Monday 25 December 2017

४ ) "लघुकथा अनवरत" साझा-लघुकथा-संग्रह (२०१७)

'लघुकथा अनवरत' दूसरा सत्र २०१७ साझा-लघुकथा-संग्रह- "अयन प्रकाशन"
सम्पादक द्वय ..श्री सुकेश साहनी और श्री रामेश्वर काम्बोज |
विमोचन- दिल्ली के पुस्तक मेले में जनवरी २०१७ में |
प्रकाशित तीन लघुकथाएँ .
१...जीवन की पाठशाला
2...सच्ची सुहागन
३..ब्रेकिंग न्यूज |
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१..जीवन की पाठशाला आगरा से लखनऊ का छ-सात घंटे का सफ़र। ट्रेन खचाखच भरी हुई थी पर भला हो उस दलाल का, जिसने सौ रूपये ज्यादा लेकर सीट कन्फर्म करा दी थी वरना सिविल सेवा परीक्षा देने जाना बड़ा भारी लग रहा था। दोनों ही सहेलियों ने गेट से लगी सीट पर धम्म से बैठ कब्ज़ा जमा लिया था।
सामने फर्श पर सामान्य कद-काठी का शरीरधारी, किसी दूसरे ग्रह का प्राणी लग रहा था। मैला-कुचैला सा कम्बल अपने शरीर के चारो तरफ लपेटे बैठा था। रह-रहकर सुमी उसे हिकारत भरी नजर से देख लेती और नाक-भौंह सिकोड़ते हुए अपनी सहेली तनु के साथ चर्चा में तल्लीन हो जाती। बात रसोई से शुरू हो, राजनीति तक जा पहुँची थी। अब तो दोनों सहेली एक दूजे पर कटाक्ष रूपी तीर छोड़ रही थीं। कभी तनु कटाक्ष से घायल, कभी सुमी तनु के मुख से निकली आग से रुई-सी हुई जा रही थी। तभी दोनों की चर्चा के बीच में एक तल्ख़ आवाज गूँजी- "ये राजनीति के बन्दे किसी के कभी हुए, जो अब होंगे। आपस का प्रेम ऐसे क्यों किसी ऐसे के लिए गवाँ रही हो, जो 'पानी में दिखता चाँद' सरीखा है। न वो शीतलता दे सकता है, न रोशनी और न ही पकड़ में आएगा।" दोनों अवाक-सी, दीनहीन से उस व्यक्ति को देखती रह गईं। सुमी यह सोच हतप्रभ थी कि सामान्य से दिखने वाले लोग भी दार्शनिक सोच रखते हैं। अब सफ़र का बचाखुचा समय, चुप्पी साध, मुग्ध सी, सिर्फ सुन रही थीं दोनों। चार घंटे से चुपचाप बैठे व्यक्ति ने जब मुँह खोला, तो चुप कहाँ हुआ। एक से बढ़कर एक फिलासफी भरी उसकी बातें। एकाएक सुमी ने पूछा- "बाबा, पढ़े कितना हो?" "पाठशाला में तो न गया, पर जीवन की पाठशाला बखूबी पढ़ी है।" सुमी और तनु के बैग में रखी डिग्रियाँ, अब जैसे उन्हें ही मुँह चिढ़ा रही थीं। ---००--- November 21, 2015 ..obo में पोस्ट
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2...सच्ची सुहागन 
पूरे दिन घर में आवागमन लगा था। दरवाज़ा खोलते, बंद करते, श्यामू परेशान हो गया था। घर की गहमागहमी से वह इतना तो समझ चुका था कि बहूरानी का उपवास है। सारे घर के लोग उनकी तीमारदारी में लगे थे। माँजी के द्वारा लाई गई साड़ी बहूरानी को पसंद न आई थी, वो नाराज़ थीं। अतः माँजी सरगी की तैयारी के लिए श्यामू को ही बार-बार आवाज दे रही थीं। सारी सामग्री उन्हें देने के बाद, वह घर के सभी सदस्यों को खाना खिलाने लगा। सभी काम से फुर्सत हो, माँजी से कह अपने घर की ओर चल पड़ा।
बाज़ार की रौनक देख अपनी जेब टटोली, महज दो सौ रूपये । सरगी के लिए ही ५० रूपये तो खर्च करने पड़ेंगे। आखिर त्योहार पर, फल इतने महँगे जो हो जाते हैं। मन को समझा, उसने सरगी के लिए आधा दर्जन केले खरीद ही लिए। वह भी अपनी दुल्हन को सुहागन रूप में सजी-धजी देखना चाहता था, अतः सौ रूपये की साड़ी और 
शृंगार सामग्री भी ले ली।

सौ रूपये की लाल साड़ी को देख सोचने लगा, मेरी पत्नी तो इसमें ही खुश हो जायेगी। उसकी धोती में बहत्तर तो छेद हो गए हैं। अब कोठी वालों की तरह न सही, पर दो-चार साल में तन ढ़कने का एक कपड़ा तो दिला ही सकता हूँ। बहूरानी की तरह मुँह थोड़े फुलाएगी। कैसे माँजी की दी हुई साड़ी पर बहूरानी नाक-भौंह सिकोड़ रही थीं। छोटे मालिक के साथ बाजार जाकर, दूसरी साड़ी ले ही आईं।
मन में गुनते हुए ख़ुशी-ख़ुशी सब कुछ लेकर घर पहुँचा। अपने छोटे साहब की तरह ही, वह भी अपनी पत्नी की आँख बंद करते हुए बोला- "सोच-सोच क्या लाया हूँ मैं?"
"बड़े खुश लग रहे हो। लगता है कल के लिए, बच्चों को भरपेट खाने को कुछ लाए हो! आज तो भूखे पेट ही सो गए दोनों।"
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३...ब्रेकिंग न्यूज़ 

