Saturday 7 November 2015

परछाई -

सड़क किनारे एक कोने में, छोटे से बच्चे को दीपक बेचते देख रमेश ठिठका |
उसके रुकते ही पॉलीथिन के नीचे किताब दबाते हुए बच्चा बोला - "अंकल कित्ते दे दूँ?"
"दीपक तो बड़े सुन्दर हैं | बिल्कुल तुम्हारी तरह | सारे ले लूँ तो ?"
"सारे ! लोग तो एक दर्जन भी नहीं ले रहें | महंगा कहकर, सामने वाली दूकान से चायनीज लड़ियाँ और लाइटें खरीदने चले जाते हैं | झिलमिल करती वो लड़ियाँ, दीपक की जगह ले सकती हैं क्या भला !"
उसकी बातें सुन, उसमें अपना अतीत पाकर, रमेश मुस्करा पड़ा |
"बेटा ! सारे दीपक गाड़ी में रख दोंगे?"
"क्यों नहीं अंकल !" मन में लड्डू फूट पड़ा | पांच सौ की दो नोट पाकर सोचने लगा, 'आज दादी खुश हो जाएगी | उसकी दवा के साथ-साथ मैं एक छड़ी भी खरीदूँगा | चलने में दादी को कितनी परेशानी होती है बिना छड़ी के |'
"क्या सोच रहा है, कम हैं ?"
"नहीं अंकल ! इतने में तो मैं सारे सपने पूरे कर लूँगा।
कहकर वह अपना सामान समेटने लगा। अचानक गाड़ी की तरफ पलटा फिर थोड़ा अचरज से पूछा - "अंकल, लोग मुझपर दया दिखाते तो हैं, पर दीपक नहीं लेते हैं | आप सारे ही ले लिए !" कहते हुए प्रश्नवाचक दृष्टि टिका दी ड्राइविंग सीट पे बैठे रमेश पर।
रमेश मुस्करा कर बोला-
"हाँ बेटा, क्योंकि तुम्हारी ही जगह, कभी मैं था |"
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सविता मिश्रा 'अक्षजा'
Savita Mishra

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