Sunday 13 November 2016

कीमत-(लघुकथा)


"माँ कैसे लाऊँ तेरे लिए पैरासिटामॉल! पांच सौ, हजार की नोट बंद हो गयीं, वही पर्स में है |"
"रहने दे बेटा परेशान न हो, मैं ठीक हो जाऊंगी।"
"आज सुबह ही शनिवार  के कारण  मंदिर के भिखारियों में रेज़गारी सारी बाँट आया मैं।  क्या पता था शाम आठ बजते ही यह नोटबन्दी की दुदुम्भी बज जायेगी।
"सुनिए जी .."
"अब तू क्या आर्डर करेगी| देख नहीँ रही है परेशान हूँ !"
चिल्लाते ही झेंपता हुआ बुदबुदाया -- " छोटी नोट तो घर में रहने ही न दिए मैंने। चिल्लाता था कि भिखारियों की तरह क्या चिल्लर जमा करके रखती हो। अब मैं तुम पर क्यों खीझ रहा हूँ !"
"समाचार में तो सुना था कि हस्पताल और दवा वाले लेंगे यह नोट|" वह धीरे से बोली।
"पर ले तो नहीं रहें हैं न ! वह इस बन्दी का फायदा उठाकर अपना ब्लैकमनी ठिकाने लगाएंगे या हमारा दर्द समझकर हमारी सहायता करेंगे। सबकी लंका जली पड़ी है इस समय।"
"अच्छा सुनिये!!"
"अब क्या? ढूढ़ने देगी दस बीस रुपये कि नहीं!"
"वहीँ दे रही हूँ! लीजिए।"
"कहाँ से मिला! मैं तो कब से खोज रहा हूँ। पर यह पॉलीथिन में क्यों रख के दे रही है ! ऐसा लग रहा है सौ  रुपये नहीं बल्कि हजारों पकड़ा रही है !"
"इस जरूरत में तो यह हजारों से भी ज्यादा है। पॉलीथिन में इस लिए दे रहीं हूँ क्योंकि फटा हुआ है।"

यदि जेब में और फट गया तो यह भी हज़ार की नोट की तरह दो कौड़ी का हो जायेगा।"
"हाँ सही कह रही हजार की नोट से भरे हुए इस बटुए पर आज यह फटा हुआ सौ का नोट भी भारी है|" 
"मैं माँ के माथे पर ठंडी पट्टी रखती हूं। आप जाइये जल्दी से दवा लाइए। कल सब्जी के लिए भी तो पैसे चाहिए !"
"हाँ, जाता हूँ! पांच रुपये की दवा आएगी और जो बचेंगे उनसे सन्डे तक काम चल जायेगा।"
"बड़ी नोट रखने का ख़ामियाजा तो भुगतना ही पड़ेगा कल तक।"
"गूंगी भी बोलने लगी।  सोमवार की सुबह ही इन सारी नोटों को छोटी करा लाऊँगा।"
सविता

'प्रतियोगिता के लिए' चित्र पर आधारित

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