मेरी गुड़िया
, मेरी बच्ची, कह-कह शर्माइन बेहोश हुई जा रही थीं।
विधायक शर्मा जी फोन-पर-फोन किए जा रहे थे, पर अभी तक कुछ पता नहीं चला था।
ब्रेकिंग न्यूज़ के नाम से घर-घर न्यूज़ दिख रही थी कि कद्दावर नेता की कुतिया किसी दुश्मन ने की गायब।
"कुतिया नहीं कहो, वर्ना चढ़ बैठेंगे।" किसी ने फुसफुसाकर कहा।
"विधायक की गुड़िया को किसी ने किया गायब।" सँभलते हुए पत्रकार बोला।
"कई टीमें हुई रवाना, खुद विधायक एक टीम को लीड कर रहे हैं।"
तभी कैमरे के सामने एक लाचार बुड्ढा आ गया।
"अरे बुड्ढे, कहाँ बीच में घुसे आ रहे हो।" धक्का मारते हुए पत्रकार बोला।
"बेटा, मेरी भी सोलह साल की गुड़िया खो गई है। उसे भी खोजने में मदद कर दो।"
"अब्बे बुड्ढा, जाके खोज, होगी कहीं मुँह काला कर रही। देख नहीं रहा, हम ब्रेकिंग न्यूज़ चला रहे।"
"बेटा ऐसा न कहो , मुझे शक है विधायक साहब ने ही गायब किया है। वह इन्हीं के यहाँ काम करती थी।महीने से यहीं भूखा-प्यासा बैठा हूँ, पर कोई नहीं सुन रहा।"
तुरंत फिर ब्रेकिंग न्यूज़ तैयार - 'कामवाली ने किया विधायक की 'गुड़िया' का अपहरण' अभी फ़रार बताई जा रही है। जल्दी ही खोज निकाला जायेगा उसे।
कैमरामैन बूढ़े को एक कुर्सी पर बैठा, पानी-समोसा आफ़र कर, मुस्कराते हुए बोला- "बाबा चिंता ना करो। विधायक की कुतिया यानी 'गुड़िया' की खोज में, तुम्हारी गुड़िया मिल ही जाएगी अब।"
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1/2/2015--ओबीओ में लिखा
यह यहाँ लघुकथा.कॉम वेबसाइट पर भी स्थान पा चुकी है...
http://laghukatha.com/%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87…/

Sunday 24 December 2017

३) 'अपने अपने क्षितिज' साझा-लघुकथा-संग्रह

'अपने अपने क्षितिज' साझा-लघुकथा-संग्रह -वनिका पब्लिकेशन 
सम्पादक द्वय -डॉ. जितेन्द्र जीतू जी और डॉ. नीरज सुधांशु जी |विमोचन- दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में जनवरी २०१७ में हुआ |
प्रकाशित चार लघुकथाएँ .

१..ज़िद नहीं 
2...हिम्मत
३...सुरक्षा घेरा
4..दर्द |



भूमिका में रचना का पोस्टमार्टम करना अच्छा लगा | ५६ लघुकथाकारों में से कुछ में अपना नाम भी शामिल है | ख़ुशी  के साथ मेहनत करने की प्रेरणा मिलती है | उत्साहवर्धन के लिए जितेन्द्र जीतू भैया का दिल से शुक्रिया :)
 
१.."ज़िद नहीं" लघुकथा इसी ब्लॉग के इस लिंक पर ..:)
 https://kavitabhawana.blogspot.in/.../blog-post_11.html...

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2..
हिम्मत (परिवर्तन)

नये साल की वह पहली सुबह जैसे बर्फानी पानी में नहा कर आई थी।10 बज चुके थे पर सूर्यदेव अब तक धुंध का धवल कंबल ओढ़े आराम फरमा रहे थे। अनु ने पूजा की थाली तैयार की और ननद के कमरे में झाँककर कहा, "नेहा! प्लीज नोनू सो रहा है, उसका ध्यान रखना। मैं मंदिर जा कर आती हूँ।"
शीत लहर के तमाचे खाते और ठिठुरते हुए उसने मंदिर वाले पथ पर पग धरे ही थे कि उसके पैरों को जैसे जकड़ लिया तीखी आवाज़ों ने। सहसा आवाज़ शोर में तब्दील हो रही थी। माहौल गर्म हो उठा था मुहल्ले का।
"मारो सालों को, काट दो सालों को। इनकी बहू-बेटियाँ भी न बचने पाएँ।" आक्रामक आवाज़ें गूँज उठी थीं।
सुषमा डर से थर-थर काँपने लगी। खुद को बचाए या घर में छोड़ आए अपने बेटे नोनू और ननद को। दरवाज़ा तो ऐसे ही ओढ़का आई थी। घर की ओर लपकी। उधर से भी वैसा ही शोर कानों में पड़ने लगा। मन्दिर की सीढ़ी पर ही उसके पाँव स्थिर से हो गए थे |
पंडित जी फ़रिश्ते की तरह लपके और उसका हाथ पकड़ उसे लगभग घसीटते हुए मन्दिर के अंदर करके दरवाजा बंद कर लिया।
"पंडित जी मेरी ननद और ..।"
"पहले अपनी जान बचाओं फिर ननद की सोचना।"
"ऐसे कैसे पंडित जी, ननद मेरी जिम्मेदारी है, उसको कुछ हो गया तो मैं अपने पति को क्या जवाब दूँगी। और मेरा नन्हा बच्चा भी है उसके साथ।"
"चिंता न करो! भगवान रक्षा करेंगे उन दोनों की भी।"
"नहीं पंडित जी! मुझे जाना होगा, मैं हाथ-पर-हाथ धरे बैठी रही तो मेरी दुनिया लुट जाएगी। भगवान भी तो उसकी मदद करते हैं न! जो खुद की मदद के लिए आगे बढ़ता है।" कहते हुए दरवाज़ा खोल निकल आई बाहर।"
शोर रह-रहकर  अब भी सुनाई दे रहा था। पीछे देखा तो पंडित जी भी साथ थे।
"पंडित जी आप!"
"हाँ बेटी, जब तुझ में इतनी हिम्मत है तो फिर मैं क्यों कायर बनूँ। मेरे लिए तो पूरा मुहल्ला मेरा परिवार है। सब की सुरक्षा मेरी भी तो जिम्मेदारी है।"
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9 September 2016

जिंदगीनामा:लघुकथाओं का सफर   सविता मिश्रा ’अक्षजा’
    
३..."सुरक्षा घेरा" लघुकथा इसी ब्लॉग के इस लिंक पर ..:)
 http://kavitabhawana.blogspot.in/2015/04/blog-post_13.html


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4.."दर्द" लघुकथा इसी ब्लॉग के इस लिंक पर ..:)
 http://kavitabhawana.blogspot.in/2015/07/blog-post.html


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Saturday 23 December 2017

२) "लघुकथा अनवरत" साँझा-लघुकथा-संग्रह

'लघुकथा अनवरत' सत्र २०१६ साँझा-लघुकथा-संग्रह-- "अयन प्रकाशन" 
सम्पादक द्वय ..श्री सुकेश साहनी और श्री रामेश्वर काम्बोज |
विमोचन दिल्ली में पुस्तक मेले में जनवरी २०१६

प्रकाशित चार लघुकथाएँ--
१..पेट की मज़बूरी
२..पुरानी खाई -पीई हड्डी
३..ढाढ़स
४..भाग्य का लिखा

