Wednesday 9 November 2016

खोटा खज़ाना-

"पाँच सौ और हजार की नोटें बंद हो गयीं माँ, दो दिन बाद ही बैंक खुलेगा | तब इन्हें बदलवा पाऊँगा।" फोन पर बेटे से यह सुनते ही दीप्ती का चेहरा पीला पड़ गया |

वह बदहवास सी अलमारी की सारी साड़ियाँ निकालकर पलंग पर फेंकने लगी | पुरानी रखी साड़ी की तहों में से कई हरी-लाल नोट मुस्करा रही थीं | नोट देखते ही दीप्ती का चेहरा मुरझाए फूल सा हो जाता था |

फिर अचानक कुछ याद आते ही रसोई में जा पहुँची | चावल-दाल के सारे ड्रम वह पलट डाली | चावल के ढ़ेर से झांकते कड़क नोट उसको मुँह चिढ़ा रहे थें। ड्रम और मसालों के डिब्बों से निकले नोट इक्कट्ठा करके फिर से कमरे में आ गयी | अलमारी में बिछे अख़बार के नीचे भी उसने नजर दौड़ाई | अखबार हल्का सा उठाते ही लम्बवत लेटे नोट खिल उठते | पूरा अखबार उठाते ही सारे बिछे नोट हौले से अखबार के साथ अठखेलियाँ करने लगे | जिन्हें कल तक देखकर वह ठंडक पाती थी आज उबल पड़ी | रसोई और अलमारी से सारे नोट इक्कट्ठे होते ही उसे आश्चर्य हुआ 'इतना रुपया था उसके पास'|
चार दिन पहले ही तो पतिदेव से यह कहकर पैसे मांगे थे कि पैसे नहीं हैं | दो तारीख हो गयी आपने महीने खर्च के पैसे नहीं दिए अभी | "अब क्या कहूँगी मैं उनसे?" बुदबुदाई दीप्ती |
"बिल्ली के जैसे दबे पाँव यह खेल खेला सरकार ने | इस भूचाल की आहट ही न होने दी | महीने दो महीने पहले थोड़ी भी सुगबुगाहट मिलती तो धनतेरस पर मैं हार नहीं गढ़वा लेती |" करारे-करारे नोट देख आंखे नम हो गयीं उसकी |
रूपये बारम्बार गिनती हुई पूरी रात दीप्ती अपनी बचत को छुपाने की आदत पर सिर धुनती रही |
सविता मिश्रा

No comments: