Wednesday 29 November 2017

मन का बोझ-


अस्पताल के कॉरिडोर में स्ट्रेचर पर विवेक कराह रहा था | डॉक्टर से उसके जल्द इलाज करने की मिन्नतें करता हुआ एक अजनबी, बहुत देर तक डॉक्टरों और नर्सों के बीच फुटबॉल बना रहा। बड़ी मुश्किल से कागजी कार्यवाही करने के बाद, विवेक को आपरेशन थियेटर के अंदर ले जाया गया | अजनबी अपना दो बोतल खून भी दे चुका था। एक-दो घंटे में ऑपरेशन खत्म हुआ तो विवेक को वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया | अजनबी लगातार विवेक की खिदमत में लगा हुआ था | 
तभी विवेक के बदहवास माता-पिता वार्ड में दाखिल हुए | विवेक को देखते ही माँ तो बेहोश हो गयी | अजनबी पानी लेने बाहर चला गया |
विवेक के माथे पर हाथ फेरते हुए काँपती आवाज में पिता ने पूछा - "कैसे हुआ? मुझे लगा तू दोस्त के यहाँ, देर रात हो जाने से रुक गया होगा।" 
"पापा, मैं तो रात...ग्यारह बजे ही ..आहs..मुकेश के घर से चल दिया था..उह.. अह ह..लेकिन रास्ते में...!"
पत्नी की तरफ देखने के बाद पिता ने विवेक से फिर कहा - "चहलकदमी करती हुई तेरी माँ चिल्ला रही थी कि 'जन्मदिन, इतनी देर तक कोई मनाता है क्या भला' ! शाम को तेरा फोन भी बंद आ रहा था !!"
"आराम करने दो ! बाद में पूछताछ कर लेना, मेरे बच्चे को कितनी तकलीफ ..!" कहते हुए फिर बेहोश सी हो गयी |
"एक सहृदय भले आदमी की नजर...उहs मुझपर सुबह पड़ी, तो वह मुझे आह..अस्पताल ले आये।... पापा ! रातभर लोगों से भीख मांगकर ऊहंss निराश हो गया था मैं तो..और मोबाईल की बैटरी भी ...।" किसी तरह विवेक ने टूटे-फूटे शब्दों में पिता से अपनी व्यथा बयान की |
'सहृदय' शब्द अंदर आते हुए अजनबी के कानों में गया, तो वह बिलबिला पड़ा। जैसे उसके सूखे हुए घाव को किसी ने चाकू से कुरेद दिया हो।
अजनबी खुद से ही बुदबुदाया - "चार साल पहले, मेरी सहृदयता कहाँ खोई थी। सड़क किनारे खड़ी भीड़ की आती आवाजें- चीखें अनसुनी करके निकल गया था ड्यूटी पर अपने। दो घण्टे बाद ही फोन पर तूफान की खबर मिली थी।" 
सहसा अपने सिर को झटक के वर्तमान में लौटकर अजनबी बोला- "बेटा, मैं सहृदय व्यक्ति नहीं हूँ, बनने का ढोंग कर रहा हूँ। यदि मैं सहृदय व्यक्ति होता तो मेरा बेटा जिंदा होता।" चुप होते ही आँसू अपने आप ढुलक गए, जिसे अजनबी ने रोकने की कोई कोशिश नहीं की।
ओबीओ में पोस्ट
२८/११/२०१७ को लिखी

Monday 27 November 2017

"तोहफ़ा" लघुकथा ("संवर्धन")