१..पेट की मज़बूरी -

एक बूढ़े बाबा हाथ में झंडा लिए बढ़े ही जा रहे थे, कइयों ने टोका क्योंकि चीफ मिनिस्टर का मंच सजा था, ऐसे कोई ऐरा-गैरा कैसे उनके मंच पर जा सकता था |
बब्बू आगे बढ़ के बोला "बाबा, आप मंच पर मत जाइए, यहाँ बैठिये आप के लिए यही कुर्सी डाल देते हैं |"
"बाबा सुनिए तो..." पर बाबा कहाँ रुकने वाले थे |
जैसे ही 'आयोजक' की नज़र पड़ी, लगा दिए बाबा को दो डंडे, "बूढ़े तुझे समझाया जा रहा है, पर तेरे समझ में नहीं आ रहा |"
आँख में आँसू भर बाबा बोले, "हाँ बेटा, आजादी के लिए लड़ने से पहले समझना चाहिए था हमें कि हमारी ऐसी कद्र होगी | बहू-बेटा चिल्लाते रहते हैं कि बाप कागजों में मर गया २५ साल से ...पर हमारे लिए बोझ बना बैठा है | तो आज निकल आया पोते के हाथ से यह झंडा लेकर..., कभी यही झंडा बड़े शान से ले चलता था, पर आज मायूस हूँ जिन्दा जो नहीं हूँ ....|" आँखों से झर-झर आँसू बहते देख आसपास के सारे लोगों की ऑंखें नम हो गईं |
बब्बू ने सोचा जो आजादी के लिए लड़ा, कष्ट झेला वह ...और जिसने कुछ नहीं किया देश के लिए वह मलाई ....,छी...!
"पेट की मज़बूरी है बाबा वरना ..." रुँधे गले से बोल बब्बू चुप हो गया |
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"पेट की मज़बूरी" श्री कमल चोपड़ा द्वारा सम्पादित "संरचना-८" २०१५ पत्रिका में भी छपी |

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२..पुरानी खाई -पीई हड्डी~

अस्त्र-शस्त्रों से लैस पुलिस की भारी भीड़ के बीच एक बिना जान-जहान के बूढ़े बाबा और दो औरतों को कचहरी गेट के अन्दर घुसते देख सुरक्षाकर्मी सकते में आ गए |
"अरे! ये गाँधी टोपी धारी कौन हैं ?"
"कोई क्रिमिनल तो न लागे, होता तो हथकड़ी होती |"
"पर, फिर इतने हथियार बंद पुलिसकर्मी कैसे-क्यों साथ हैं इसके ?" गेट पर खड़े सुरक्षाकर्मी आपस में फुसफूसा रहे थे |
एक ने आगे बढ़ एक पुलिस कर्मी से पूछ ही लिया, "क्या किया है इसने ? इतना मरियल सा कोई बड़ा अपराध तो कर न सके है |"
"अरे इसके शरीर नहीं अक्ल और हिम्मत पर जाओ !! बड़ा पहुँचा हुआ है | पूरे गाँव को बरगलाकर आत्महत्या को उकसा रहा था |" सिपाही बोला |
"अच्छा! लेकिन क्यों ?? सुरक्षाकर्मी ने पूछा |
"खेती बर्बाद होने का मुवावजा दस-दस हजार लेने की जिद में दस दिन से धरने पर बैठा था | आज मुवावजा न मिलने पर इसने और इसकी बेटी, बीवी ने तो मिट्टी का तेल उड़ेल लिया था | मौके पर पुलिस बल पहले से मौजूद था अतः उठा लाए |"
"बूढ़े में इसके लिए जान कैसे आई ?" सुरक्षाकर्मी उसके मरियल से शरीर पर नजर दौड़ाते हुए बोला |
"अरे जब भूखों मरने की नौबत आती है न तो मुर्दे से में भी जान आ जाती है, ये तो फिर भी 'पुरानी खाई -पीई हड्डी' है |" व्यंग्य से कहते हुए दोनों फ़ोर्स के साथ आगे बढ़ गया |
"गाँधी टोपी में इतना दम, तो गाँधी में ..." सुरक्षाकर्मी बुदबुदाकर रह गया |
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३..ढाढ़स~

लैपटाप बेटी के हाथों में देख माता -पिता प्रसन्न थे | हों भी क्यों न, आखिर चीफ़ मिनिस्टर साहब से जो मिला था | उनकी बेटी पूरे गाँव में अकेली प्रतिभाशाली छात्रों में चुनी गई थी |
पूरा कुनबा लैपटाप के डिब्बों में कैद तस्वीरें देखने बैठ गया |
"बिट्टी, इ सब का है ? लाल-पीला |" माँ पहली बार रंगबिरंगे भोजन को देख पूछ बैठी |
"अम्मा, ये लजीज पकवान हैं | बड़े बड़े होटलों में ऐसे ही पकवान परोसे जाते हैं और घरो में भी ऐसे ही तरह तरह का भोजन करते हैं लोग |"
"और दाल रोटी ?"
"अम्मा, दाल रोटी तो बस हम गरीबों का भोजन है | अमीर तो शाही-पनीर, पनीर टिक्का , लच्छेदार पराठा आदि खाते हैं |
पीछे स्कूल जाने के लिए तैयार खड़ा जीतू तपाक से बोला - "दीदी, मुझे भी खाना है यह !"
"जितुवा तू फिर चिपक गवा |" अम्मा गुस्सा होती हुई बोली |
" अरे परवतिया के बाबू, इसको सकूल छोड़ आओ, देर भई तो मास्टर भगा देगा |"
जीतू रोते हुए बोला- "मुझे नहीं पढ़ना, दीदी के साथ लैपटाप पर पिक्चर देखना है |"
"अरे बाबू, पढ़ेगा नहीं तो मेरे जैसे ये लैपटाप कैसे पायेगा | तेजतर्रार छात्र को सरकार लैपटाप देती है कमजोर को थोड़े | "
जूते पहनाते हुए पार्वती बोली, "और कल खाना है न रंगबिरंगा पकवान | आज ही बीबी जी कहीं थी, कल किटी है जल्दी आ जाना | किटी में खूब बचता हैं बढ़िया-बढ़िया पकवान | वो सब तेरे लिए लेती आऊँगी |" सुनकर जीतू के साथ- साथ बाबा के मुँह में भी पानी आ गया | सामने आई नमक रोटी की थाली ठेल चल दिए |
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Jul 6, 2015 को ओबीओ में लिखी|
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४..भाग्य का लिखा ~


