Saturday 17 February 2018

१०) 'सहोदरी लघुकथा' साझा-लघुकथा-संग्रह

'सहोदरी लघुकथा' साझा-लघुकथा-संग्रह प्रकाशन -भाषा सहोदरी हिंदी |
सम्पादक - कुल आठ सदस्य मुख्य सम्पादक श्रीमती कांता राय |
विमोचन- दिल्ली के "हँसराज कॉलेज" में जनवरी २०१८ को हुआ |
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'सहोदरी लघुकथा' साझा-लघुकथा-संग्रह जनवरी -२०१८ में पांच कथाएँ प्रकाशित हुई हैं |
आठ सम्पादको की देखरेख में कुल ७० नवांकुरो के साथ १५ वरिष्ठ अतिथि लघुकथाकारों के लघुकथाओं से सजी ३८० पेज की किताब .. |
भाषा सहोदरी हिंदी द्वारा लघुकथा अधिवेशन 2018, हँसराज कॉलेज, दिल्ली यूनिवर्सिटी में दिनांक : 15 जनवरी 2018 को सम्पन्न हुआ जिस में सौभाग्य से हम उपस्थिति रहे |
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प्रकाशित पांच लघुकथाएँ-
१..उम्रदराज प्रेमी
२ -रंग-ढंग
३--बदलाव
४--सबक
५.-सभ्यता के दंश
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--उम्रदराज प्रेमी
इसका बदला हुआ स्वरूप ब्लॉग और फेसबुक के इस लिंक पर ...
फेसबुक 
https://www.facebook.com/savita.mishra.3994/posts/1716223348415913
इसे 9 February 2015 को इस ग्रुप में लिखा था ..
https://www.facebook.com/groups/364271910409489/permalink/425160117654001/
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२--रंग-ढंग अब इस नाम से --दाए हाथ का शोर
चेतन का फेसबुक अकाउंट पुरानी यादों को ताज़ा कर रहा था। आज अचानक उसको वें तस्वीरें दिखी, जो उसने पांच साल पहले पोस्ट की थी। दूसरों की मदद करते हुए ऐसी तस्वीरों की अब उसे जरूरत ही कहाँ थी। उसने उन्हें स्क्रॉल कर दिया।
कभी समाजसेवा का बुखार चढ़ा था उस पर। 'दाहिना हाथ दें, तो बाएं को भी पता नहीं चले! सेवा मदद ऐसी होती है बेटा।' माँ की दी हुई इसी सीख पर ईमानदारी से चलना चाहता था वह।
लोग एनजीओ से नाम, शोहरत और पैसा, सब कुछ कमा रहे थे। और वह, वह तो अपना पुश्तैनी घर तक बेचकर किराये के मकान में रहने लगा था
पत्नी परेशान थी उसकी मातृभक्ति से। कभी-कभी वह खीझकर बोल ही देती थी कि 'यदि मैं शिक्षिका न बनती तो खाने के भी लाले पड़ जातेचेतन झुंझलाकर रह जाता था। उसी बीच उसने गरीब बच्चों को खाना खिलाते, उन्हें पढ़ाते हुए तस्वीरें फेसबुक पर पोस्ट कर दी थी।
यादों से बाहर आ उसने पलटकर फेसबुक पर वही अल्बम फिर से खोल लिया। तस्वीरों को देखकर बुदबुदाया- "सोशल साइट्स न होती, तो क्या होता मेरा। यही तस्वीरें तो थी, जिन्हें देखकर दानदाता आगे आये थे और पत्रकार बंधुओ ने मेरी वाहवाही करते हुए अपने समाचार-पत्र में स्थान दिया था। फिर तो मैं दूसरों को मदद करते हुए  सेल्फ़ी लेता और डाल देता था फ़ेसबुक पर। ये कारनामा फेसबुक पर शेयर होता रहा और मैं प्रसिद्धी प्राप्त करता रहा। उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा मैंने।"
"अरे! कहाँ खोये हो जी! कई लोग आएँ हैं।" पत्नी की आवाज ने उसे आत्मग्लानि से उबारा।
"कहीं नहीं! बुलाओ उन्हें।"
"जी चेतन बाबू, यह चार लाख रूपये हैं। हमें दान की रसीदें दे दीजिए, जिससे हम सब टैक्स बचा सकें।" कुर्सी पर टिकते ही बिना किसी भूमिका के सब ने एक स्वर में बोला।
हाँ, हाँ ! क्यों नहीं, अभी देता हूँ।" रसीद उन सबके हाथ में थमा वह रुपयों की गड्डियाँ हाथ में लेकर मुस्कराया। अचानक माँ की तस्वीर की ओर देखा! आँखे झुकी, फिर लपकर उसने तस्वीर को पलट दिया।

सविता मिश्रा ‘अक्षजा’
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इसे ओबीओ में लिखा था |
http://www.openbooksonline.com/forum/topics/32-5...
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३--बदलाव
ब्लॉग के इस लिंक पर ..
http://kavitabhawana.blogspot.in/2017/01/blog-post_23.html
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‎ लघुकथा प्रतियोगिता - बदलाव/परिवर्तन ......दिनांक २५/०५/२०१५ से दिनांक ०२/०६/२०१५ तक
25 May 2015
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४--सबक


