Friday 26 May 2017

बाज़ी

"वाह भई, क़लम के सिपाही भी मौजूद हैं," पीडब्‍ल्‍यूडी के चीफ़ इंजीनियर साहब ने पत्रकार पर चुटकी ली।
"काहे के सिपाही। क़लम तो आप सब के हाथ में है, जैसे चाहें घुमायें," पत्रकार सबकी तरफ़ देखता हुआ बोला।
"पर पत्रकार भाई, आजकल तो जलवा आपकी ही क़लम का है। आपकी क़लम चलते ही, सब घूम जाते हैं। फिर तो उन्हें ऊँच-नीच कुछ नहीं समझ आता है। आपकी क़लम का तोड़ खोजने के लिए जो बन पड़ता है, हम सब वो कर गुज़रते हैं," डाक्टर साहब व्यंग्य करते हुए बोल उठे।
"सही कह रहे हो आप सब। वैसे हम सब एक ही तालाब के मगरमच्‍छ हैं। एक-दूजे का ख़्याल रखें तो अच्छा होगा। वरना लोग लाठी-डंडे लेकर खोपड़ी फोड़ने पर आमदा हो जाते हैं," लेखपाल ने बात आगे बढ़ाई।
"पर ये ताक़तवर क़लम, हम तक नहीं पहुँच पाती है," ठहाका मारते हुए बैंक मैनेजर बोला।
"क्यों? आप कोई दूध के धुले तो हैं नहीं," गाँव का प्रधान बोला।
"अरे कौन मूर्ख कहता है हम दूध के धुले हैं। पर काम ऐसा है जल्दी किसी को समझ नहीं आता है हमरा खेल," फिर ज़ोर का ठहाका ऐसे भरा जैसे इसका दम्भ था उन्हें।
सारी नालियाँ जैसे बड़े परनाले से मिलती हैं, वैसे ही विधायक महोदय के आते ही, सब उनसे मिलने उनके नज़दीक जा पहुँचे।
"नेता जी मेरे कॉलेज को मान्यता दिलवा दीजिये, बड़ी मेहरबानी होगी आपकी," कॉलेज संचालक विनती करते हुए बोला।
"बिल्कुल, कल आ जाइये हमारे आवास पर। मिल बैठकर बात करतें हैं," विधायक जी बोले।
"क्यों ठेकेदार साहब, आप काहे छुप रहे हैं। अरे मियाँ, यह कैसा पुल बनवाया, चार दिन भी न टिक सका। इतनी कम क़ीमत में तो मैंने तुम्हारा टेंडर पास करवा दिया था, फिर भी तुमने तो कुछ ज़्यादा ही ...।"
"नेता जी आगे से ख़्याल रखूँगा। ग़लती हो गयी, माफ़ करियेगा," हाथ जोड़ते हुए ठेकेदार बोला।
विधायक जी ठेकेदार को छोड़, दूसरी तरफ मुख़ातिब हुए, "अरे एसएसपी साहब आप भी थोड़ा.., सुन रहें हैं सरेआम खेल खेल रहे हैं। आप हमारा ध्यान रखेंगे, तो ही तो हम आपका रख पाएँगे।" विधायक साहब कान के पास बोले।
"जी सर, पर इस दंगे की तलवार से, मेरा सिर कटने से बचा लीजिए। दामन पर दाग़ नहीं लगाना चाहता। आगे से मैं आपका पूरा ख़्याल रखूँगा," साथ में डीएम साहब भी हाथ जोड़ खड़े थे।
सुनकर नेता जी मुस्करा उठे।
सारे लोगों से मिलने के पश्चात उनके चेहरे की चमक बढ़ गई थी। दो साल पहले तक, जो अपनी छटी कक्षा में फेल होने का अफ़सोस करता था। आज अपने आगे-पीछे बड़े-बड़े पदासीन को हाथ बाँधे घूमते देख, गर्व से फूला नहीं समा रहा था।
तभी सभा कक्ष के दरवाज़े पर खड़ा हुआ एक नौजवान सबसे मुख़ातिब हुआ। उसने विनम्रता से कहा, "और मैं एक किसान परिवार का बेटा हूँ। जिसकी पढ़ाई करवाते-करवाते पिता कर्ज़े से दबकर आत्‍महत्‍या कर बैठे। परिवार का पेट भरने के लिए मुझे चपरासी की नौकरी करनी पड़ रही है। पर मुझे आज समझ आया कि मेरे पिता की आत्‍महत्‍या और मेरे परिवार को इस स्थिति में लाने में आप सबका हाथ है। आपका कच्‍चा चिठ्ठा अब मेरे पास है।"
बाज़ी पलट चुकी थी! विधायक से लेकर ठेकेदार तक, सब एक-दूसरे का मुँह ताक रहे थे।
सविता मिश्रा 'अक्षजा'