शादी तय होने की बात पर रश्मि का गुस्सा फूट पड़ा माँ पर .... "क्या चाहती हैं आप ? क्यों पर कुतरना चाह रही हैं मेरे |"
"उन्मुक्त हो उड़ रही हो | तुम्हारी उड़ान पर किसी ने पाबन्दी लगायी क्या कभी ?" माँ ने रोष में जवाब दिया |
" हाँ माँ लगाई !! " खीझकर रश्मि बोली |
" पढाया-लिखाया , जो चाहा वो दिया | कौन सी पाबन्दी लगाई तुम पर |"
" तेईस की उम्र में ही पाँव में बेड़िया डाल दीं आपने और पूछ रही हैं कौन सी पाबन्दी लगायी ? खुला आकाश बाहें फैलाये मेरे स्वागत के लिए बेताब था, पर आपने मेरे पर ही कतर दिए |"
" ऐसा क्यों बोल रही है ? शादी तो करनी ही थी तेरी | अच्छा लड़का बड़े भाग्य से मिलता है | तेरे पापा के अंडर ट्रेनिंग किया है | तेरे पापा कह रहे थे एक दिन कामयाब आइपीएस बनेगा |"
" हाँ माँ पापा की तरह कामयाब आइपीएस तो होगा, पर पापा की तरह पति भी बन गया तो ?" चेहरे पर कई भाव आये चले गये |
बेटी के शब्द सुमन के दिल में 'जहर बुझे तीर' से चुभे | चेहरे पर उभरते हुए दर्द को छुपाते हुए बोली- " भाग्य का लिखा कोई मिटा सकता है क्या ?"
"हाँ माँ, मिटा सकता है... जैसे पापा ने आपको इस्तीफा दिला मिटाया आपका अपना भाग्य | नहीं तो आज आप पापा से भी बड़ी अफसर होतीं पर ...अपनी लकीर बड़ी तो खींच नहीं पाए, पर आपकी लकीर छोटी.. छोड़िए, उन्होंने तो वजूद ही मिटा दिया |"
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Friday 15 December 2017

बेबसी

"किसका इंतजार हो रहा ..? नैहर वालों का या फिर ससुरालियों का!" बरामदे में पत्नी को चहलकदमी करते देख पति ने उसे आवाज़ लगाकर चुटकी ली।
"कुछ साल पहले, यही सूना घर कितना गुलज़ार रहता था न! कभी बच्चों के दोस्त, कभी आपके महकमे दोस्त, कभी मेरी अपनी पहचान के लोग या फिर पड़ोसी ही अपने आस-पास जुटे ही रहते थे।" पति के पास बैठकर मायूसी भरे स्वर में पत्नी बोली।
"हाँ, और यह मोबाइल भी जब मन होता था घनघना उठता था।
मोबाइल हाथ में लेकर नम्बरों को अलटते-पलटते हुए कुछ यादकर मुस्करा पड़ा पति।
"मोबाइल तो न दिन देखता था, न ही रात। नये-नये बने रिश्तेदारों के फोन तो हर दूसरे दिन आ ही जाते थे।" पत्नी ने समर्थन में आगे कहा।
"पहले तो तुम भी अपना मोबाइल रोज ही, फिर हफ्ते भर में तो उठा के देख ही लेती थी! अब महीनों से छुआ ही नहीं तुमने उसे!" कोने में दुबके हुए मोबाइल को देख पति ने शिकायती लहजे में पत्नी से कहा।
"हाँ, सब नम्बर निहारती रहती थी। किसका नम्बर मिलाऊँ..S..! ज़ेहन में ऐसा कोई अपना याद आता ही नहीं था, जिसने मुझे फोन करके हालचाल लिया हो।" मोबाइल पर अछूत-सी दृष्टि डालकर पत्नी बोली।
"पदच्युत इन्सान को कौन पूछता है! पर अपने बच्चे!"
"बच्चे भविष्य की राह गये तो पलटकर तो आना था नहीं। लेकिन उनके फोन.!" ठंडी लम्बी साँस छोड़ते हुए पत्नी बोली।
"मेरा फोन भी जल्दी ही काट देती थी तुम! यह कहकर कि बच्चों के फोन आने का समय हो रहा।" पति ने पत्नी की ठुड्डी पकड़कर बोझिल माहौल को धकेलते हुए प्यार से कहा।
"हाँ, शुरू में बेटे-बहुओं का फोन सुबहो-शाम कानों में सुरीली बाँसुरी जो बजाता रहता था।
लेकिन...!" बच्चों को यादकर आर्द्र कंठ से वह बोली।
"लेकिन, बाद में उनके भी फोन आने कम हो गये, फिर तो धीरे-धीरे लगभग बन्द ही हो गए।" स्वर की निराशा दुःख के गहरे समुद्र में गोते लगाने फिर से जा पहुँची।
"हाँ, कभी मैं फोन करती थी तो हमारा हाल पूछे बिना ही "बिजी हूँ माँ" कहकर काट देंते थे। अब तो कई महीनों से यह मुआ डब्बा (मोबाइल) गुनगुनाया ही नही।"
बात करते-करते उसने मोबाइल उठाया और सारे के सारे नम्बर उसमें से डिलीट कर दिया। अब मोबाइल में सिर्फ एक दुसरे का नम्बर चमक रहा था।

सविता मिश्रा
अक्षजा
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Thursday 14 December 2017

"ज़िन्दा है मन्टो" लघुकथा संग्रह

दूसरा भाग ---

कुछ चीजें नहीं लिखे, चित्र के जरिये बता रहे...असल में सब कथाओं का नाम क्यों लिखे ऐसा सोचने पर यह तरीका बेस्ट लगा हमें ..:)