डोरबेल बजी जा रही थी। रामसिंह भुनभुनाये "इस बुढ़ापे में यह डोरबेल भी बड़ी तकलीफ़ देती है।" दरवाज़ा खोलते ही डाकिया पोस्टकार्ड और एक लिफ़ाफा पकड़ा गया।
लिफ़ाफे पर बड़े अक्षरों में लिखा था 'वृद्धाश्रम'।
रुंधे गले से आवाज़ दी-"सुनती हो बब्बू की अम्मा, देख तेरे लाडले ने क्या हसीन तोहफ़ा भेजा है!"
रसोई से आँचल से हाथ पोछती हुई दौड़ी आई- "ऐसा क्या भेजा मेरे बच्चे ने जो तुम्हारी आवाज भर्रा रही है। दादी बनने की ख़बर है क्या?"
"नहीं, अनाथ!"
"क्या बकबक करते हो, ले आओ मुझे दो। तुम कभी उससे खुश रहे क्या!"
"वृद्धss शब्द पढ़ते ही कटी हुई डाल की तरह पास पड़ी मूविंग चेयर पर गिर पड़ी।
"कैसे तकलीफों को सहकर पाला-पोसा, महंगे से महंगे स्कूल में पढ़ाया। खुद का जीवन अभावों में रहते हुए इस एक कमरे में बिता दिया।" कहकर रोने लगी
दोनों के बीते जीवन के घाव उभर आये और बेटे ने इतना बड़ा लिफ़ाफा भेजकर उन रिसते घावों पर अपने हाथों से जैसे नमक रगड़ दिया हो।
दरवाज़े की घण्टी फिर बजी। खोलकर देखा तो पड़ोसी थे।
"क्या हुआ भाभी जी ? आप फ़ोन नहीं उठा रही हैं। आपके बेटे का फोन था। कह रहा था अंकल जाकर देखिये जरा।"
"उसे चिन्ता करने की जरूरत है!" चेहरे की झुर्रियां गहरी हों गयी।
"अरे इतना घबराया था वह, और आप इस तरह। आँखे भी सूजी हुई हैं। क्या हुआ?"
"क्या बोलू श्याम, देखो बेटे ने.." मेज पर पड़ा लिफ़ाफा और पत्र की ओर इशारा कर दिया।
श्याम पोस्टकार्ड बोलकर पढ़ने लगा। लिफ़ाफे में पता और टिकट दोनों भेज रहा हूँ। जल्दी आ जाइये। हमने उस घर का सौदा कर दिया है।"
सुनकर झर-झर आँसू बहें जा रहें थे। पढ़ते हुए श्याम की भी आँखे नम हो गई। बुदबुदाये "इतना नालायक तो नहीं था बब्बू!"
रामसिंह के कन्धे पर हाथ रख दिलासा देते हुए बोले- "तेरे दोस्त का घर भी तेरा ही है। हम दोनों अकेले बोर हो जाते हैं। साथ मिल जाएगा हम दोनों को भी।"
कहते कहते लिफ़ाफा उठाकर खोल लिया। खोलते ही देखा- रिहाइशी एरिया में खूबसूरत विला का चित्र था, कई तस्वीरों में एक फोटो को देख रुक गए। दरवाजे पर नेमप्लेट थी सिंहसरोजा विला। हाँ ! हाँ ! जोर से हँस पड़े।
"श्याम तू मेरी बेबसी पर हँस रहा है!"
"हँसते हुए श्याम बोले- "नहीं यारा, तेरे बेटे के मज़ाक पर। शुरू से शरारती है वह।"
"मज़ाक..!"
"देख जवानी में भी उसकी शरारत नहीं गयी। कमबख्त ने तुम्हारे बाल्टी भर आँसुओं को फ़ालतू में ही बहवा दिया।" कहते हुए दरवाजे वाला चित्र रामसिंह के हाथ में दे दिया।
चित्र देखा तो आँखे डबडबा आईं।
नीचे नोट में लिखा था- "बाबा, आप अपने वृद्धाश्रम में अपने बेटे-बहू को भी आश्रय देंगे न।"
पढ़कर रामसिंह और उनकी पत्नी सरोजा के आँखों से झर-झर आँसू एक बार फिर बह निकलें।
#सविता मिश्रा 'अक्षजा'
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Saturday 25 November 2017

26वाँ अंतर्राज्यीय मिन्नी लघुकथा सम्मेलन- इधर-उधर की बात- मिर्च-मसालें के साथ ..:)



 