Friday 12 May 2017

सहयोगी

अपनी लाड़ली बिटिया की शादी निश्चित न हो पाने की वजह से परेशान सुमन अपने पति से कह उठी, "घर-वर खोजने में कितना परेशान हो रहे होन जाने लाड़ली का भाग्य कहाँ सोया है?" भाग्य अपनी प्रशंसा सुनकर गदगद हो गया।
 "वर खोजने के लिए शहर-शहर भटकना पड़ता है, पर तुम हो कि पंडितों की बातों में आ जाती थी।" पति ने शिकायती लहजे में पत्नी से बोला।
"
बात तो ठीक कह रहे होकिंतु उसका भाग्य..!
कोने में खड़ा कर्म पति-पत्नी के मुख से अपनी महिमा सुन ठठाकर हँस पड़ा।
"
अब देखो! वर खोजने निकला हूँ तो कहीं वर अच्छा मिलता है तो घर नहींघर अच्छा तो परिवार संस्कारी नहीं। बहुत भटकने के बाद एक अच्छा लड़का मिला हैपरिवार भी बहुत ही सुसंस्कारी है। लेकिन अपना घर नहीं है उनके पास। किराए के दो कमरे में सब एक साथ रहते हैं।
सुनकर भाग्य ने हेय दृष्टि कर्म पर डाली। कर्म नजरें झुकाए खड़ा था।
"
उसके भाग्य में यही लिखा है तो यही सही..! सुमन ने कहा सुनकर कर्म की निगाहें तिरछी हुई
 "
जितना बड़ा उनका एक कमरा हैउतना बड़ा तो मेरी बिटिया का स्टडीरुम है !" पति मायूस हो सुमन की आँखों में झांकता हुआ बोला।
पति के मुख से सारा वितांत सुन सुमन भी चिंतित होकर बोली "क्या अपनी लाडो वहाँ एडजस्ट कर लेगी ?”
पति-पत्नी की वार्ता सुनते ही लड़की के भाग्य की स्तिथि देखकर कर्म सीना तान फिर से मुस्कराने लगा।
"
मैं भी सोच रहा हूँकैसे रहेगी अपनी लाडो वहाँ! कहो तो मना कर दूँ?" पति सुमन की तरफ प्रश्नवाचक दृष्टी डालते हुए बोला।
यह सुनकर भाग्यकर्म की ओर देखकर कुटिल हँसी हँस पड़ा।
"
चिंता न करो 'जजमान', रह लेगी और ख़ुशी से रह लेगी।"  दरवाजे पर आकर पंडित जी ने गर्व से कहा।
"
पंडित जी! आप बड़े अच्छे मौके पर आए हैंआपको फोन करने ही वाले थे हम। कहाँ-कहाँ नहीं गया परन्तु बिटिया के लिए अच्छा-सा घर-वर नहीं मिल पा रहा है।" पंडित जी को प्रणाम करता हुआ पति बोला।
कर्म शांत था लेकिन भाग्य हँस रहा था।
"
अभी तक आप घर बैठे हर तरह से अच्छा रिश्ता मिल जाएऐसा चाह रहे थे। इसलिए विलम्ब हो रहा था! अब देखिए आप बाहर निकलेखोजे चारों तरफ तो अच्छा रिश्ता मिल ही गया न!"
 
पति-पत्नी की बातें सुनकर घर के कोने में जो भाग्य और कर्म आपस में ही तनातनी कर रहे थे वो चुप्पी साध अपने-अपने कानों को पंडित जी की ओर लगा दिए।
"
कहाँ पंडित जी! उनके पास तो रहने की जगह ही नहीं है!” दोनों पति-पत्नी एक स्वर में बोल पड़े।
"
बिटिया और इसका होने वाला पति दोनों कर्मशील प्राणी हैं। कुंडली के हिसाब से इसके भाग्य पर भरोसा रखिए आप! घर को बंगला बनते देर नहीं लगेगी। भाग्य कितना भी बढ़िया हो किन्तु बिना कर्म के अर्थहीन है और कर्म कितना भी किया जाय परन्तु भाग्य में हो ही नतो फिर कैसे मिलेगा कुछ?"
पंडित जी की बात सुनते ही भाग्य और कर्म दोनों आलिंगन बद्ध हो मुस्कराने लगे।
--००--यह हमारी मौलिक लघुकथा है  ..अक्षजा 