लिखना था अतः पूरी हिम्मत बटोरी फिर पढ़ा हमने यह संग्रह। केदारनाथ "शब्द मसीहा" भैया का पहला लघुकथा संग्रह है | पूरे ९८ तरह के फूलों का तीखा-मनमोहक-सुगन्धित गुलदस्ता | दो तीन कथाएं पढ़ते ही मन्टो साहब (अभी हाल ही में ६-७ कथाएँ पढ़कर ही जिन्हें हमने जाना) की लिखी कथाओं का जायका लें सकते हैं |
पान भले आप दिल्ली में खाये या आगरा में या फिर लखनऊ में, लेकिन बनारसी पान सुनते ही बनारस का स्वाद-रस तन-मन में समाने लगता है, वही हाल किताब के शुरूआती कथाओं पढ़कर और कवर पेज को देखकर महसूस होगा, गारंटी |
फिर भटक रहे ! नहीं ! नहीं ! हम भटक कतई नहीं रहे, सीधे विषय पर ही हैं | पहली कथा "माँ हूँ" आपकी शांत पड़ी भावनाओं में उथल-पुथल मचा देगी फिर आप अगली फिर अगली कथा पढ़ते ही जायेंगे | यह देखने के लिए कि कौन सी कथा में कितना जहरीला-तीक्ष्ण तीर आपकी सोयी पड़ी अंतरात्मा को कितना अधिक भेदता है, जगाता है |
शानदार लेखन शैली में समाज की विडंबनाओं, दीमक की तरह खोखला करते अन्धविश्वासों, और इंसानी जीवन को नर्क के द्वार तक ले जाते रूढ़ियां-मान्यताओं को उजागर किया गया है | बेहतरीन शिल्प ने कथाओं में चार चाँद लगा दिया है | अपने विचारों का कथा माध्यम से सम्प्रेषण इतनी सरलता से हुआ है कि बात पाठक तक आसानी से पहुँच जाती है |
''चुनाव आने वाले हैं'' नेताओं द्वारा दंगे कराने की कड़वी सच्चाई बयान करती है तो ''अदा'' के माध्यम से औरतों को मुफ्त में मिली उपलब्धियों पर तीर भी कसती है।
"बिना जड़ों के पेड़" अपने बच्चों के बिना चहक उठते हैं तो ''बच्चा'' में माँ का प्यार बेटे के प्रति दिखता है। अपने स्वार्थ के वशीभूत हो गिरता चरित्र में परिलक्षित होता है। ''नीच" में मानसिकता की नीचता दिखती है तो "ताजमहल" में बुजुर्गों और अपनी जड़ों से बेरुखी उजागर होती है।

"खून के आँसू" नाकामयाब रही संवेदना को जगाने में। हमें लगता है जो दर्द दिखाना चाहा वह सम्प्रेषित नहीं हुआ । अंत झटका देती है लेकिन बीच में बेटी को लाना सही नहीं लगा।
"एडिटर" हर तरफ नागफनियाँ हैं यदि साहित्यिक समाज की रत्ती भर भी यह सच्चाई है तो घिन आती है ऐसी कलम से और ऐसे कलम के मसीहों से। जिस कालखण्ड की लघुकथा में बात की जाती है उससे भी अछूती न रही यह।
अब पूरे पेड़ की बात करते हैं हम। अलग-अलग डालियों के चित्रण में लंबी कहानी लिख दी जाएगी मेरे द्वारा। और सबको पढ़ने में दिक्कत होगी। वैसे भी इतना बड़ा ही शायद कोई पढ़ना चाहे, शायद इस संग्रह के लेखक खुद भी ।
शायद पढ़ी जाय इस उम्मीद पर लिखे जा रहे। उम्मीद पर दुनिया कायम है। और अपनी उम्मीद जिन्दा रखने के लिए हम संक्षेप में सब कथाओ की बात करते हैं।
चुटीली भाषा शैली का उपयोग करते हुए आम जीवन से उठाये गये विषय हैं। बिल्कुल अपने ही आसपास से। जो एक आम इंसान देखकर छोड़ देता है लेकिन एक लेखक उस वाकयों को पकड़कर कलम के द्वारा शब्दों में बांध लेता है।


कुल मिलाकर हमारी नजर में तो लेखक भी एक शातिर चोर की तरह है, जो आपके नजरों के सामने ही किसी क्षण को चुराकर, उसमें शब्दों के औजारों द्वारा सेंध लगाता हुआ साहित्यिक सुरंग बना लेता है और जब पढ़ते समय आपको पता चलता है कि यह तो आपके साथ ही घटित हुआ था तो आप दाँतो तले ऊँगली दबाए बिन नहीं रह पाते हैं।

मसीहा भैया का कथा संग्रह पढ़ते हुए ऐसा ही लगा हमें, क्षण- क्षण की घटना की कथाएँ भरी हुई हैं उनके इस संग्रह में।
सबको पढ़कर लगा अपने ही पास बिखरें घटित घटनाओं के तीर तो हैं जो मसीहा भैया के धनुष पर चढ़ते ही सीधे हमारे दिल में जा लगें हैं।
संग्रह पढ़ते हुए फेसबुक पर भी कथा और टिप्पणी पढ़ते रहें। जिसे पढ़कर यह बात समझ आयी कि कथा-कहानी अच्छी खराब नहीं होती, हमारे मन को भायी तो अच्छी और नहीं भायी तो खराब | माने हमारे विचार, मन, पसन्द के दायरे से कथानक बाहर की निकली तो पसन्द नहीं आती। लेकिन कथा-कहानी के नियम - शिल्प- शैली जानते हैं तो कथा के उसमें फिट बैठने पर बिन मन के भी कहना पड़ता कि अच्छी है।

सविता मिश्रा 'अक्षजा'


लघुकथा संग्रह--"ज़िन्दा है मन्टो"
 
लेखक-- केदारनाथ "शब्द मसीहा"
प्रकाशक-- के. बी. एस. प्रकाशन, नयी दिल्ली
मूल्य---- 300 रु (जो की हमें ज्यादा लग रहा, पाठक की पहुँच में रहनी चाहिए) 
संपर्क-- मकान न. 46-ए, अनारकली गार्डन, जगत पुरी
नजदीक शिव साई हनुमान मंदिर
दिल्ली -- 110051
मोबाईल -- 9810989904
ईमेल -- kedarnath151967@gmail.com

Tuesday 12 December 2017

किताब पढ़ते हुए--"ज़िन्दा है मन्टो" नामक संग्रह



"ज़िन्दा है मन्टो" नामक संग्रह को पढ़ते हुए सबसे कष्टप्रद बात हमारे लिए हुई, वह है पेज की बर्बादी। दो -तीन लाईन की कथाएँ और पूरा खाली पेज मुँह चिढ़ाता रहा। ऐसे प्रकाशकों से खास गुज़ारिश है हमारी कि मेहरबानी करके पन्ने को खाली नहीं छोड़िये।
धरती-आकाश दोनों ही अपना कोई कोना सादा रंगहीन नहीं छोड़ते। यह सादापन हद से ज्यादा खलता है। रेगिस्तान को भी ध्यान से देखे तो वलय द्वारा उसमें मनोरम दृश्य दिखेगा।
यदि यह विनती प्रकाशक स्वीकार कर लेंगे तो कृतज्ञ होंगे हम।
अब आते हैं मन्टो पर। गुढ़ लघुकथाओं को समझना हमारे लिए बड़ा ही कठिन काम होता है। मसीहा भैया ने जब हमें 'एक लम्हा जिंदगी' के विमोचन के स्टेज पर इस संग्रह को भेंट किया तो बहुत खुशी हुई थी। लेकिन घर आकर जब पन्ने पलटे तो एकबारगी हमारी नानी ही मर गयी।