26वाँ अंतर्राज्यीय मिन्नी लघुकथा सम्मेलन पंचकूला में होना निर्धारित हुआ। "लघुकथा साहित्य से संबंधित जो रचनाकार इस सम्मेलन में भाग लेना चाहते हैं, उनसे निवेदन है कि वे दिनांक 11.06.2017 तक अपनी सहमति प्रदान करने की कृपा करें। सम्मेलन के लिये पंजीकरण शुल्क बाद में तय होगा मगर यह किसी भी सूरत में 300/-(तीन सौ रुपये) प्रति लेखक से अधिक नहीं होगा।" यह घोषणा देखकर हमने सहमती दर्ज करवा दी थी |
हरियाणा और पंजाब के सहयोग से कई प्रदेशों के लघुकथाकार दूर-दूर से पधारने थें। अपना नाम हमने भी दे दिया लेकिन बाद में पता चला राम रहीम कांड हो गया है। बेटे ने मनाही कर दी | बात-बात में कहता पापा से कहता हूँ कि मम्मी वहां जाना चाह रही जहाँ दंगा हुआ है | 'चुपकर' डांट के चुप करा देते उसे | वरना बच्चें चिंगारी लगा देते तो आग फ़ैल ही जाती और हमारे वहां जाने की इच्छा उसमें स्वाहा हो जाती | पिछली बार अमृतसर जाने की पतिदेव ने मनाही कर दी थी कि अकेले नहीं जाना, रास्ता तक तो तुम भूल जाती हो | और सबसे बड़ी बात वहां आतंकवादियों का खतरा बना रहता है।
पिछली बार सब जाकर सही सलामत लौट आए एक हमी मारने के लिए मिलेंगे सबको, कहकर किसी तरह इस बार राजी किया गया। फिर भी अकेले जाने की हिम्मत हो नहीं पा रही थी | रास्ता भूल गये तो, वहां स्टेशन पहुँचकर भी आयोजन स्थल पर नहीं पहुँच पाए तो | लेकिन बिना किसी ठोस कारण के हम अपनी बात से पीछे भी नहीं हटना चाहते थे | इसी लिए हमने नीता सखी से 17 AUGUST को बात की मेसेज में | उनसे पूछा कि पंचकूला जाने का टिकट करा लिया आपने? उन्होंने बस से जाने की कहके भरोसा दिलाया कि कोई समस्या नहीं होगी ! स्टेशन से ही पिक करवा लेंगे | आप बस उन्हें फोन करके अपनी ट्रेन का नाम बता देना |
खैर श्यामसुन्दर अंकल से फोनिक वार्ता हुई तो उन्होंने आश्वस्त किया कि हमारी पूरी कोशिश होगी कि स्टेशन से ले लिया जाय | नवम्बर में दिल्ली पुस्तक मेले में लघुकथा आयोजन में नीता सखी से फिर बात करना चाहे कि कैसे जाया जाय तो वह ज्यादा समय नहीं दें पायी और उपमा को खोजते हुए यह कहकर निकली कि कोई असुविधा नहीं होगी उनकी व्यवस्था बहुत अच्छी होती हैं|
लेकिन मन था कि डर रहा था | पहली बार अकेले वह भी दुसरे शहर नहीं बल्कि राज्य में जाना | खैर मन को तैयार कर रहे थे की निकलेंगे तभी तो जानेगें और हिम्मत बंधेगी अकेले चलने की और मन से यह डर निकालने की रास्ता भूलेंगे | अब ओखली में सर दिया था तो डरना कैसा गुनते रहे हम | खैर बात आई गयी हो गई |
नीता सखी का एक दिन (9 SEPTEMBER) मेसेज आया | पहले भी मेसेज में इस बाबत बात हुई थी लेकिन निर्णय नहीं हुआ था कुछ भी | उनका प्लान कुछ और ही था शायद | फिर बात हुई और हमारा, नीता सखी और शोभा दीदी का रेल टिकट हो गया | उपमा का डामाडोल था अतः टिकट साथ में नहीं हुई | पहले शायद उपमा और नीता सखी कार से जा रहे थें |
कुछ दिन बीता तो फिर कहाँ घूमना यह तय करना था, वार्ता पे वार्ता होती रही, रिजेक्ट फिर सेलेक्ट | कई बार मेसेज में आपस में सघन गुप्त वार्ता सम्मेलन होने के बाद तय हुआ कि कसौली-चंडीगढ़ घूमेंगे | लौटने की टिकट पर बात होने पर पता चला नीता सखी चंडीगढ़ रहेंगी, एक दिन बाद आयेंगी और पंचकूला से घूमने निकलने के बाद घूमकर शाम को वह अपने भतीजी के पास रहेंगी | अब समस्या आन पड़ी दो औरतों का अकेले अनजान शहर में रहने का | होटल में रहना हमें न जाने क्यों सही नहीं लग रहा था | दुसरे सबसे बड़ी कमी थी न हमें कुछ पता था न शोभा दीदी को | रहने की बात पर भी सहमती नहीं बन पा रही थी | यहाँ तक की प्रभाकर भैया से भी बात हुई तो उन्होंने भी होटल में नहीं रहने की सलाह दी, कहें मेरे घर आ जाओ बाद में कैंसिल होकर शोभा दीदी के मामा के लड़के के घर रहना तय हो गया येन-केन- प्रकारेण | मन स्थायी हुआ और तैयारी होने लगी पहला भव्य सम्मेलन अटेंड करने की |
सत्ताईस की रात सब तय होने के बाद में अपनी लकुटी-कमरियाँ रखे और २८ की सुबह बस द्वारा आगरा से दिल्ली के लिए चल दिए |
जाने की टिकट पक्की ही थी नीता सखी द्वारा अतः बच्चों के पास दो-तीन घंटे रुककर सवा बजे चल दिए रेलवे स्टेशन की ओर। नीता सैनी दीदी, शोभा रस्तोगी दीदी और उनकी बेटी के साथ यात्रा फिक्स हुई थी डिब्बे में घूसने पर मिलें सब और वहीं मुलाकात हुई विभा रश्मि दीदी से। एक दिन पहले ही पता चल गया था कि वह भी उसी डिब्बे में हैं जिसमें हम सब की टिकट हुई है |
सारे जहां की चर्चा करते हुए अपनी लघुकथा विभा दी को पढ़ाई, उन्होंने सुझाव दिए कई। बीच मे चाभी का गुच्छा देख अंदर बैठा बचपन कूदकर बाहर आ गया। १०-१० रूपये के पांच गुच्छे खरीद डालें।
सुबह सवेरे 6 बजे की बस पकड़कर आगरा से कौशाम्बी फिर 2:45 की ट्रेन पकड़कर पंचकूला चलने में परेशान तो हुए, लेकिन वार्तालाप करते हुए खला नहीं | लेकिन पंचकूला के नजदीक पहुँचते-पहुँचते महसूस हुई थकन। धीरे-धीरे अपने गंतव्य को पहुंच ही गए। स्टेशन पर ही बलराम भैया अपने सहयोगी कार ड्राईवर सहित खड़े हुए दिखे | हम लोगों को उठाने के लिए ही शायद आये थें। गाड़ी में बैठकर स्थान पर पहुँचे जहां सभी आगन्तुकों के खाने की व्यवस्था की गई थी। देखकर लगा कोई आलीशान होटेल है | बाद में पता चला वह श्यामसुंदर अंकल की बिटिया दीपशिखा का घर था। फिर देखकर लगा वाह क्या घर है! हर सजावट का सामान कितनी करीने से रखा हुआ था। घर में लिफ्ट हमने पहली बार ही देखा वहाँ। उनकी बिटिया को सबकी आवभगत करते देख लगा फलदार वृक्ष ऐसे होते हैं । पूरा घर देखकर, देखते ही रह गए। आश्चर्य का ठिकाना न रहा था। दांतों तले ऊँगली भले न दबाई हों लेकिन आप बेफिक्र हो यह कहावत कह सकते हैं |

मोबाईल धोखा दे गया था तस्वीरें लेने से चूक गए। असल में आगरा से बस में बैठे थे तभी ही मोबाईल दो बार अपने आप ही बंद हो गया जिससे उसको हिफाजत से इस्तेमाल कर रहे थें कि कहीं येन टाइम पे (कार्यक्रम समय) धोखा न दें दे | मुश्किल से दो एक फोटो ही हमने अपने मोबाईल से ली होंगी। फोटो अच्छी भी नहीं आ रही थीं इस लिए भी मन नहीं किया तस्वीरें लेने का | देखकर, देखते रहे गये थे घर मे बना मंदिर। ऐसा मन्दिर हमने अलीगढ़ में और मथुरा में देखा था सार्वजनिक स्थल पर और वहां घर में था शीशे के टुकड़ों से सजा हुआ मंदिर| भई वाह कहना तो बनता है |