भोर-सी मुस्कुराती हुई भाभी, साज-श्रृंगार से पूर्ण होकर अपने कमरे से जब निकलीं।
“अहा! भाभी आज तो आप नयी-नवेली दुल्हन-सी लग रही हैं, कौन कहेगा कि शादी को आठ साल हो गया है।” कहकर ननद ने अपनी भाभी को छेड़ा।
“हाँ! आठ साल हो गए, पर खानदान का वारिस अब तक न जन सकी।” सास ने मुँह बिचका दिया।
‘माँ भी न, जब देखो भाभी को कोसती रहती हैं।’ सोचते हुए वह भाभी की ओर मुखातिब हुई। “भाभी मैं आपके कमरे में बैठ जाऊँ, मुझे 'अधिकारों की लड़ाई' पर लेख लिखना है।”
“सुन सुधा, सुन तो! तू माँ के... ।” भाभी की बात अधूरी रह गयी थी और सुधा भाभी के कमरे में जा पहुँची थी।
“भाभी यह क्या? आपका तकिया भीगा हुआ है। किसी बात पर लड़ाई हुई क्या भैया से!” पीछे-पीछे दौड़ती आई भाभी की ओर उसने सवाल छोड़ा।
“वह रात थी सुधा, बीत गयी। सूरज के उजाले में, तू क्यूँ पूरी काली रात देखना चाह रही है।”
“काली रात का तो पता नहीं भाभी! परन्तु रात का स्याह, अपनी छाप तकिये पर छोड़ गया है। और इस स्याह में, भोर-सा उजास आप ही ला सकती हैं।” सुधा अनायास ही गंभीर हो गयी थी और इधर उसका लेख का शीर्षक 'अधिकारों की लड़ाई' भाभी के दिमाग में, सबक बनकर कौंध रहा था।
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सविता मिश्रा "अक्षजा'
"सबक" 16 October 2016 को इस ग्रुप में ...
https://www.facebook.com/groups/540785059367075/permalink/991128497666060/

https://kavitabhawana.blogspot.in/.../blog-post_17.html...
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--सभ्यता के दंश

''मैं तहज़ीब के शहर लखनऊ से हूँ।" दोस्त की पत्नी शीला से विवेक ने अपना परिचय देते हुए कहा।
"किस तहज़ीब की बात कर रहे है, जनाब? तहज़ीब तो अब उस शहर में बेगैरत लोगों के घर में पानी भरती है। शर्मशार करने वाली खबरें आपके इस तहज़ीब भरे शहर से आ ही जाती हैं।" शीला ऐसे भड़की मानो ठहरे शांत पानी में विवेक ने ‘तहज़ीब’ नामक कंकड़ फेंक दिया हो।
दोस्त इशारे से शीला को शांत कराता रहा।
पर ज्वार तो फूटकर बह निकला था।
"
अभी हाल ही की मोहनलालगंज की घटना को सुनकर, आपकी जुबान ने भी खूब कहर ढाया होगा, उन नामुरादों पर।"
"
जीss.."
"
लेकिन किया क्या आप सबने! सिवाय मोमबत्तियाँ जलाने के?"
"
पानी भी तो दे जाओ, या सुनाती ही रहोगी!"
रसोई में जाते हुए शीला बोलते हुई गयी-

"
भाईसाहब! औरत तो मर कर भी नहीं मरती। बड़ी सख्त जान है यह औरत जात। वह तो मर गयी, खुशकिस्मत थी। अच्छा करते हैं वह माँ-बाप, जो कन्या-भ्रूण की हत्या कर देते हैं! वरना! ये भूखे भेड़िये पैदा होते ही बलात्कार करने की ताक में रहेगें।पानी से भरा जग क्या रखा, शीला ने अपनी तीखी वाणी से पानी-पानी कर दिया विवेक को।
सुनकर विवेक मन ही मन बोला- "बेटा! किस बर्रे के छत्ते में हाथ डाल दिया।
पहली मुलकात में ही तेरी खटिया खड़ी करने पे आमदा हैं ये तो।"
दोस्त ने रसोई में जाकर शीला को चुप रहने की हिदायत दे डाली।

फिर टेबल पर आकर बैठते हुए विवेक से बोला, ''यार! बुरा नहीं मानना, ऐसी घटनाओं पर तेरी भाभी कुछ ज्यादा ही भावुक हो उठती है।"
"अरे, नहीं! नहीं..! भाभी का गुस्सा जायज है। हम सच में न जाने किस मानसिकता के वशीभूत हो रहे हैं। पहले तो बस औरतों की बेकदरी करते थे! अब आये दिन ऐसी घटनायें चुल्लू-भर पानी में डूबने को विवश करती हैं।'' विवेक चेहरे पर बिना सिकन के शन्ति से बोला।
फिर मन-ही-मन बुदबुदाया- "तहज़ीब का शहर कह आग में घी तो मैंने ही डाला था! अब उठती लपटों से झुलसना ही पड़ेगा।
"
वह रोटी देने आई तो विवेक ने कहा ''भाभी! शर्मिंदा हैं हम! आपसे वादा है, कम से कम मैं अपनी जिन्दगी में कभी भी औरतों की बेइज्जती नहीं करूँगा और न ही अपने आसपास में किसी को ऐसा करने दूँगा।'' यह सुनकर शीला के क्रोध पर जैसे घड़ो पानी पड़ गया हो, वह मुस्कराकर विवेक की प्लेट में रोटी देते हुए बोली- "और लीजिये न भाईसाहबसंकोच मत करिए"
मुस्कराता हुआ विवेक भाभी का दो मिनट पहले का रूप याद कर मन में ही कह रहा था- "यह वही हैं
, दो मिनट पहले वाली चंडी, जो अब अन्नपूर्णा बन गयी हैं।"
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सविता मिश्रा "अक्षजा'

(सहोदरी में सभ्यता के दंश ऐसी छपी है, बाद में इसमें बदलाव करके ब्लॉग पर पोस्ट है)

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