेईमान साबित करने की मंशा थी जैसे | गर्व पूर्वक स्नेहा ने जैसे ही बोला, "मेरे पति तो बहुत ईमानदार है |" "पति तो मेरा ईमानदार है | वह सब की तरह पद का दुरूपयोग कभी नहीं करता |" कनखियों से स्नेहा की तरफ देखकर व्यंग्यात्मक आवाज में मंजू बोली| स्नेहा को समझते देर नहीं लगी | वह रोष भरी आवाज में बोली , " छोड़ो यार पद का कितना सदुरूपयोग करते हैं यह तो तेरा महल जैसा घर ही चीख--चीखकर गवाही दे देता है। मानो या नहीं मानो ईमानदार तो मेरे ही पति है! " यह सुनते ही निष्ठां ने झट चुटकी ली,, "छोड़ स्नेहा यार ! मलाईदार पद और ईमानदारी!! स्नेहा तुनकती हुई बोली -"तुम्हारे 'वो' की तरह मेरे 'ये' पद का फायदा उठाकर मलाई ही नहीं चाटते रहते है। आठ घंटे कड़ी मशक्कत करते है समझी |" देखो भई ईमानदार तो मेरे पति है! जिस कुर्सी पर है , उस कुर्सी को पाने के लिए खाने वालों की लाइन लगी रहती है| ऐसी कुर्सी पर होकर भी क्या मजाल कि एक पैसे की बेईमानी करें| निष्ठा चाय की चुस्की लेती हुई रोष में बोली | 'मेमसाब', 'साहब' ने ये कम्बल भेजवाये हैं | कहाँ रख दूँ ?" तभी अर्दली की आवाज आई। "क्या जरूरत थी इनकी ?" पास जाकर निष्ठा उसी रोष में बोली। अर्दली सकपकाकर बोला- "कोई जाड़े में बांटने के लिए चार बंडल दे गया था, 'साहब' ने कहा इन बंडलो से दस- बारह निकालकर घर पर रख आओ|" "एसी, टीवी कोई भेजवाता तो ....,!!" रामू को आवाज लगाकर कहा , " रामू इन कम्बलों को ससुरजी वाली अलमारी में रख दो |" फिर बरामदे में पहुँचकर सहेलियों को सुनाती हुई बोली - टीवी खरीदनी मुझे | आजकल मेरे कमरे का टीवी खराब हुआ पड़ा है। कहाँ कितना भ्र्ष्टाचार फैला हुआ है, कोई खबर ही न मिल पा रही है।" कुर्सी पर बैठी ही कि मंजू उठती हुई बोली - "मैं चलती हूँ अब निष्ठा, मेरा भी टीवी ख़राब है, किन्तु भ्र्ष्टाचार की खबरें मिल ही जाती हैं |" खीझते हुए स्नेहा भी उठकर बिच्छू का डंक मार दी। सुनते ही निष्ठा को अपनी कुर्सी चुभने सी लगी | दोनों की बातों का जबाब नहीं बन पड़ रहा था उससे| लेकिन फिर भी ओंठ बुदबुदा उठे - "इस अर्दली के बच्चे को अभी आना था |" #सविता मिश्रा

1 comment:

दिगम्बर नासवा said...

अच्छी लघुकहानी ... बहुत आम हो गया है ये सब आज ...