वहीँ पर मुलाकात हुई श्यामसुन्दर अंकल जी से, जिनसे तो मुलाकात होनी ही थी आखिर मेजबान तो वह ही थें, उन्होंने उसी समय एक कागज  पर  सबके हसताक्षर लिय |  हमें  लगा होगा जहाँ ठहरे हैं वहां के  नियम लेकिन बाद में पता चला वह हस्ताक्षर  हमारे खातों में पैसा डालने के लिए है| पहले ही इस बाबत बैंक डिटेल ले ली गयी थी | पवित्रा दीदी, मंजू दीदी, पवन भैया,अंतरा करवड़े सखी, सुषमा गुप्ता, सीमा जैन दीदी, सुकेश साहनी भैया और भाभी, काम्बोज भैया और भाभी, कपिल शास्त्री भैया बलराम भैया और मीरा भाभी से (वैसे जेठानी का भी यही नाम, शायद इसी लिए याद रहा) एक बार ही तो नाम लिया था किसी ने उनका लेकिन दिमाग में घुसकर बैठ गया इसी कारण शायद | वहीं पर क्षितिज पत्रिका बलराम भैया द्वारा लिए हम मांग के, बंट रही थी हमने सोचा हम भी आगे बढ़के ले लें | सबसे मिलकर सफर की थकान दूर हो गयी थी अब तक | चेहरे पर मुस्कान बिखरी थी | पहली बार अकेले अजनबियों के बीच में अजनबीपन तनिक भी नहीं महसूस हुआ | लगा सबको तो (दो-तीन को छोड़कर) हम जानते हैं अच्छे से | लड्डू खिलाते वक्त बलराम भैया द्वारा कपिल भैया की तस्वीर उतारना कहना और हमारे बेवफा मोबाईल द्वारा उतारा  जाना | भले धुंधली आई लेकिन टाइमिंग परफेक्ट थी बिलकुल बलराम भैया लड्डू खाते हुए कपिल भैया का खुला मुँह |

कपिल भैया की पोस्ट की वार्ता हुबहू ..
अच्छा एक बात बताइये भैया...अक्सर कुछ मीठा खिलाते समय खिलाने वाले का मुँह क्यों खुला रहता है😁😁🤔
Balram Agarwal बच्चे के मुंह के आगे चम्मच लाकर मां अपना मुंह खोलकर बताती है--'आ कर आ'। बस वहीं से आदत बन जाती है।

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2 November at 02:46
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Kapil Shastri मैं तो प्रश्न से अचसमभित हो गया था,बलराम जी ने सटीक जवाब दिया।

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2 November at 03:23
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Rakesh Pandya Yadi woh na khaye to main khalunha jaldi se....

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2 November at 17:48
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Savita Mishra बलराम भैया सादर नमस्ते।
शुक्रिया भैया, वरना इस प्रश्न पर शायद कपिल भैया हंसकर, खीजकर फिर बेवकूफ लड़की कह चुप हो गए थे...😊