इस संग्रह की कथाओं को पढ़कर समझ लेना हमारे लिए चींटी का पहाड़ चढ़ने जैसा था। बहुत छोटी, छोटी थीं अतः 20-30 पढ़ डाली, पढ़ना और समझना यानी जमीन और आसमान का अंतर था। यह अंतर पढ़कर तय करना बड़ा कठिन लगा । अतः न चाहते हुए भी मेज से उछलकर संग्रह अलमारी में बंद हो गया।
लेकिन किताब पढ़कर कुछ कहना और उस कहन को लेखक द्वारा सुनना, यही तो एक गांठ है जो किताब भेंट में देने और लेने की कड़ी को मजबूत करता है।

इस आपसी लेखन और समझन की सम्बन्ध से बनी गांठ फूल की भी होती है और कांटे की भी। किताब लेकर उसे इधर-उधर फेंक देना या रद्दी में दे देना, कांटो का बीज रोपित करता है। गलती से भी लेखक कहीं अपने मन में कांटों की रोपाई न कर लें, इस कारण दो शब्द तो कहना बनता है।

प्रसन्नता से दी गई भेंट हमें खुशी देती है। पढ़कर दो शब्द ही सही बोलना था लेकिन बात कल पर टालने की भयंकर बीमारी के चलते चाहकर भी नहीं लिख पाए थे ।
गर्म तवा पर रोटी सेंकने के ही हम अनुयायी। ठंडा होने पर लगता है भूखे ही सो जाएं | अब फिर तवा को गर्म क्यों किया जाय।
लेकिन उपहार देते समय हमें ऐसा याद आता रहा कि भैया ने कहा था इसको पढ़कर बताना।
तो लीजिए हमने महीनों बाद तवा गरम किया यानी फिर से पढ़ा "ज़िन्दा है मन्टो"। हाँ इस बीच मन्टो की चार- छः कथाएँ पढ़ चुके थे, उसपर आये कमेंटों से समझ चुके थे गूढ़ता। जिसमें से "खोल दो" को पढ़कर सीधे आज की तस्वीर अपने सामने चस्पा हो गयी। जो शायद कल की भी हकीकत रही होगी। मतलब कि यह कहा जा सकता है कि जमाना औरतों के लिए न कल बदला था न आज बदला है। महिलाएं कल भी घटियापना और शोषण की शिकार थी आज भी है।
खैर बात करनी है हमें "ज़िन्दा है मन्टो" लघुकथा संग्रह की और हम हैं कि यहाँ वहाँ भटक रहे हैं। असल में मसीहा भैया की कथाओं को पढ़कर अपनी छोटी सी बुद्धि चाहकर भी बड़ी नहीं हो पा रही। इसलिए मुद्दे की बात पर आने में कोताही कर रहे हैं।
अच्छा छोड़िये, सच में आते हैं हम, मुद्दे पर ही। अतः पूरी हिम्मत बटोरी फिर पढ़ी हमने यह संग्रह। और लिखेंगे भी ..क्रमश : ---सविता मिश्रा 'अक्षजा'

Saturday 9 December 2017

१..) 'मुट्ठी भर अक्षर' साझा-लघुकथा-संग्रह

२४ अप्रैल २०१५ में 'मुट्ठी भर अक्षर' साझा-संग्रह ...हिंदी युग्म प्रकाशन
सम्पादक द्वय ..विवेक कुमार और श्रीमती नीलिमा शर्मा |
विमोचन दिल्ली के हिंदी भवन में 24 April 2015 को |
हमारा पहला साझा-लघुकथा-संग्रह |
प्रकाशित छः लघुकथाएँ ..
१..हस्ताक्षर
२...हाथी के दांत
३...जन्मदाता
४...आस
५...बदलते भाव
६...खुशी में छुपा गम
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इन तीस बाक्सों में बंद एक शक्ल अपनी भी और 'मुट्ठी भर अक्षर' में चंद अक्षर के माध्यम से अपनी भी भावनायें व्यक्त हैं लघुकथा रूप में ...| हम तो हम बाकी २९ रचनाकार और भी हैं | आप सब पढ़ रहे हैं न ?
हमारी लिखी हुई लघुकथा न पसंद आये तो और सब अच्छे लेखक हैं | पैसा पानी में नहीं जायेगा ...| गारंटी ..न न वो तो संभव नहीं 
30 संभावनाशील लघुकथाकारों की प्रतिनिधि लघुकथाओं के संग्रह 'मुट्ठीभरअक्षर' का संपादन किया है विवेक कुमार और नीलिमा शर्मा निविया ने।


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दिल्ली ..लघुकथा ..'मुठ्ठी भर अक्षर' के विमोचन के वक्त अपनी दो कथाओं का पाठ करते हुए हिंदी भवन के प्रांगण में ..24 April 2015...
https://www.youtube.com/watch?v=mm7KcQ981i4...
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मुट्ठी भर अक्षर में निहित अपनी छ: लघुकथाएँ ....
१) हस्ताक्षर

कभी हर बात पर ज्वालामुखी की तरह उबल पड़ती थी शिखा | वही ज्वालामुखी अब राख के ढेर में तब्दील हो चुका था | जिस नींव से उसके क्रोध की इमारत बुलंद खड़ी थी, वो बादल फटने से जमीदोश हो चुकी थी | उस तबाही का मंजर उसकी आँखों के सामने रह-रह के तैर जाता था |
कभी माँ-बाप की कमी खलती, तो कभी भाई बहनों की याद में वह रो पड़ती थी |
 रोने पर भी भाइयों के पास नहीं जाने मिलेगा, जानती थी शिखा ! फिर भी आँसू थे कि झर-झर बहते ही रहते थे | बहते हुए आँसू भी काफ़ी कहाँ थे उस शांत ज्वालामुखी को भी ठंडा रखने के लिए | अतः उसकी गर्मागर्मी हो ही जाती थी पति और उसके परिवार वालों से | जब तब पति, पिता की छोड़ी दौलत में हिस्सा मांगने का दबाव डालता रहता था |
दहेज़ लोभी पति ने उस दिन हाथ उठाया तो ज्वालामुखी की राख में दबी चिंगारी दहक उठी | वह पति का घर छोड़कर मायके की राह पकड़ ली | मायके की गलियों में अभी दाखिल भी नहीं हुई थी कि बाढ़ में खंडहर हो चुका घर देखकर शिखा फफक पड़ी |
अचानक मोबाइल की घंटी सुनसान वातावरण को झंकृत कर गई| मोबाइल उठाकर शिखा कुछ बोल भी न पाई थी कि दूसरी ओर से आवाज आई, "कल तक तलाक के पेपर पहुँच जायेंगे, हस्ताक्षर कर देना |" रोते रोते बेहाल हो शिखा वहीं गिर पड़ी |
थोड़ी देर बाद ही वकील ने उसके पति को फोन करके कहा, ''अब आपको तलाकनामे पर शिखा के हस्ताक्षर की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी और न हम वकीलों की ही | भगवान ने खुद ही हस्ताक्षर कर दिया |''

