Monday 23 January 2017

आहट -


"बाबा उठो खाना खा लो |"
"अरे बिटिया तू कब आयी ?"
"हल्की सी आहट भी होती थी तो आप उठकर बैठ जाते थे| आज मैं कितनी देर से खटपट कर रही आप सोते रहें| दरवाज़ा भी खुला रख छोड़ा था| दो महीने की मजूरी बचाकर ये पट्टों वाला तो दरवाज़ा लगवाया था|"
"अरे बिटिया याद है, पर अब यह दरवाज़ा बंद करके भी क्या फायदा| और खुला रहने से तनिक धूप आ जाती है| मेरे जीवन की धूप तो तेरे संग ही चली गयी| अब यह धूप ही सही |"
"फिर भी बाबा बंद रखना चाहिए न, कोई जानवर घुस आये तो ?"
"अँधेरे में दम घुटता था बिटिया, देख तू आ गई तो पूरा कमरा जगमगा उठा|"
"क्यों बाबा, अब आपको डर नहीं लगता है क्या?"
"डर, किस बात का डर बिटिया| जब से तू विदा होकर गई है, डर भी चला गया| गरीब के पास अब क्या बचा है डरने के लिए| अब तो यह खुला दरवाज़ा भी मेरे संग तेरी राह देखता रहता है|"
"बाबा, यह दरवाज़ा फिर से अब बंद रखने का वक्त आ गया|" आँसू से आँखे डबडबा आयीं|
"क्या कह रही है बिटिया!!"
"सही कह रही हूँ बाबा!! आपने मेरे लिए तो दरवाजा खुला रख छोड़ा पर आपने यह न देखा कि आपके जवाई के दिल का दरवाज़ा मेरे लिए खुला है या बंद?"  सवालियाँ आँखे बाबा के पथराये चेहरे पर जम गई थीं| सविता मिश्रा

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