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2 November at 18:33
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Kapil Shastri खिलाने वाले का मुंह खुल जाए और खानेवाले की आंखे बंद हो जाएं मतलब मज़ा आ गया।
दीपशिखा के घर में बना खाना भी मजेदार, लज्जतदार था। कढ़ी-चावल अपना फेवरेट, थोड़ा चटपटा था लेकिन बढिया था। भरवां करेला और मूँग की दाल का हलवा अपनी पसन्दीदा चीजें पाकर दिल और बागबाग हो उठा | याद नहीं और भी थीं खाने में कई चीजें। बीच मे लालमिर्च मुँह में जाने पर आँखों से नीर बह निकला। बलराम भैया सामने बैठे थे, हँसकर बोले दरोगाजी की याद आ गयी क्या! हमने कहा भैया आप भी मजाक कर रहे हैं आपसे यह उम्मीद तो नहीं थी।
खाकर काम्बोज भैया से बात करते-करते समय का पता ही नहीं चला। सब ठहरने के स्थान पर रवाना होने लगे। अचानक अंकल ने आवाज दी 'जाना नहीं है' सामान उठा के चल दिये बाहर।
'सेक्टर 15 विश्नोई भवन' में ठहरने की व्यवस्था थी अपनी। एक कमरे में हम और शोभा दीदी। सारी सुविधा थी उधर।
बेटा मेट्रो में अटैची से छेड़खानी करके एक तरफ का लॉक लगा दिया था, वह लॉक खुला नहीं था। घण्टे डेढ़ घण्टे मशक्कत होती रही लॉक खोलने की । हम नीता सखी और उनकी बेटी मनीषा लगे रहें पर नहीं खुलना था तो नहीं खुला। दिक्कत बहुत थी न खुलने से लेकिन काम चलाना ही था। शुक्र है एक ही तरफ का लॉक हुआ था दूसरी तरफ से सारे कपड़े किसी तरह खींच कर निकाले और अलमारी में रख दिए।
इसी बीच जगदीश राय कुलरियाँ भैया और कुलविंदर कौशल भैया आकर बैठे। चर्चा होती रही। कैसे क्या होना है कल। लघुकथाओं की भी तनिक बात हुई | इतनी देर लघुकथा की दो हस्तियाँ सामने थी लेकिन तस्वीर लेने की याद ही नहीं रहा |
सुबह 7 बजे चाय आ जायेगी कहकर वह चले गए। बस फिर क्या था हम लोग सोने की तैयारी करने लगे। कपड़े तो बदले ही जा चुके थे बस बिस्तर पर पसरना था सो पानी पीकर पसर लिए |
सुबह वह दिन आ गया जिस दिन के लिए इतनी दूर से अकेले जाने की हिम्मत जुटाए थे। 6 बजे ही नींद खुल गयी। बाहर आकर अंतरा सखी से बात होती रही। महत्वपूर्ण जानकारी मिली कि कहीं होटेल में खाने के बाद चाय या सूप यानी गर्म चीज जरूर पीनी चाहिए। उगते सूरज की तस्वीरे उतारी और वहां की हरियाली पर मोहित होती रही |
फिर चाय और रस्क खाया गया। सामने ही पोलिस पोस्ट यानी चौकी थी जिसके बारे में चर्चा हुई।
उस पोलिस-पोस्ट का दरवाजा शायद सुबह सात बजे खुला | हमें एक बंदे के सिवा कोई चहलपहल नहीं दिखी उस पोस्ट पे दस-ग्यारह बजे तक | बाद में देखा कि पुलिस चौकी का भी बोर्ड लगा था नीचे। हमें लगा हरियाणा में पोस्ट ही कहते क्या चौकी को।
खैर अब नहाकर तैयार होने की बारी थी। 9 बजे नाश्ता आ गया | भरवा कुलचे और मक्खन के साथ छोले। स्वादिष्ट था और हरियाणवी झलक थी। ऐसे कुलचे हमने तो पहली बार खाए। साथ में था इमली के मसालेदार पानी के साथ बारीक कटा प्याज, जो काफी स्वादिष्ट था।
कुछ खाने का जायका तो कुछ मीठी-मीठी बातों का रस्वादन मन प्रफुल्लित था । वही कॉरिडोर में मुलाकात हुई डॉ कृष्ण कुमार आशु भैया से जिन्होंने सृजन-कुंज नामक पत्रिका भेंट की। समारोह स्थल में दोपहर का भोजन ग्रहण करते वक्त उन्होंने बताया कि मैं शब्द निष्ठा प्रतियोगिता में तीन जजों में से एक जज था। बाद में घर में आकर पत्रिका देखी तो उसमें एक सविता और थीं मुँह से निकल पड़ा कितनी सविता हैं भई!!
धीरे-धीरे सारे लोग 'विश्नोई भवन' से कार्यक्रम स्थल पे जाने लगे। तैयार तो साढ़े नौ बजे हम तीन यानी शोभा रस्तोगी दी और नीता सखी थे लेकिन रस्तोगी दी को पूरी तरह से तैयार होने में समय लगा जिससे हम लोग ही बस बचे थे वहां। थोड़ी देर में यानी साढ़े ग्यारह बजे शायद हम लोग भी निकल पड़े उस स्थल पर जहाँ लघुकथाकारों का मेला लगा था।

पहुँचते ही स्टाल पर किताबों को देखते -देखते दो किताब खरीद डाली। वही कइयों से मुलाकात हुई- नीलिमा दीदी, पंकज शर्मा भाई जिन्होंने "शुभ तारिका" नामक पत्रिका भेंट की, सतविंदर भाई, कुमार भाई, कुणाल भाई, कांता दीदी, श्याम दीप्ती अंकल जिन्हें हमने अभिवादन किया लेकिन वह हमें क्या पहचानते और पहचान बताने लायक अपनी पहचान थी भी क्या !! अशोक जैन भैया जिनकी पत्रिका के सदस्य बनने का हमने ऑफर किया, जिससे उनके चेहरे पर प्रकाश पुंज फैल उठा| उन्होंने हाथ बढ़ाया तो हमने हँसी किया कि हाथ मिलाये! फिर हाथ मिलाते हुए हमने बोला "अक्षय कुमार के बाद दुबारा हम अब आपसे हाथ मिला रहे हैं" वह हँसकर बोले "भाई से तो हाथ मिला सकती हो न!" उन्होंने एक बात और कही कि "बोलने में व्याकरण की गलतियां करने वाली सविता लिखते समय जाने क्या हो जाती है।" अब यह राज तो भगवान ही बता सकते हैं!