सविता मिश्रा 'अक्षजा'
आगरा,   
ब्लॉग - मन का गुबार एवं दिल की गहराइयों से |

इज्ज़त --

काकी, ओ काकी! कहाँ हो ? वाणी में शहद-सी मिठास घोल दरवाजे के बाहर से ही आवाज लगाती हुई विभा बोली |
अरे बिटिया ! आओ-आओ बईठो | बहुत साल बाद दिखी | इ तेरी बिटिया है न! कित्ती बड़ी हो गयी !"
हाँ काकी! दसवीं में पढ़ रही है |”
सुना ही होगा ! तेरे काका और भाई सड़क दुर्घटना में ...! मुझे तो बस एक ही चिंता खाय जा रही है कि सुंदर मेहरिया इस जमाने में अब कईसे जियेगी, मैं कब तक रहूंगी, आज गयी कि कल |" बहू की तरफ़ इशारा करके सुबकने लगी काकी |
काकी! क्या कहूँ इस दुःख की घड़ी में, सुनते ही मैं तो बस दौड़ी आई |
"
पहाड़-सी जिनगी कैसे कटेगी इसकी, वह भी इस दुधमुँँहें के साथ |
मैं कुछ कहूँ काकी ? बच्चे को देखकर उसकी बांछे खिल उठी | वह लपककर शिशु को गोद में उठा पुचकारने लगी |
"
हाँ, बोल बिटिया !"
"
बहू की शादी मेरे बेटे से करवा दो | मेरा बेटा अभी तक कुंवारा है, शायद किस्मत को यही मंजूर हो |" माहौल को भाप विभा शतरंज की विसात बिछा चुकी थी |
पर यह बच्चा ?
पर-वर छोड़ काकी ! मेरा बेटा, अपना लेगा इस बच्चे को भी |”
समाज का कहेगा ?
कोई कुछ न कहता काकी ! आपसे हमारा कोई बहुत नजदीकी रिश्ता तो है नहीं कि समाज बोलेगा | और समाज का क्या है, कुछ न कुछ बोलता ही है | और दूजी बातकौन-सा हम यहाँ रहते हैं ! कोई कुछ कहेगा भी तो कौन सुनने बैठा रहेगा यहाँ |
बहू से पूछ लूँ ?
हाँ काकी, समझा उसको |”
थोड़ी देर में ही काकी ने लौटकर अपनी सहमति की मोहर लगा दी | शतरंज जैसे खेल से अंजान काकी, विभा द्वारा पूरी तरह से घिर चुकी थी |
घर वापिस जाते हुऐ बेटी ने विभा से कहा – “मम्मी, ये क्या कर रही हैं आप ? एक तो वो वैसे ही दुखी हैं ऊपर से आप काँटों का ताज पहना रही हैं |
चुप कर मुई ! कोई सुन लेगा | समाज में इज्‍ज़त बनी रहें इसके लिए बहुत कुछ करना होता है | और फिर मैं तो उसे मर्द के नाम की छाँव दे रही हूँ | अब भले ही वह नामर्द है। उसकी भी  इज्‍ज़त ढकी रहेगी और अपनी भी | बेटी को डाँटते हुए विभा धीरे से बोली |
मम्मी! अगर भाभी की जगह मैं होतीतब भी आप क्‍या यही करतीं?
वह अवाक हो बेटी को बस देखती रह गई |
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सविता मिश्रा अक्षजा
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Thursday 11 May 2017

लघुकथा--तड़प-


"कुछ साल पहले तुमने मुझसे कहा था कि कुछ भी चित्रकारी करना परन्तु मासूमियत को अपने चित्रों में मरने मत देना | फिर यह सब क्या है सुरेखा ?" नाराजगी जताते हुए अख़बार डायनिंग टेबल पर पटक दिया|
"क्या तुम्हारे अंदर की वह तड़प मर गयी | क्या हमारे बच्चे न होने की वजह से तुम्हारा दिल पत्थर का हो गया ? कुछ बोलो तो सही !"
सुरेखा ने खौलती हुई चाय पर से नजरें उसकी ओर उठाई लेकिन मौन रही |

