Sunday 22 November 2015

जीत - लघुकथा

कपड़े पहनने के ढंग को लेकर फिर से पत्नी से मनोज की कहासुनी हुई | कभी कपड़े, कभी खाना और कभी पार्टी में जाने को लेकर लड़ाई हो ही जाती थी | रोज की चिकचिक से तंग आ गया था | झगड़ते हुए दिमाग का संतुलन बिगड़ा तो आज मनोज निकल पड़ा घर से | जब दिमाग़ जागा तो रेल की पटरियों के पास खुद को पाया |
'तुम जैसे गँवार से शादी करके फंस गयी मैं |' पत्नी द्वारा कहें कुत्सिक वचन बेचैन मन में मंथन कर रहे थे | वहीं खड़ा हुआ सोचने लगा 'ट्रेन आते ही कूद पडूँगा उसके सामने !'
कितना मना किया था माँ ने कि पूरब और पश्चिम का मिलन ठीक नहीं हैं | पर वह प्रेम में अँधा था | उसने सोचा था कि थोड़ा वह गाँव से जुड़ेंगी और थोड़ा मैं उसकी तरह मार्डन हो जाऊँगा | परन्तु दो साल में दोनों में कोई तालमेल नहीं बैठ पाया था |
"तृप्ति तो मेरे रंग में रत्ती भर भी न रंगी और मैं, मैं हूँ कि घर-बार, माँ-बाप, सब कुछ छोड़ दिया उसके लिए | हर समय उसके साथ खड़ा रहा पर वह ....|"
मन को स्वयं के ही शब्दों के तीर चुभो रहा था कि इसी बीच दनदनाती हुई एक ट्रेन बगल की पटरियों से गुजर गई |
जीवन से तंगहाल और आत्मग्लानी में भय बहुत दूर हो गया था उससे |धड़धड़ाती हुई ट्रेन बिलकुल नजदीक से उसके कपड़े और बालों को उड़ाती हुई चली गयी |
मन-मंथन अब भी चल ही रहा था 'हाँ' या 'न' | क्या सुन्दरता, शहरीपन और पद गृहस्थी के दोनों पहियों के तालमेल में सच में बाधक हैं ! क्या मेरी अनपढ़ माँ सच कहती थी | शायद सही ही कहती थी माँ | आखिर साईकिल का पहिया कार के पहिए के साथ कैसे चल सकता है |
दूसरी ट्रेन का इंतज़ार करता हुआ वह वही पटरी पर बैठ गया ! तभी उसने ध्यान से देखा वो जिस दो पटरियों के मिलने वाले पाट पर बैठा था, वहीं से दो पटरी निकल, अलग-अलग हो, ट्रेनों के चलने का माध्यम बन रही थीं | फिर अपनी दूरी बनाते हुए दूर कहीं मिलती हुई-सी दिख रही थीं |
अब उसका दिमाग पूरी तरह जाग चुका था | तृप्ति से तालमेल बैठाने का एक नया फार्मूला उसे प्राप्त हो चुका था | वह झटके से उठा और दुकान से फूलों का गुलदस्ता लेकर सधे कदमों से घर की ओर चल पड़ा |
21 November 2015

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