चाय-नाश्ता के बाद सब हॉल में प्रवेश करने लगे थें। बाहर ही मजमा जमा था कि श्यामसुंदर अंकल ने घोषणा की कि लघुकथा पढ़ने में सब पंजीकृत हुए हैं, सीट की जिम्मेवारी नहीं है। फिर क्या था नीता सखी और हम जाके सीट पर कब्जा करके फिर बाहर आ गए। थोड़ी देर बाद जो जो कब्जा जमाकर बाहर भ्रमण पे थे सब अंदर होने लगे थें।
दोपहर भोज के पश्चात लघुकथा सम्मेलन समारोह शुरू हो चुका था पंजाबी लघुकथाओं का दौर शुरू हुआ, समझ नहीं आ रही थीं लेकिन सुन रहे थे। जब-जब जगदीश भैया पढ़ने के लिए उद्घोषणा करते हमें बड़ा अजीब लगता, सोचते ये सबको 'बेइज्जती करा दा' क्यों बोल रहे हैं। और सब बड़ी शान से बेइज्जती सुनकर भी आ रहें। ऐसा कैसे हो सकता भई। अब तो हमारा ध्यान पूरी तरह से सिर्फ घोषणा करते समय ही लग गया, बाद में जब ज्यादा ध्यान से कई बार सुनें तो सुनने पर समझ आया कि यह वेनती करां दा कुछ इस अंदाज यानि पंजाबी में बोल रहे हैं जो हमें बेइज्जती सुनाई पड़ रहा है।
बाद में भी इस शब्द की चर्चा बनी रही कपिल शास्त्री भैया को भी वही लगा था जो हमें लग रहा था। खैर सब की कथाएं हो चुकी थी अब समीक्षा की बारी थी जो समझ न आने के कारण सुनके भी कुछ नहीं बोल सकते कि किसे उन्होंने अच्छा कहा। लेकिन हमें गाने पर औरतों का बोलना फिर अपने घर की औरत आने पर बन्द कर देने वाली कथा और बाइक वाली मर्दो वाला शायद कुछ ऐसी ही थी, बहुत दिनों बाद लिखने के कारण बहुत कुछ विस्मृत सा हो गया है वैसे भी अपनी यादाश्त फिल्म गजनी के आमिर की तरह ही है | आई गयी, मौके पर आ जाये तो समझ लीजिए कि किला जीत डालें |

२९ हिंदी लघुकथाकारों ने कथाएँ पढ़ीं। सभी ने क्रमवार पढ़ी और दूसरों की कथाएं भी बिना कानाफूसी के सुनी | समीक्षा के समय हँसी ठिठोली होती रही | हँसते-हँसते बलराम भैया ने बातों में ही छड़ी को खूब घुमाया |
आप सब भी समीक्षाएं और हमारी सीमा नामक लघुकथा देख सकते हैं इस लिंक पर जाकर ..
https://www.youtube.com/watch?v=mUv_WAdGIZs&t=342sअशोक भाटिया भैया
https://www.youtube.com/watch?v=Lb6k0h8Nc9s बलराम भैया
और हाँ कहते-कहते यह भी कह दे कि अपनी लघुकथा सीमा भी पसंद आई कई लोगों को ..सभी का शुक्रिया इस माध्यम से भी ..इस पर जाकर आप सुन सकते हैं ...
https://www.youtube.com/watch?v=z8P_hGXrbQQ
फिर चाय और नाश्ता का दौर चला | हमने नाश्ता देखा भी नहीं, खाना तो दूर की बात रही |
दोपहर के खाना से पेट भरा हुआ था | हमारे साइड से बीच में खड़े होकर मांगने पर अशोक भाटिया भैया ने प्लेट में कुछ ज्यादा ही सब्जी चावल दें दिए थे |, न छोड़ने की आदत के कारण खा लिए थे, लेकिन पानी पीने के बाद पता चला ज्यादा हो गया था | अतः दोपहर में बस कॉफ़ी लीं | वैसे थी चाय की तलब, लेकिन वहाँ चाय शायद थी नहीं | काम्बोज भैया ने खाते समय डॉ.शील कौशिक दीदी से परिचय कराया | वीर सिंह मार्तण्ड भैया से भी हल्की सी बात हुई हमारी |
उसके बाद फिर हॉल की ओर उन्मुख हुए सब | लेकिन एक घंटे में ही जब सब एक एक करके बाहर होने लगे थें | उसी बीच हम भी निकल आए | बाहर फोटोग्राफी चालू थी, हम भी शरीक हो लिए | फिर बातचीत और खाना पानी रात का | यही पे मुलाकात हुई कमलेश भारतीय भैया से जिनसे काफी देर तक बात हुई | बीतते शाम में नीरव भैया से वार्ता चली फिर पवित्रा दीदी से भी थोड़ी देर बात हुई |
फिर कार्यक्रम समाप्त होने के बाद जहाँ ठहरे थे वहां का रुख किया गया | पैदल ही अशोक दर्द भैया उनकी पत्नी, देवराज डडवाल भैया और उनकी पत्नी, नीता सखी, मनीषा और हम सब पैदल सैर करते हुए विश्नोई भवन पहुँचे | कसौली के लिए कार करने के चक्कर में जगदीश भैया को खोजते हुए नीचे आयें तो बैठकी जमी थी हम भी शामिल हो लिए | फिर थोड़ी बहुत वार्ता और सोना सुबह निकलना था भ्रमण पे कसौली | क्रमशः
अट्ठाईस दिन बाद यादाश्त  के आधार पर ...द्वारा-सविता मिश्रा 'अक्षजा'

26वाँ अंतर्राज्यीय मिन्नी लघुकथा सम्मेलन- सिर्फ और सिर्फ सम्मेलन की बात - नो बकवास --:)

पंजाबी भाषा की मिठास और हिंदी का प्रवाहमय कड़कपन दोनों ने मिलकर ऐसा समा बाँधा की सुनने वाले धैर्य धारे बस सुनते ही रहें | न जाने कितने भाषा-भाषी (मातृभाषा) न जाने कितने रंग-बिरंगे सपने लेकर, पंजाब-हरियाणा-उत्तरप्रदेश- मध्यप्रदेश-आंध्र प्रदेश-राजस्थान-उत्तराखंड- हिमाचल प्रदेश न जाने कितने प्रदेश के लोग अपने-अपने स्थल की खुशबू लेकर उपस्थित हुए थें तो अकादमी भवन, आई.पी. 16, सैक्टर 14, पंचकूला को महकना ही था | पधारे अस्सी से सौ लेखकों ने इस सम्मेलन में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई।
सभागार में विराजमान लोग