29/8/2014--नयालेखन ग्रुप
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२) "हाथी के दांत"

लोगों से साल में सौ घंटे सफाई की मोदीजी की अपील से उत्कर्ष की जान सांसत में थी | वह पिछले दो दिन से बुझा-बुझा सा था| आज बहुत खुश देखकर उसकी पत्नी ने पूछा .. "क्यों जी! बड़े खुश हो क्या बात है?"
उत्कर्ष बोला -"ख़ुशी की ही बात है न कि नौकरी से निकाले जाने का कोई खतरा नहीं रहा | इतनी मुश्किल से नौकरी मिली है | डबल एम.ए. करने के बाद भी कितने साल नौकरी के लिए भटका हूँ, तुम्हें पता ही है | वह तो भला हो बाबू कृपा शंकर जी का कि उन्होंने ले-देकर यह नौकरी पक्की करवा दी | वर्ना भूखों मरते या फिर चोरी कर रहे होते और तेरे पिता, तेरा हाथ भी ना देते मेरे हाथ में...|"
कहकर ठहाका लगाकर हँस पड़ा उत्कर्ष और कहना ज़ारी रखा - "मुझे लगा मोदीजी के आह्वान से लोग सफाई खुद ही कर लेंगे ! सड़क पर गंदगी नहीं करेंगे! यह सोचकर मैं थोड़ा उदास था | पर आज सड़क पर कूड़ा बिखरा देख दिल खुश हो गया | और जानती है, मजे की बात यह है कि कल जो फोटो में थे झाड़ू लिए हुए थें, उन्ही की सोसायटी के सामने ज्यादा कूड़ा बिखरा था |
आज सच में बहुत खुश हूँ | जान बची लाखों पाए | बड़े-बड़े लोग सिर्फ फोटो खिंचवाने के लिए ही हैं ! सफाई तो हम जैसे जरूरत-मंदों की ही मज़बूरी है |
आज उन्हीं सोसायटी वालों ने अच्छे से सफाई करने को कह पूरे हजार का नोट दिया | कह रहे थे कि कोई चैनल वालें कवरिंग करने, किसी बड़े नेता के साथ आ रहे हैं |.....सविता मिश्रा
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३) "जन्मदाता"

"आज तो आपने माँ दुर्गा और गणेशजी की मूर्तियाँ बेचकर काफी रुपया इकट्ठा कर लिया |"
"हाँ इमली, कर तो लिया |"
"अरे, तो फिर उदासी क्यों हो ? "
"देख रहा हूँ कि आज लोग मूर्ति खरीदते समय वह भाव नहीं रखते, जो पहले रक्खा करते थे |"
"तुम्हें कैसे पता चला कि लोग अब वैसा भाव नहीं रखते ?"
उसने आँख दिखाते हुए कहा, "तुम्हीं बताओ, तुम्हें कैसे पता चलता है कि किसने तुम्हारे बच्चों को किस नजर से देखा ? रोज ही शिकायत करती हो कि वह हमारे बबुआ को बड़ी जलन भाव से देख रही थी या वह हमारी बिटिया को ललचाई हुई गिद्ध नजरों से घूर रहा था ?"
"ये भी कोई बात हुई ! मैं माँ हूँ उनकी | अपने बच्चों पर गिरती हर नजर को भलीभाती पढ़ लेती हूँ मैं |"
"तो फिर ये मूर्तियाँ भी तो मेरे लिए मेरे संतानों जैसी ही हैं न !" वह उसकी आँखों में नजरें गड़ाकर बोला |
इमली उसकी झील-सी निगाहों में झाँकती ही रह गयी |
सविता मिश्रा ‘अक्षजा'
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४)"आस"

कृषकाय भीखू एक तोंदधारी सेठ के अनाज-गोदाम में काम कर रहा था |
गोदाम में बिखरे दानों पे सेठ को चलता देख भीखू को माँ की सीख याद आ गयी - 'अन्न का अपमान नहीं करना चाहिए |'
...ये अमीर लोग क्या जाने इन दानों की कीमत? यह तो कोई मुझसे पूछे, जिसके घर में हांडी में अन्न नहीं, पानी पकता है |
दोस्त ने कहा था कि मोटा गैंडा काम खूब कराता है | मजदूरी की जगह वहाँ पर गिरे अनाज घर ले जाने को बोल देता है | रूपये के बदले अनाज में तो फायदा है, बस इसी आस में आज इस सेठ के गोदाम में आ गया था वह | सोचता हुआ सेठ को कुछ न कह सकने पर खीझ उठा भीखू |
उसने नजर दौड़ाई आज गोदाम में कुछ ज्यादा ही अनाज फैला था | विद्रूप हँसी, हँसा ! फिर बोरे को सरकाते हुए जान-बूझकर उसने और अनाज गिरा दिया | गिरे हुए ढेर को देख भीखू खुश हो मन ही मन बोला- "आज माँ भूखी नहीं सोयेगी..|"
झाड़ू मार ही रहा था कि कानों में भीमकाय सेठ की कर्कश आवाज गूँजी - "अब्बे छोरे ! जल्दी-जल्दी हाथ चला, खाया नहीं है क्या?"
सुनते ही भीखू सकपका कर थम गया | उसके भयभीत चेहरे पर टिकी सूनी आँखें पनीली हो उठी |
"अरे क्या हुआ...काम नहीं होता तो फिर यहाँ आया क्यों ?"
"सेठ जी ! सुबह से कुछ नहीं खाया हूँ | माँ कल रात में चावल का माड़ पिला के सुला दी थी ..|" भीखू मिमियाया |
"ओह ! तो ये बात है | ले, तू ही खा ले | आज सेठाइन ने ज्यादा ही खाना भेजा है..! तू भी भरपेट खा ले | और हाँ, खाकर अच्छे से साफ़-सफाई करना ! भले कितनी ही देर हो जाये |" भीखू की व्यथा सुन उसका ह्रदय नारियल-सा हो गया था | अतः आधी टिफ़िन भीखू को दे डाली |
बढ़िया स्वादिष्ट खाना देखते ही भीखू की वर्षो से अतृप्त इन्द्रियाँ तृप्त हों गयी |
जमीन पर गिरी गेहूँ की ढ़ेरी देख सेठ मुस्कराया, फिर पलटकर भीखू से बोला- "और हाँ, फर्श पर बिखरे अनाज को बीनकर घर लेते जाना, मजदूरी |"
ख़ुशी-ख़ुशी चहकती आवाज में भीखू बोला- "जी, सेठ जी !" अब उसके हाथ बड़ी फुर्ती से चलने लगे |
........#सविता मिश्रा '#अक्षजा'
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(अगस्त २०१७ में उद्गार ग्रुप में उत्कृष्ट रचना सम्मान मिला)
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५)  बदलते भाव-

