Tuesday 18 October 2016

रीढ़ की हड्डी

बेहोशी से उबरी बीनू ने देखा कि बच्चे सब्जी-रोटी खा रहे हैं।
उसे संतोष हुआ कि बच्चे उसकी बीमारी की वजह से कम से कम भूखे नहीं रह रहे। खाना खत्म करके वे जैसे ही उसके पास बैठे, वह पूछ बैठी- "पिंकी, खाना किसने बनाया? पड़ोस वाली आंटी ने?"
"नहीं, पापा ने बनाया।"
"पापा ने!"
"हाँ, पापा ने! सुबह उन्होंने नाश्ता भी बनाया था! फिर बर्तन धोए। झाड़ू-पोंछा भी किया आपकी तरह। और दोपहर में दाल-चावल भी बनाये थे पापा ने।"
"तुम दोनों ने मदद न की पापा की?"
"नहीं, पापा ने कहा आज मैं करता हूँ। तुम दोनों हस्पताल में रहो, अपनी मम्मी के साथ।"
"कहाँ है तेरे पापा?"
"डॉक्टर ने आपकी दवा लाने के लिए भेजा है।" पिंकी ने बताया।
तभी, दरवाजे पर पापा को देखते ही टिंकू बोला- "लो, आ गए पापा।"
"बीनू उठो, दवा खा लो। टिंकू एक गिलास पानी दे बेटा।" निकट आकर पति ने कहा।
"आप ! परन्तु आप कैसे आ गये? छुट्टी मिल गयी क्या?" सवालों की बौछार लगा दी उसने।
"हाँ, मिल गयी। पूरे पन्द्रह दिन अब मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगा।"
"इत्ते दिन!"
"हाँ..!"
"मुझे तो समझ ही न आ रहा था कि कैसे होगा...ये बीमारी भी अचानक। कोई रिश्तेदार भी तो नहीं जो महीना- पन्द्रह दिन आ जाए...।"
"चिंता न कर बीनू, सब हो जायेगा, मैं हूँ न!"
"इतनी बार परेशानी आई। हास्पिटल के चक्कर अकेली ही लगाती रही थी। इस बार कैसे आपके अफ़सर की मेहरबानी हो गई?"

"पुलिस अधिकारी भी जानते है कि बच्चों पर कोई समस्या आएगी तो बीवी झेल लेगी, परन्तु बीवी ही बीमार हो जाएगी तो फिर कौन संभालेगा। इसलिए फटाफट सेंक्शन कर दी छुट्टी।"
"यानि रीढ़ की हड्डी हूँ मैं आपकी।"
"हाँ, वो तो हो ही बीनू। बिना किसी शिकायत के अकेली ही सब- कुछ सम्भालती रही हो।"
"पर पन्द्रह दिन तो आप हो, हमारी रीढ़ की हड्डी|" कहते हुए मुस्करा दी बीनू।
"हाँ भई, अभी तक सरकारी नौकर था, पन्द्रह दिन 'नौकर बीवी का' हूँ। दोनों ही खिलखिला पड़े।
-0-
सविता मिश्रा 'अक्षजा'

प्रदत्त विषयाधारित लघुकथा: (पति का एक दिन) नया लेखन ग्रुप में लिखी १८/२०१६ में |
'सपने बुनते हुए' साझा संग्रह में प्रकाशित जुलाई २०१७ में 

1 comment:

Unknown said...

Bahut sundar