26वाँ अंतर्राज्यीय मिन्नी लघुकथा सम्मेलन 'अकादमी भवन' पंचकूला में होना निर्धारित हुआ । नाश्ता-पानी के बाद सभी सभागार में विराजमान हो चुके थे |
पहले सत्र में जब १२ बजे के आसपास कार्यक्रम शुरू हुआ तो सभी अतिथियों का सम्मान करने के बाद कहानी और मिन्नी कहानी के अन्तर को स्पष्ट करते हुए वरिष्ठों ने अपने विचार रखें।
इस सम्मेलन में साहित्य त्रिवेणी’ त्रैमासिक का लघुकथा विशेषांक (संपादक- कुमार वीर सिंह मार्तण्ड भैया, विशेषांक के अतिथि सम्पादक डॉ.अशोक भाटिया भैया ) ,’ दृष्टि’ लघुकथा- त्रैमासिक पत्रिका (सम्पादक अशोक जैन भैया ) पत्रिका ‘मिन्नी’ का अंक-117 और 'सपने बुनते हुए' (संपादक श्याम सुन्दर अग्रवाल अंकल, बलराम अग्रवाल भैया ) के विमोचन (जिसमें हमारी रचनाएँ भी उपस्थित हैं) के साथ कुछेक और किताबों का विमोचन किया गया।
'सपने बुनते हुए' का विमोचन
रीता साहनी भाभी जी को (बरेली) ‘ललिता अग्रवाल स्मृति सम्मान’ प्रदान किया गया। मनजीत सिद्धु भैया (रतनगढ़) और शोभा रस्तोगी दीदी (दिल्ली) को ‘लघुकथा किरण पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। समय -एक बजकर पांच मिनट पर |












पंजाबी मिन्नी कहानी पर प्रयास दीप्ती अंकल जी द्वारा तैयार की एक फिल्म भी दिखाई गई। जिसकी सीडी सबको पहले ही उपलब्ध कराई जा चुकी थी | व्यवस्था चाकचौबंद थी लेकिन किसी कारण बस बड़े पर्दे पर प्रोजेक्टर द्वारा नहीं दिखाई जा सकी , बीच में ही रुक जाने पर लैपटॉप का इस्तेमाल किया गया |
दोपहर भोजन और अन्य समय की ग्रुप फ़ोटो ..कहीं न कहीं से उठाई गयीं कुछ खुद के मोबाईल से...


दोपहर भोज के पश्चात लघुकथा सम्मेलन में रचना-पाठ एवं समीक्षात्मक टिप्पड़ी का दौर शुरू हुआ | पंजाब व हरियाणा के विभिन्न जिलों से पधारे लेखक, लेखिकाओं ने अपनी-अपनी लघुकथाओं का पाठ बड़े बढ़िया ढंग से किया और सुनने वाले शांति से ध्यान से सुनते रहें, दूसरों को भी सुनना, अपनी सुनाने के बाद खिसक लेने वाली प्रवृति नहीं दिखी यह बड़ी और ध्यान देने वाली बात भी इस समारोह में देखने को मिली | वैसे सब मजबूर भी थे शायद दूर-दूर से जो आए थे | खैर सराहनीय कार्य यह भी | वरना लोग मैं, मेरा में ही अटके रहते हैं | यहाँ भी दो चार अटके हुए दिखे लेकिन वह चुटकी भर थें | यहाँ तक की समीक्षाओं को भी बड़े गौर से सुना गया, यह और भी घोर आश्चर्य ही था |
पंजाबी भाषा की रचनाएँ हम बड़े ध्यान से सुनकर समझने की कोशिश करते रहें लेकिन पांच- दस परसेंट ही समझ आई बस यह समझ आ रहा था कि टॉपिक क्या है किसी किसी में वह भी समझ न आया | फिर समीक्षात्मक टिप्पड़ी की गयी जो घंटे तक चली | सुनने से ही लग रहा था कि बहुत अच्छा बोल रही हैं लेकिन दुर्भाग्य से हमें ही नहीं समझ आ रहा था |
हिंदी लघुकथा सत्र की कपिल भैया से शुरुआत हुई लेकिन श्यामसुन्दर अंकल द्वारा पहले ही क्रमवार लोग इस प्रकार थे ....
१ श्रीमती अन्तरा करवडे (मध्य प्रदेश)-अबोला,
२ अशोक दर्द (डल्हौजी)-उपयोग,
३ कपिल शास्त्री- हार-जीत
४ कान्ता राय भोपाल- सावन की झड़ी,
५ कुणाल शर्मा (करनाल) - अपने-अपने,
६ कुमार गौरव (बिहार)-हिचकी,
७ देवराज डडवाल (हिमाचल)- दो जून की रोटी,
८ नीता सैनी (दिल्ली)-राग-अनुराग,
९ डॉ नीरज सुधांशु (बिजनौर)-निक्कू नाच उठी,
१० नीलिमा शर्मा निविया (दिल्ली)-सुबह की चाय,
११ पंकज शर्मा- नई कमीज,
१२ पवन जैन- ज्ञान का प्रकाश,
१३ पवित्रा अग्रवाल (हैदराबाद)-खमियाजा,
१४ मधु जैन-आसक्ति ,
१५ राधेश्याम भारतीय (करनाल)-काला अध्याय,
१६ रूप देवगुण (सिरसा) -यात्रा के बीच में,
१७ रेखा तामकार राज-नयन सुख,
१८ लक्ष्मी नारायण अग्रवाल-मूँछ का ताव,
१९ डॉ लता अग्रवाल-बेबसी
२० विभा रश्मि-मौन शब्द,
२१ डॉ.शील कौशिक-स्वर्ग की दूरी,
२२ शोभा रस्तोगी -अंडेवाला,
२३ सतविन्द्र कुमार राणा- नजदीक की दूरी,
२४ सविता मिश्रा-सीमा,
२५ सीमा जैन-दूसरे की माँ

