Friday 12 May 2017

इज्ज़त --

काकी, ओ काकी! कहाँ हो ? वाणी में शहद-सी मिठास घोल दरवाजे के बाहर से ही आवाज लगाती हुई विभा बोली |
अरे बिटिया ! आओ-आओ बईठो | बहुत साल बाद दिखी | इ तेरी बिटिया है न! कित्ती बड़ी हो गयी !"
हाँ काकी! दसवीं में पढ़ रही है |”
सुना ही होगा ! तेरे काका और भाई सड़क दुर्घटना में ...! मुझे तो बस एक ही चिंता खाय जा रही है कि सुंदर मेहरिया इस जमाने में अब कईसे जियेगी, मैं कब तक रहूंगी, आज गयी कि कल |" बहू की तरफ़ इशारा करके सुबकने लगी काकी |
काकी! क्या कहूँ इस दुःख की घड़ी में, सुनते ही मैं तो बस दौड़ी आई |
"
पहाड़-सी जिनगी कैसे कटेगी इसकी, वह भी इस दुधमुँँहें के साथ |
मैं कुछ कहूँ काकी ? बच्चे को देखकर उसकी बांछे खिल उठी | वह लपककर शिशु को गोद में उठा पुचकारने लगी |
"
हाँ, बोल बिटिया !"
"
बहू की शादी मेरे बेटे से करवा दो | मेरा बेटा अभी तक कुंवारा है, शायद किस्मत को यही मंजूर हो |" माहौल को भाप विभा शतरंज की विसात बिछा चुकी थी |
पर यह बच्चा ?
पर-वर छोड़ काकी ! मेरा बेटा, अपना लेगा इस बच्चे को भी |”
समाज का कहेगा ?
कोई कुछ न कहता काकी ! आपसे हमारा कोई बहुत नजदीकी रिश्ता तो है नहीं कि समाज बोलेगा | और समाज का क्या है, कुछ न कुछ बोलता ही है | और दूजी बातकौन-सा हम यहाँ रहते हैं ! कोई कुछ कहेगा भी तो कौन सुनने बैठा रहेगा यहाँ |
बहू से पूछ लूँ ?
हाँ काकी, समझा उसको |”
थोड़ी देर में ही काकी ने लौटकर अपनी सहमति की मोहर लगा दी | शतरंज जैसे खेल से अंजान काकी, विभा द्वारा पूरी तरह से घिर चुकी थी |
घर वापिस जाते हुऐ बेटी ने विभा से कहा – “मम्मी, ये क्या कर रही हैं आप ? एक तो वो वैसे ही दुखी हैं ऊपर से आप काँटों का ताज पहना रही हैं |
चुप कर मुई ! कोई सुन लेगा | समाज में इज्‍ज़त बनी रहें इसके लिए बहुत कुछ करना होता है | और फिर मैं तो उसे मर्द के नाम की छाँव दे रही हूँ | अब भले ही वह नामर्द है। उसकी भी  इज्‍ज़त ढकी रहेगी और अपनी भी | बेटी को डाँटते हुए विभा धीरे से बोली |
मम्मी! अगर भाभी की जगह मैं होतीतब भी आप क्‍या यही करतीं?
वह अवाक हो बेटी को बस देखती रह गई |
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सविता मिश्रा अक्षजा
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