"मर गया नालायक! देखो तो, कितना खून पीया था | उड़ भी नहीं पाया, जबकि सम्भव है इसने खतरा महसूस कर लिया होगा |" 
"अरे मम्मी, आप दुखी नहीं है अपना ही खून देखकर ?"
"नहीं, क्योंकि यह अब मेरा खून नहीं था, इसका हो गया था |"
"आप भी न, उस दिन उँगली कटने पर तो आपके आँसू नहीं रुक रहे थे | और आज अपना ही खून देखकर आप खुश हैं |"
''जो मेरा होता है, उसके नष्ट हो जाने पर कष्ट होता है। पर मेरा होकर भी जो मेरा न रहे, तब उसके नष्ट हो जाने पर मन को संतुष्टि होती है, समझा?''
"बस मम्मी, अब यह मत कहने लगिएगा कि यह खून पीने वाला मोटा मच्छर, कोई ठग व्यापारी या नेता है या फिर कोई भ्रष्ट अफसर! और उससे निकला खून, आपके  खून पसीने की कमाई ! जिसे पचा पाना सबके बस की बात नहीं !"
"मेरा पुत्तर, कितना समझने लगा है मुझे..! छीन-झपटकर कोई कब तक जिंदा रह सकता है भला | पाप का घड़ा एक न एक दिन तो फूटता ही है |"
24 April 2015
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
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६) "भूख"

थका हारा डॉक्टर घर पहुँचते ही सोफे पर पसर गया |
पत्नी के हाथो से पानी का गिलास लेते हुए बोला, "लोग कितने निर्दयी होते हैं वसुधा! जानती हो, आज एक औरत पाँचवाँ ..! उसका पति पुराने ख्यालात का है, उसे लड़का चाहिए और बार-बार गर्भ में लड़की ही आ रही है |"
"ओह..! तो आज फिर अबार्शन ..!"
"चलो छोड़ो ! हमें क्या करना | हमें तो हमारी ख़ुशी मिली, उन्हें उनकी |" लंबी साँस भरते हुए डॉक्टर बोला |
उठकर ब्रीफकेस से अपनी ख़ुशी को निकालकर तिजोरी में बंद कर दिया | भोजनोपरांत डॉक्टर चैन की नींद सो गया |
बिस्तर पर लेटते ही रोज की तरह पत्नी सोचती हुई बुदबुदाई- कहीं यही कारण तो नहीं, जो आज तक हमारी गोद सूनी है ! पर इन्हें कौन समझाए, कि रूपये की इनकी ये भूख, घर में सुख नहीं बल्कि अदृश्य कांटे भर रही है ! जो सिर्फ मुझे दंश दे रहा | जब तक इन्हें इसकी चुभन होगी तब तक शायद बहुत देर हो जाए |" एक बार फिर आँसुओं की नन्हीं नन्हीं बूँदें तकिए की गोद में सोने चलीं थीं | और वसुधा के कानों में बच्चों की किलकारियों को सुनने की भूख फिर उमड़ आयी थीं |
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
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पांचवी और छटवीं  शीर्षक सहित थोड़ी बदल दी गयी है |


सालो से मन था कि sheroes जाके मिलकर आये । वर्ण पिरामिड और मुट्ठी भर अक्षर' उन्हें भेंट भी करके आये।😊

Sunday 3 December 2017

मोह ("चिलक")

टीस
"अँजुली में गंगाजल भरकर यह कैसा संकल्प ले रहे हो रघुवीर बेटा? इस तरह संकल्प लेने का मतलब भी पता है तुम्हें !" गंगा नदी में घुटनों तक पानी में खड़े अपने बेटे को संकल्प लेते देख पूछ बैठा पिता |
"पिताजी ! आप अन्दर-ही-अंदर घुलते जा रहे हैं | कितनी व्याधियों ने आपको घेर लिया है | नाती-पोतों की किलकारियों से भरा घर, फिर भी आपके चेहरे पर मैंने आज तक मुस्कराहट.. |"
आहत पिता ने कहा- "बेटा ! अपने नन्हें-मुन्हें बच्चों को बिलखता हुआ छोड़कर कोई माँ कैसे जा सकती है ! इस कैसे-क्यों का प्रश्न मेरे जख्मों को भरने ही नहीं देता |"
"पिताजी तभी तो..!"
पिता बेटे की बात को बीच में काटते हुए बोले - "बेटा ! पैंतीस सालों में परिजनों के कटाक्ष को दिल में दफ़न करना सीख गया हूँ मैं | उसके जाने के बाद समय के साथ समझौता भी कर लिया था मैंने | हो सकता है उसके लिए उस व्यक्ति का प्यार मेरे प्यार से ज्यादा हो ! इसलिए वो मेरा साथ छोड़कर, उसके साथ चली गयी हो |"
"मैं उन्हें ...!"
बेटा क्रोध में बोल ही रहा था कि पिता ने दुखी मन से कहा -"फिर भी बेटा! मैं सब कुछ भूलना चाहता हूँ! परन्तु यह समाज मेरे जख्म को जब-तब कुरेदता रहता है |"
"समाज के द्वारा आप पर होते कटाक्ष की इसी ज्वाला में जलकर तो मैं आज संकल्प ले रहा हूँ | मैं माँ का मस्तक आपके चरणों में ले आकर रख दूँगा पिता जी, बिलकुल परशुराम की तरह |"
"बेटा! गिरा दो अँजुली का जल | तुम परशुराम भले बन जाओ, पर मैं जमदग्नि नहीं बन सकता हूँ |"
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सविता मिश्रा 'अक्षजा'
आगरा
November 30, 2015 obo में ..
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