२६ सुरेन्द्र गुप्त -चंद्रग्रहण,
२७ डॉ. सुषमा गुप्ता-ब्रेकिंग न्यूज,
२८ स्नेह गोस्वामी-वह जो नहीं कहा,
२९ रणजीत टाडा-पहचान तलाशते रिश्ते
पंचकुला में 29 अक्टूबर, 2017 को इन सभी उन्तीस हिन्दी लघुकथाकारों द्वारा लघुकथाएँ पढ़ी गयी |
कुछ की समीक्षकों ने बहुत ज्यादा पसंद की तो एक दो को ज्यादा ही नसीहतें भी दी गयीं |
वैसे किसी को भी हिदायतें देने में गुरेज नहीं किया गया | अशोक भाटिया भैया ने जिसको बक्शा तो बलराम भैया ने उसका कान खींचा और बलराम भैया से वही छूटे, जिन्हें प्रसंशा में लिपटा कर कड़वी दवा अशोक भाटिया भैया पहले ही खिला चुके थें | कुल मिलाकर कुम्हार की भांति ठोका-सम्भाला दोनों जन ने | इस लिंक पर हमारे नकारे मोबाईल द्वारा वीडियो तैयार की हमने बड़ी मुश्किल से | क्योंकि आगे बैठे लोग मुंडी घुमा -घुमाकर परेशान कर दिए थे | लेकिन वीडियो बनाना था, ठान चुके थे अतः सफल रहे | आप सब भी देख सकते हैं इस लिंक पर जाकर ..
 https://www.youtube.com/watch?v=mUv_WAdGIZs&t=342sअशोक भाटिया भैया
https://www.youtube.com/watch?v=Lb6k0h8Nc9s बलराम भैया
और हाँ कहते-कहते यह भी कह दे कि अपनी लघुकथा सीमा भी पसंद आई कई लोगों को ..सभी का शुक्रिया इस माध्यम से भी ..इस पर जाकर आप सुन सकते हैं ...
https://www.youtube.com/watch?v=z8P_hGXrbQQ
हिंदी कथाओं और समीक्षा के बाद चाय पीने की घंटी बज चुकी थी | सभी बाहर जाने लगें |
फिर चाय और नाश्ता का दौर आपसी मेलमिलाप और वार्ता के बीच चला | उसके बाद फिर हॉल की ओर उन्मुख हुए सब | फिर से पंजाबी कथाओं का दौर शुरू होना था | लेकिन एक घंटे में ही जब सब एक-एक करके बाहर होने लगे थें | उसी बीच हम भी निकल आए | बाहर फोटोग्राफी चालू थी शरीक हो लिए | फिर बातचीत और खाना पानी रात का लिया गया |

लगातार 9 घंटे चला यह प्रोग्राम एक ऐतिहासिक कार्यक्रम के रूप में सम्पन्न होकर इतिहास रच गया होगा। इसके आगे-पीछे कोई इतिहास रहा होगा हमें नहीं पता | हमारे लिए तो यह पहला अनुभव था जो खुशगवार रहा |
हरियाणा पंजाबी साहित्य अकादमी पंचकूला की ओर से किए गए प्रबंध को लेखकों ने खूब सराहा और साथ ही जगदीश भैया श्यामसुन्दर अंकल और उनकी बिटिया दीपशिखा का आतिथ्य सत्कार भी गजब का था | इतना बढ़िया प्रबंध तो आदमी शादी-व्याह में अपने रिश्तेदारों की भी नहीं कर पाता है जितना पंचकूला में लेखकों के लिए किया गया था |

पंचकूला की हरियाली ने मन तो मोहा ही था साथ ही यह भी जतला दिया कि अतिथि देवो भव का संस्कार कहते किसे हैं |
फ़िलहाल कुल मिलाकर पंचकूला की यात्रा यादगार रहेगीं | जब भी मेहमान-नवाजी की बात आएँगी पंचकूला का जिक्र जुबान पर अवश्य ही आएगा | पंजाबी त्रैमासिक ‘मिन्नी’ व ‘हरियाणा पंजाबी साहित्य अकादमी’ के संयुक्त तत्वावधान में दिनांक 29.10.2017 को पंचकूला (हरियाणा) में आयोजित 26वाँ अंतर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन रात नौ साढ़े नौ बजे तक संपन्न हुआ।

फिर कार्यक्रम समाप्त होने के बाद जहाँ ठहरे थे वहां का रुख किया गया | पैदल ही अशोक दर्द भैया उनकी पत्नी, देवराज डडवाल भैया और उनकी पत्नी, नीता सखी, मनीषा और हम सब पैदल सैर करते हुए विश्नोई भवन पहुँचे | फिर थोड़ी बहुत वार्ता और सोना सुबह निकलना था भ्रमण पे कसौली |

आयोजकों और उनके सहयोगियों के हिस्से आयीं होंगी थकान, हम लाघुकथारों के हिस्से आई ढेर सारी मीठी यादें और सीखें | अब यह और बात है कि सम्मेलनों से सीखकर कितना आगे बढ़ पाते हैं | सभी को बधाई और आभार ..इती समाप्तम