"चित्र भी बनाने से मना करने वाली मेरी सुरेखा मेरे सामने आज ये कैसा चित्र उपस्थित कर रही है ! दो नन्हें मासूम ठण्ड में सिकुड़े हुए एक दूजे से लिपटकर आसमान के नीचे रात गुजारे | उनका आशियाना तुमने क्यों टूटने दिया |"
चुप्पी अचानक टूटी - "तुम खामखाँ क्रोध कर रहे हो | इस चित्र के साथ अख़बार की भड़काऊ हेडिंग नहीं, बल्कि कुछ अंदर का भी पढ़ लो पहले |" चाय कप में निकालती हुई सुरेखा बोली | चाय की भाप और तल्ख भाषा से वातावारण में गर्माहट फैल गयी |
"ऐसी तस्वीर पेश करके अख़बार वाले दिखाकर हम पर कीचड़ नहीं उछाल सकते | इन्हें इतनी ही हमदर्दी थी तो अपने घर की छत क्यों नहीं मुहैया करवा दी | सरकारी जमीन पर गलत तरीके से अतिक्रमण कर रखा था | महीनों नहीं बल्कि सालों से आगाह किया गया था | दुसरे इन लोगों को पता नहीं था क्या कि जो कर रहें वह गलत है !" आँखे संजय से भी कुछ याद दिलाते हुए जैसे सवाल पूछ रही थीं |
"जब अतिक्रमण की एक ईट भी लगती है तो सम्बन्धित विभाग सोता रहता है क्या ?"
"देखता तो है, लेकिन भावनाएं जाग्रत रहती हैं | इस लिए चुप रहता है|"
"अब भावनाएं कैसे मर गयीं !"
"मरी नहीं, लेकिन अति होने से जाग्रत भी न रह पायीं | पहले टेंट, फिर मिट्टी, फिर सीमेंट के मकान बना लेतें लोग |"
" कमी तो तुम्हारे विभाग की भी थी न ! "
"हाँ थी, किन्तु हमारी कमी को अपनी ताकत कैसे समझ लेतें लोग |" तिरक्षी नजर डाली संजय पर|
संजय को उसकी आँखों में विद्रोह की चिंगारी साफ़ दिख रही थी |
पिता के दबाव में एक रिश्ते के लिए बस हामी भरने के अपराधबोध से उसकी नजरें नीची हों गयीं | उसने अख़बार उठाया और उसके चीथड़े-चीथड़े करके डस्टबिन में डाल आया | सविता मिश्रा 'अक्षजा'

स्वप्नगंधा साहित्यक मंच पर दिए गये एक चित्र पर लेखन (९/३/२०१७)

Wednesday 10 May 2017

जद्दोजहद-

"क्या हो गया था यार तुझे?" फोन उठाते ही सवाल दागा गया।
"क्या हुआ मुझे!" अचकचा गयी इस सवाल से।
"अब तू छुपा नहीं मुझसे ..! तेरा वीडियो वायरल हो गया है।"
"कुछ नहीं यार वह..!"
"अरे तू तो हममें सबसे तेज तर्रार थी। ऐसे ही तुझे झांसी की रानी बुलाते थे क्या हम सब!"
"यार ऐसे लोगों से पाला नहीं पड़ा था न अब तक..!"
बीच में ही बात काटते हुए फोन की आवाज कानों में लगी- " हाँ पता है ! तू कुछ तो सुना रही थी। पर रोई क्यों, क्या कमजोर पड़ गयी थी..?"
"नहीं , नहीं ! कमजोर नहीं पड़ी थी।"
"वीडियो में दिख रहा है कि जैसे ही सर तेरी ढ़ाल बने, तू उनके पीछे खड़ी हो रो पड़ी!"
"मैं उसे कानून की भाषा में अच्छे से समझा देती। तू तो जानती है न, मैं कमजोर नहीं हूँ। बस दीवार की आत्मियता से भावुक हो गयी थी।" लरजती आवाज में कहा।
"अच्छा ख्याल रखना अपना। और जो ट्रेनिंग नहीं दी गयी तब, अब वो भी सीखना समझना शुरू कर दे।"
"हाँ सही कह रही तू, यह तो शुरुआत है! पर क्या करती औरत हूँ न।"
"अब भीतर की औरत को मार डाल, मेरे साथ भी एक छोटी सी घटना हुई थी। मैंने उसी क्षण अपने अंदर की औरत को खत्म कर दिया।" आवाज जैसे ही कानों में पड़ी दिमाग ने सोचा और फोन रखते ही ओंठ बुदबुदा उठे "सच में औरत को मरना ही पड़ता है!" सविता मिश्रा